रूही तिवारी
भारत में कोरोना के मामलों में जो खतरनाक तेजी आई है उसके लिए काफी हद तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की लापरवाही भरी विशाल चुनाव सभाओं और कुंभ मेले को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है.भाजपा के नेता जिस तरह बिना मास्क के विशाल रैलियां और रोड शो कर रहे हैं उससे यह भ्रम फैला है कि सब कुछ सामान्य है. लोगों में यह संदेश गया कि कोविड-19 का दुःस्वप्न तो बीती हुई बात हो चुकी है. लेकिन जैसा कि कहा जाता है, वायरस को भीड़भाड़ बहुत पसंद है, खासकर वह भीड़ जिसमें लोग मास्क नहीं पहनते और एक-दूसरे से दूरी बनाकर नहीं रहते. असम और पश्चिम बंगाल की चुनावी रैलियों ने यही आभास कराया कि मास्क पहनना और दूरी रखना फैशनेबल बात नहीं है.
सभी राजनीतिक रैलियां समस्या को बढ़ा रही हैं, चाहे वे मोदी या शाह और दूसरे भाजपा नेताओं की हों या विपक्षी दलों की ममता बनर्जी या राहुल गांधी की. इसलिए सभी दलों के नेताओं को ज़िम्मेदारी कबूल करनी पड़ेगी. दरअसल, देश भर में जबरदस्त लोकप्रिय प्रधानमंत्री मोदी जब अपने मासिक रेडियो टॉक ‘मन की बात ’ में ‘मास्क जरूरी’ की नसीहत देते हैं तो वह खोखली ही लगती है. वही मोदी जब रैलियों में तंबू के अंदर ठुंसकर एक-दूसरे से सटकर बिना मास्क लगाए बैठे लोगों को ‘जबरदस्त माहौल’ में संबोधित करते हैं तब कोविड से बचाव के उपायों पर एक शब्द तक नहीं बोलते.
देश की दो सबसे ताकतवर हस्तियां होने के नाते और केंद्र सरकार को संभालने वाली जोड़ी होने के नाते मोदी और शाह की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वे खुद एक मिसाल पेश करते हुए नेतृत्व दें. लेकिन विशाल रैलियों के लिए प्रोत्साहित करके और उनमें कोविड से सुरक्षा बरतने की कोई बात न करके मोदी और शाह ने यही साबित किया है कि उनके लिए राजनीति और चुनावी लाभ से ज्यादा कोई चीज महत्व नहीं रखती, न तो सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए पैदा हुई इमरजेंसी और न ही 130 करोड़ जनता की सुरक्षा, जिसके रहनुमा होने का वे दावा करते हैं.
यह तो खास तौर से हैरान करने वाली बात है क्योंकि मोदी संदेश देने के लिए जाने जाते हैं और उन्हें मालूम है कि उनकी कथनी और करनी का असर पड़ता है. ऐसे में, खासतौर पर जब भारत में रोज एक लाख से ज्यादा मामले सामने आ रहे हैं तब कोविड संबंधी एहतियातों की उपेक्षा की परोक्ष इजाजत देना घोर संवेदनहीनता और अक्षम्य भूल ही मानी जाएगी
घोर लापरवाही
खासतौर से जब भारत में कोविड के मामले 13 लाख के करीब— महामारी शुरू होने के बाद अधिकतम पहुंच गए हैं, तब इसे सामान्य स्थिति नहीं कहा जा सकता. ऐसी गंभीर स्थिति में तो आम राजनीति को परे कर देना चाहिए था. बेशक चुनाव तो अपने समय पर होते. लेकिन जब उन्हें लोगों की जान के लिए खतरा बनी महामारी के बीच किया जा रहा हो तब विशाल रैलियां और रोड शो करने का कोई मतलब नहीं हो सकता है. चुनाव आयोग की यथासंभव हल्की हिदायतों के बावजूद कोई भी नेता अपनी ताकत का प्रदर्शन करने के लिए मेगा शो से परहेज करने की ज़िम्मेदारी का प्रदर्शन नहीं कर रहा है.
जरा इन सब पर गौर कीजिए—
सोमवार को मोदी ने यह दावा करते हुए ट्वीट किया कि ‘बर्धमान में विशाल रैली को संबोधित कर रहा हूं’. इस रैली के फुटेज में गिनती के लोग ही मास्क पहने नज़र आते हैं.जो मोदी कर रहे हैं, उससे शाह भला पीछे कैसे रहें? इन तसवीरों को देखकर कौन कह सकता है कि घातक वायरस कहर ढाए हुए है, जो बड़ी संख्या में बिना मास्क लगाए लोगों के जमावड़े को शिकार बनाने के लिए घूम रहा है? देश के गृह मंत्री ही शायद इसका बेहतर जवाब दे सकते हैं.
इसलिए लाखों भारतीयों का जीवन इसलिए खतरे में डाला जा रहा है क्योंकि देश के राजनीतिक नेतृत्व को चुनाव जीतने से आगे कुछ नज़र नहीं आता. कोलकाता में मेरी सहयोगी मधुपर्णा दास ने बताया कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी शुरू में तो रैलियों में मास्क लगाकर जाने का पूरा ख्याल रखती थीं लेकिन उन्होंने भी अब लापरवाही बरतना शुरू कर दिया है. दास ने बताया कि मोदी भी शुरू में अपने भाषण में लोगों को मास्क लगाने के लिए कहते थे लेकिन अब वे ममता बनर्जी को ‘दीदी…ओ… दीदी ‘ कहकर चिढ़ाने में इतने मशगूल हो गए कि कोविड के एहतियातों की बातों को उन्होंने गौण कर दिया.
कांग्रेस भी बहुत पीछे नहीं है. बुधवार से वह राहुल गांधी को पश्चिम बंगाल की चुनाव रैलियों में उतार रही है. मैं अपनी सहयोगी नीलम पाण्डेय की एक रिपोर्ट को उदधृत कर रही हूं— हालात के बारे में पूछे जाने पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्य सभा सांसद प्रदीप भट्टचार्य ने कहा, ‘मैं आपसे गुजारिश करूंगा कि इसके बारे में आप गृह मंत्री अमित शाह, प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से पूछिए. क्या आप शाह और ममता की कोई ऐसी फोटो दिखा सकती हैं जिसमें वे मास्क पहने हों? इन लोगों से अपेक्षा की जाती है कि वे राज्य में नियमों का पालन करवाएंगे, मगर वे ही उनका उल्लंघन कर रहे हैं.’
जाहिर है, निर्वाचित लोग उनके हितों की परवाह नहीं कर रहे हैं जिन्होंने उन्हें निर्वाचित किया है. विशाल रैलियों का इस तरह खुल्लमखुल्ला नेतृत्व करने वाले नेताओं और दलों को शर्मिंदा होना चाहिए. लेकिन इस बेशर्म खेल का प्रधानमंत्री मोदी और उनके सिपहसालार अमित शाह मार्गदर्शन कर रहे हैं.
‘संदेश’ देने में माहिर मोदी
लोगों को संदेश देने की अपनी महारत पर मोदी को बहुत गर्व है. मतदाताओं की बड़ी जमातों का भरोसा जीतने, अपनी बातें सुनाने और मनवाने की कला उन्होंने विकसित कर ली है. इसलिए जब वे कहते हैं कि नोटबंदी लोगों के हित में है तो लोग इसे मान लेते हैं, चाहे इससे उन्हें कितनी भी तकलीफ क्यों न उठानी पड़ी हो. उनकी अपील पर लोग कोरोना का भय भगाने के लिए थाली बजाने और दीये जलाने लगते हैं.
लोगों से संवाद कायम करने की अपनी क्षमता के बूते मोदी व्यक्ति पूजा के पात्र बन गए हैं. जनकल्याण और राष्ट्रवाद (बालाकोट आदि के उदाहरण देख लीजिए) पर उनके ज़ोर ने हाल के वर्षों में भाजपा को कई चुनाव जितवाए हैं.
लेकिन देशव्यापी स्वास्थ्य संकट के इस दौर में अपनी राजनीतिक रैलियों और रोड शो से वे जो अक्षम्य गलत संदेश दे रहे हैं वह खतरनाक तो है ही, इसके दूरगामी परिणाम भी हो सकते हैं. सवाल यह नहीं कि जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं या नहीं. इस तरह के तर्क बुनियादी रूप से गलत हैं, हालांकि पश्चिम बंगाल में चुनावी सीजन में 1 से 13 अप्रैल के बीच कोरोना के मामलों में चार गुना वृद्धि (1274 से बढ़कर 4511) दर्ज की गई है.
असली सवाल यह है कि लोगों के बीच क्या संदेश जा रहा है. हजारों की भीड़ को जब प्रधानमंत्री और गृह मंत्री खूब निश्चिंत होकर संबोधित करते हैं तब देश भर में उनके समर्थकों को लगता है कि चिंता की कोई बात नहीं है. इसके साथ-साथ मुख्यमंत्रियों और अधिकारियों की अहम बैठकों में यह हिदायत देना निरर्थक ही है कि वे लोगों से कोविड के एहतियातों का पालन करवाएं जबकि वो अपनी कार्रवाइयों से लोगों के बीच ऐसा शायद ही कोई संदेश दे रहे हैं.
चुनाव की खबरें देने के लिए जब मैं असम में घूम रही थी तब यह देखकर हैरान थी कि मास्क लगाने का अनुशासन पूरी तरह गायब था और लोग आश्वस्त थे कि कोविड तो खत्म हो चुका है. मेरी हैरानी तभी दूर हो गई जब राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हिमंत बिसवा सरमा ने घोषणा कर दी कि राज्य में कोई कोरोना नहीं है और मास्क लगाने की जरूरत नहीं है. जाहिर है, यह संदेश नीचे तक पहुंच गया था.
अब जरा सोचिए कि मोदी का असर कितना है और उनसे जो संदेश मिलेगा उसका कितना प्रभाव होगा. कुंभ मेले की जो तस्वीरें आ रही हैं वे डराती हैं. उग्र रूप से फैल रहे वायरस से जब लाखों लोगों को खतरा पैदा हो गया है तब गंगा में कुंभ स्नान को टाला जा सकता था. लेकिन लोगों को सावधान करना और इस उन्माद को रोकना भाजपा की महिमामंडित हिंदुत्ववादी राजनीति के माफिक कहां बैठता.
मोदी और शाह अपनी राजनीतिक यात्रा में बहुत आगे बढ़ चुके हैं, गुजरात पर राज करने के बाद अब वे देश पर इस तरह राज कर रहे हैं जैसा अब तक किसी ने नहीं किया, इंदिरा गांधी ने भी नहीं. मतदाताओं के समर्थन से उनका भविष्य और शानदार हो सकता है लेकिन अपनी सियासत की खातिर इस पागल वायरस को अपना खेल जारी रखने की छूट देने का बोझ उनकी अंतरात्मा पर हमेशा बना रहेगा.
रूही तिवारी ‘दिप्रिंट’ में एसोसिएट एडिटर हैं. इन्होंने दिल्ली विवि के हिंदू कॉलेज से अर्थशास्त्र में बीए और एशियन कॉलेज ऑफ जर्नलिज्म से पत्रकारिता मे डिप्लोमा किया है. इन्होंने 2007 से अपना केरियर शुरू किया और इंडियन एक्सप्रेस तथा मिंट में काम किया. उनकी रुचि तथा विशेषज्ञता राजनीति, खासकर कांग्रेस तथा वामदलों की, और ग्रामीण मामलों, आधार तथा सरकार के अन्य जनकल्याण कार्यक्रमों से संबंधित नीतियों में है. इन्होंने एक साल काठमांडो में काम किया है, जहां अंग्रेजी दैनिक ‘रिपब्लिका’ में साप्ताहिक स्तंम लिखा और विभिन्न संगठनों में रिसर्च एनालिस्ट का काम भी किया. इन्होंने नेपाल पर एक पुस्तक ‘द लैंडस्केप ऑफ मधेस: पॉलिटिक्स, सोसाइटी ऐंड इकोनॉमी ऑफ द प्लेन्स’ का संपादन किया और उसमें एक अध्याय भी लिखा है. लेखन के अलावा ये रोज वीडियो निर्माण करके मल्टीमीडिया पत्रकारिता में भी सक्रिय हैं.