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राष्ट्र~ चिंतन : माफिया और फ़ासिस्ट

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 पुष्पा गुप्ता 

     _एक मित्र के उदगार : जब हमलोग युवा थे तब पटना में एक एंटी फ़ासिस्ट कॉन्फ्रेंस बड़े लाव -लश्कर के साथ हुआ था. याद कर सकता हूँ, 1975 का दिसम्बर महीना था और देश में इमरजेंसी लगी हुई थी. राजगीर में तब आयोजित समान्तर लेखक सम्मेलन से लौटते हुए कथालेखक कमलेश्वर,जो उन दिनों लोकप्रिय कथापत्रिका ‘ सारिका ‘ के संपादक थे,के नेतृत्व में लेखकों के एक समूह ने उस कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लिया लिया था. अपनी आदत से मजबूर मैं बहिष्कार करने वालों में शामिल था. एंटी फ़ासिस्ट कॉन्फ्रेंस का मुख्य लक्ष्य इंदिरा गांधी की राजनीति का समर्थन करना था._

         उस समय की स्थितियों के विश्लेषण में नहीं जाकर मैं इतना ही कहूंगा कि हमारे देश में फ़ासिस्ट शब्द का प्रयोग अपने राजनीतिक शत्रु को गाली देने के अर्थ में किया जाता रहा है. किसी को फ़ासिस्ट कह कर हम उसे हिटलर – मुसोलिनी की राजनीति से जोड़ देना चाहते हैं,जिसे 1930 -50 के बीच अमेरिका -रूस और ब्रिटेन के संयुक्त प्रचारतंत्र ने भयावह रूप में प्रचारित कर दिया था.

       _शीतयुद्ध के दौरान भी इस शब्द का खूब प्रयोग हुआ . हमारे भारत में किसी की आलोचना के क्रम में हम उसे फ़ासिस्ट कह देते हैं. फासिज्म पर इन दिनों भी हमारे मुल्क में खूब चर्चा हो रही है. यह अच्छी बात है कि हमारे विमर्श का दायरा वैश्विक हो रहा है और हम अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और विश्व इतिहास के अनुक्रम में समकाल की घटनाओं का विश्लेषण करने लगे  हैं._ 

         फासीवादी सक्रियता के साथ ही माफियावादी सक्रियता भी एक बड़ी परिघटना है जिस पर कम ही विचार हुआ है. मैं अपने इर्द -गिर्द देख रहा हूँ कि पिछले दो दशकों में फासीवाद विरोध का जिम्मा मुख्य तौर पर माफिया तत्वों ने अपने हाथ में ले लिया है और हमारे बुद्धिजीवी मित्र इस गुत्थी की अनदेखी कर रहे हैं.

         इस विवरण का उद्देश्य इसी तरफ ध्यान आकर्षित करना है. 

*पहले पृष्ठभूमि पर एक नजर :*

        माफिया और फ़ासिस्ट दोनों की जन्मभूमि इटली है. माफिया कुछ पहले से हैं, यानी उन्नीसवीं सदी से. फ़ासिस्ट बीसवीं सदी में उभरे. माफिया अराजनीतिक संगठन है, जो राजनीति को प्रभावित करता है, लेकिन फासिज्म राजनीतिक विचारधारा है, जिसके तय फलसफे हैं. हमारे देश के अनेक नेता फासिज्म से प्रभावित रहे.

      कुछ खुले रूप में और कुछ मौन रूप में. इसका प्रभाव हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के समय से ही था. अपनी आत्मकथा में जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है – 

      ” समाजवाद और फासिज्म इस युग की प्रधान प्रवृत्तियाँ मालूम होती हैं ,और मध्यवर्ग तथा ढिलमिल -यकीन समुदाय गायब होते जा रहे हैं. सर माल्कम हेली ने भविष्यवाणी की थी कि भारत राष्ट्रीय समाजवाद को ग्रहण करेगा जो एक प्रकार का फासिज्म ही है. निकट भविष्य के लिहाज से शायद उनका कहना ठीक ही है. देश के युवा तबके में फासिज्म की भावना साफ़ जाहिर है– खास कर बंगाल में और किसी हद तक दूसरे प्रांतों में भी और कांग्रेस में भी उसकी झलक आने लगी है. फासिज्म का सम्बन्ध  उग्र रूप की हिंसा से होने के कारण कांग्रेस के अहिंसाव्रती बूढ़े नेता स्वभावतः उससे डरते हैं. लेकिन फासिज्म का कॉर्पोरेट स्टेट का, यह कथित तात्विक आधार कि व्यक्तिगत संपत्ति कायम रहे और स्थापित स्वार्थों का लोप न होकर राज्य का उन पर नियंत्रण रहे, शायद उन्हें पसंद आएगा. शुरू में ही देखने पर यह तो बड़ा सुन्दर ढंग मालूम होता है, जिससे पुराना तरीका बना रहे और नया भी मालूम हो. लड्डू खा भी लो और उसे हाथ में लिए भी रखो ,यह दोनों बातें एक साथ मुमकिन हैं भी या नहीं ,यह अलग बात है. दरअसल फासिज्म को प्रोत्साहन मध्यम वर्ग के युवा तबके से मिलेगा. इस वक़्त जो क्रांतिकारी हैं, वे इसी तबके से हैं. मजदूर या किसान तबके से उतने नहीं. हालांकि कारखानों के मजदूर वर्ग में इसकी संभावना अधिक है. यह राष्ट्रवादी मध्यम वर्ग फ़ासिस्ट विचारों केलिए उपयुक्त आधार है. लेकिन जब तक विदेशी सरकार है यूरोप के ढंग का फासिज्म यहाँ नहीं चलेगा. भारतीय फासीवाद भारतीय आज़ादी का समर्थन करेगा इसलिए वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वयं को जोड़ नहीं सकेगा. इसे जनसाधारण से सहायता लेनी पड़ेगी . यदि ब्रिटिश सत्ता पूरी तरह उठ जाय तो फासीवाद तेजी से बढ़ेगा,क्योंकि मध्यम श्रेणी के उच्च वर्ग तथा स्थापित स्वार्थों से इसे सहायता मिलेगी..” 

नेहरू ने लिखा है ‘  फासीवाद और साम्यवाद इन दोनों में मेरी सहानुभूति साम्यवाद की तरफ है. ‘ लेकिन कम्युनिस्टों की कट्टरता और मार्क्सवाद के प्रति उनकी ईश्वरीय आस्था से भी वह स्वयं को अलग करते हैं; उनकी आलोचना करते हैं. 

      सुभाषचंद्र बोस तो आरम्भ में फासिज्म की प्रशंसा करते हैं ;लेकिन 1939 में रजनी पाम दत्त को दिए एक साक्षात्कार में इसे अपनी भूल भी बतलाते हैं. बहुत कम लोगों को पता होगा कि गांधी जी ने मुसोलिनी से 1931 में मुलाक़ात भी की थी ,लेकिन उस समय भी उन्होंने ड्यूस ( मुसोलिनी )की आँखों में छुपी शैतानी हिंसा का अनुभव किया था.

       1936 में अपनी हवाई यात्रा में रोम से गुजरते समय नेहरू से मुसोलिनी ने मिलने की कोशिश की और वह डेढ़ घंटे तक रोम हवाई अड्डे के विशिष्ट कक्ष में नेहरू का इंतज़ार करता रहा. नेहरू ने उनके अधिकारियो के अनुरोध को सख्ती से नकार दिया था. 

इटली में माफिया तत्वों और फासिस्टों के अंतरकलह का अपना इतिहास है.  मुसोलिनी ने जब सत्ता संभाली तब सिसली प्रान्त के दौरे के सिलसिले में एक ऐसे नगर में पहुंचा जहाँ का मेयर माफिया था. यह शायद 1925 की घटना है.

       स्वागत के उपरांत माफिया मेयर ने प्रधानमंत्री मुसोलिनी से कहा कि आप अपनी पुलिस को यहीं रहने दीजिए और आप मेरी सुरक्षा में चलिए. मुसोलिनी के इंकार करने पर माफिया नेता ने उन्हें सभा कर लेने की चुनौती दी .

       वाकई माफिया तत्वों का जनता में इतना खौफ था कि मुसोलिनी सभा नहीं कर सके. मुसोलिनी ने इसे चुनौती के रूप में लिया और अपने एक फ़ासिस्ट मित्र मोरी को उनके उन्मूलन की जिम्मेदारी दी, जिसने उसे बहुत कम समय में पूरा किया. माफिया तत्व इटली से भाग कर कनाडा और अमेरिका चले गए क्योंकि उन्हें अपनी जान बचानी थी.

       माफिया संघटन रंगदारी और हफ्ता वसूली के तरह की टैक्स वसूली करते थे और प्रभावी इलाकों पर काबू रखते थे. इनके कई घराने होते थे. फासिस्टों ने उनके पूरे ढांचे को ध्वस्त कर दिया था.  

दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब रूसी लाल फौज ने इटली में दखल दिया तो तब उन्होंने उन शक्तियों की तलाश की जो फासिस्टों के खिलाफ थे और उनसे लड़ने में सक्षम थे. इटली में फासीवाद के मुख्य विरोधी ये माफिया तत्व थे. ये बिखर चुके थे और इधर -उधर भाग चुके थे. नयी स्थिति आने पर ये आनन् -फानन संगठित हुए और कम्युनिस्टों के साथ मिल कर फ़ासिस्ट सत्ता को अंततः उखाड़ फेंका. 

        लेकिन कम्युनिस्टों को इनके द्वारा लिया गया सहयोग अंततः भारी पड़ा. लगभग पूरी दुनिया में इन माफिया तत्वों ने ड्रग्स और दूसरे कई धंधों के द्वारा अर्थतंत्र की एक समानांतर दुनिया खड़ी कर दी.  1950 के बाद इन कम्युनिस्टों को इन माफिया तत्वों से मुसोलिनी से भी अधिक ताकत के साथ लड़ना पड़ा. पूरी दुनिया में इन माफिया तत्वों ने  कम्युनिस्टों के खिलाफ संघर्ष छेड़ दिया. इसकी एक अलग कहानी है.

          रूस में कम्युनिस्टों को ख़त्म करने में माफिया तत्वों की अहम भूमिका थी. अमेरिका सहित अनेक देश आज भी इनके खिलाफ  लड़ रहे हैं .हालांकि अब उनकी ताकत काफी कमजोर हो गई है. 

भारतीय राजनीति में  माफिया तत्वों का उभार संगठित राजनीतिक दलों के वैचारिक पतन के बाद हुआ. समाजवादी , कम्युनिस्ट ताकतें भी संसदीय चुनावी राजनीति के क्रम में जाति और धर्म के औजारों का इस्तेमाल करने लगीं.

        इस बीच समाज में धन हासिल करने की लिप्सा बढ़ने लगी और इसके लिए संगठित लूट के साधनों का इस्तेमाल होने लगा. उत्पादन और रोजगार के दूसरे  साधनों का बहुत विस्तार नहीं हो रहा था. कृषि व्यवस्था बहुत का बोझ नहीं उठा सकती थी. इटली में भी ऐसी ही स्थितियों में माफिआगिरि बढ़ी थी.

        उसका आधार क्षेत्र सिसली बहुत ही पिछड़ा इलाका था. हमारे देश के पिछड़े इलाकों में ही माफिया तत्व बढे. धनबाद जैसे कोयलांचल के इलाकों में इन्होने दखल दिया. फिर तो कुछ ही समय में ये मालामाल हो गए.   प्रथम चरण में संगठित राजनीतिक दलों के राजनेताओं ने अपनी चुनावी राजनीति केलिए इनका सहारा लिया . इसी सहारे के तहत ये माफिया गिरोह क्षेत्रीय  राजनीतिक दलों में घुस कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगे.

        धीरे -धीरे इनपर उनकी पकड़ मजबूत होती गई और ये राजनीतिक दल माफिया तत्वों के अभयारण्य होते चले गए. आप अपने इर्द -गिर्द इनकी पहचान आसानी से कर सकते हैं. अंततः  इनलोगों ने लगभग सभी  क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को अपने कब्जे में ले लिया.

       राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल फ़ासिस्ट हो सकते हैं, माफिया नहीं हो सकते. चूँकि आज राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा प्रभावशाली हो गई है इसलिए  फिलवक्त इन माफिआओं का नारा भाजपा विरोध है. भाजपा विरोध की वैचारिक लड़ाई में इनकी कोई भूमिका नहीं होती. जातिवाद, परिवारवाद और अराजकतावाद से इनका खासा जुड़ाव होता है और राजनीति द्वारा  येनकेन धनार्जन इनका लक्ष्य होता है.

       इन्हें चिह्नित करना बहुत मुश्किल नहीं है. समस्या यह है कि हम में से अधिकांश लोग जान कर भी अनजान बना रहना चाहते हैं. 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे देश में नेहरू के ज़माने में जो लड़ाई फासीवाद और समाजवाद के बीच चल रही थी वह आज फासीवाद और माफिआवाद के बीच छिड़ी हुई है.  हम और आप इसमें से ही किसी एक तरफ रहने केलिए विवश हैं. मैं यह नहीं कह रहा कि तटस्थ या स्थितियों से वाकिफ लोग बिलकुल नहीं हैं.

      होंगे ,किन्तु उल्लेखनीय रूप में तो नहीं हैं. ताज़ा उदाहरण बिहार से आया है. भाजपा को शिकस्त देने केलिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मार्क्सवादी -लेनिनवादी धड़े ने एनडीए पलट नीतीश कुमार की सरकार का समर्थन किया है .

       वह पूर्व स्थापित महागठबंधन की भागीदार पार्टी है और बिहार विधानसभा में उसके बारह सदस्य हैं. हालांकि यह संख्या सरकार बनाने या बिगाड़ने में महत्वपूर्ण नहीं है. लेकिन उसके समर्थन का नैतिक मूल्य अहम है. मंत्रिमंडल गठन के अगले ही रोज उसे उसके क़ानूनमंन्त्री के इस्तीफे की मांग करनी पड़ी.

        भाकपा माले आरम्भ से लालू प्रसाद की राजनीति में माफिया तत्वों को चिह्नित करती रही है. सीवान में दिवंगत शहाबुद्दीन के माफिआतंत्र का उसने पुरजोर विरोध किया और इसके लिए उसे अपने अनेक साथियों का बलिदान करना पड़ा.

     _आज वह भाजपा विरोध केलिए लालू प्रसाद की राजनीति का समर्थन कर रही है. उसकी दुविधा समझी जा सकती है. लेकिन सवाल है क्या यही रास्ता है?_

      (चेतना विकास मिशन)

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