अग्नि आलोक

आरएसएस का असली चेहरा

Share

                     1979में दिल्ली से एक पाक्षिक अखबार निकलता था- ‘जन जन की आवाज’।   इस अखबार के संपादक ने, तब आरएसएस द्वारा, दिल्ली में, घर घर में बांटे जा रहे एक विस्तृत पर्चे की प्रति मुझे भेजकर मुझसे उस पर्चे के प्रत्युत्तर में एक लेख लिखकर भेजने का अनुरोध किया था।    पर्चे को पढ़कर उसके प्रत्युत्तर में जो लेख मैंने उन्हें भेजा था, उसे उन्होंने अपने अखबार के 15-11-79 और 1-12-79 के अंक में धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया था।      अपने संग्रहित दस्तावेजों में, अचानक ही वह लेख मुझे मिला तो उस लेख को इतने सालों बाद मैंने पुनः आद्योपांत पढ़ा।

     उस समय इस लेख की जितनी प्रासंगिकता थी, उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिकता इस लेख की अब है जब पिछले करीब दस सालों से केंद्र व बहुतांश राज्यों में आरएसएस के आनुषंगिक राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हुकूमत कर रही हैं।         संघी हुकुमशाही के इन काले दिनों में, अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से भारतीय मुसलमानों के खिलाफ, ‘वंदेमातरम’, ‘जयश्रीराम’, ‘लव जिहाद’, जैसे सुनियोजित तरीके से गढ़े गए नारों की आड़ लेकर, मॉब लिंचिंग, सनातन धर्मी धार्मिक मंचों से, मुसलमानों के सामुहिक नरसंहार के सार्वजनिक आह्वान,।मुस्लिम कारोबारियों के प्रतिष्ठानों के हिन्दू नामों का विरोध, उनके कारोबारों का बहिष्कार जैसी घटनाओं की तो जैसे बाढ़ ही आ गई है।

        संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता रूपी सर्वधर्मसमभावी भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर, इस संघी हिन्दूराष्ट्रवादी हुकुमशाही के भागवत/मोदीमुखी युग का, घटित हो रहा शर्मनाक इतिहास,देश के सौभाग्य से, अब धीरे धीरे देश के जागरूक और देशभक्त मतदाताओं को भी शर्मसार करने लगा है।   यही कारण है कि विगत दिनों सम्पन्न हुए लोकसभा के आमचुनाव में 400से भी ज्यादा सीटें जीतने की डींगें हांकने वाली भाजपा, तमाम धांधलियों के बावजूद महज 240सीटों पर ही सिमटकर रह गई और अब जेडीयू और चंद्रबाबू नायडू की पार्टी के सांसदों की बैसाखी के सहारे एक लड़खड़ाती सरकार बनाने पर मजबूर हो गई है।

            75-77 के आपातकालीन दौर में बिताए गए अपने 21 महीनों के बंदीवास के दौर में आरएसएस से मोहभंग होने के बाद से ही, मैं तो अपने लेखों, भाषणों और आंदोलनों के जरिये, निरंतर इस हिन्दूराष्ट्रवादी जहरीली विचारधारा के खतरों से देशवासियों को आगाह किये जा रहा हूँ।                 जिंदगी की ढलती जा रही शाम के इस दौर में, अपने इस44 साल पहले लिखे गए  लेख को, दुष्यंत के इस शेर के भावों में रमते हुए,पुनः शेयर कर रहा हूँ कि:-

इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और!

या इसमें रोशनी का करो इंतजाम और!

    जिज्ञासु मित्रों से अनुरोध है कि वे इस लेख को जरूर पढ़ें और इस पर अपनी प्रतिक्रिया भी लिखें!

      लेख निम्नानुसार है:-

                                  –-विनोद कोचर

        पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ( आरएसएस )द्वारा समूचे हिंदुस्तान में एक विशेष प्रकार का अभियान चलाकर ये कोशिश की गई है कि उसके बारे में दिन पर दिन बिगड़ती जा रही जनमानस की धारणाओं को थोड़ा सच और जादा झूठ बोलकर सुधारा जा सके ताकि लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी आदर्शों की बजाय एकचालुकानुवरतित्व,हिन्दूराष्ट्रवादी और गैरसमाजवादी आदर्शों को प्रस्थापित करने का, आरएसएस का दूरगामी सपना चकनाचूर होने से बचाया जा सके।

             दिल्ली में ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-यथार्थ चित्र’ शीर्षक से बांटा गया एक पर्चा, आरएसएस के इस तरह के प्रचार अभियान का एक नमूना है।

        इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि संगठन की चौपन साल की उम्र में पहली बार ही आरएसएस ने इस तरह का प्रचार अभियान पूरे देश भर में चलाया है जिसके तहत, आरएसएस पर उसके जन्म के समय से ही लगाए जाने वाले आरोपों का उत्तर देने की कोशिश की गई है।

              वे कौनसी घटनाएं हैं जिन्होंने पहली बार आरएसएस को अपनी सफाई देने के लिए मजबूर किया है?

           उत्तर बिल्कुल साफ है।

    1975में आपातकाल लगने के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा।आरएसएस के लोगों को भी गांधीवादियों के साथ जेलों में बंद कर दिया गया जहां दिन पर दिन उनका मनोबल, उनकी दकियानूसी और लोकतंत्र विरोधी विचारधारा के कारण गिरता चला गया।

    आरएसएस चीफ बाळासाहेब देवरस, श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ, रिहाई और प्रतिबंध हटाने के लोभ में सहयोग करने के लिए तैयार हो गए।खोखली सिंहगर्जनाएँ करने वाले आरएसएस के कविहृदय राजनीतिक नेता श्री अटलबिहारी बाजपेयी उनदिनों ‘घर से अस्पताल और अस्पताल से घर, यही रह गया है जिंदगी का सफर’ जैसे निराशावादी गीत लिखने और गाने लगे थे   और मार्च1977के लोकसभा चुनाव अगर ना हुए होते तो हालात यहां तक पहुंच चुके थे कि आरएसएस इतिहास के खंडहरों की जमात की तरफ खिसकने लगा था।

               लेकिन दूसरी तरफ गांधी, लोहिया और जयप्रकाश से प्रेरणा लेने वाले नवयुवक अपनी अमोघ संकल्पशक्ति व मनोबल का गारा चूना लगाकर धीरे धीरे उस राष्ट्रीय वातावरण और मंच की तैयारी कर रहे थे जिसपर खड़े होकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण, बाद के दिनों में श्रीमती गांधी की तानाशाही का लोकतांत्रिक हथियारों से मुकाबला कर सकें।

         बाद की राजनीतिक घटनाओं ने इतिहास की कसौटी पर आरएसएस की बजाय इन क्रान्तिकर्मी नौजवानों के विचारों और आदर्शों को ही खरा साबित किया है, इस बात को शायद आरएसएस भी इंकार करने का दुःसाहस नहीं करेगा।

      ये एक अलग सवाल है कि सत्ता की आसंदी तक पहुंचने वाले समाजवादियों से देश को अबतक निराशा ही हाथ लगी है।इस विषय की चर्चा अलग से की जानी चाहिए।अस्तु!

                      1977के चुनावों की घोषणा होते ही आरएसएस ने फिरसे अपना पैंतरा बदला और वह लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में तानाशाही ताकतों से लड़ने के लिए चुनाव के मैदान में कूद गया।

     ऐसा उसे इसलिए करना पड़ा क्योंकि श्रीमती गांधी ने देवरस की अपील को ठुकराकर, तानाशाही ताक़तों का साथ देने की आरएसएस की मंशा को चकनाचूर करके रख दिया था।और उन हालातों में आरएसएस के पास जेपी का साथ देने के अलावा और कोई चारा ही बाकी नहीं रह गया था।

    सच बात तो यह है कि गांधी, लोहिया और जयप्रकाश के विचारों व आदर्शों में आरएसएस की आस्था न कभी थी न है और न भविष्य में रहने की कोई संभावना ही नजर आती है।

    दिल्ली में बांटे गए आरएसएस के पर्चे में लिखी यह बात निरे झूठ से कम या जादा कुछ भी नहीं है कि, ” आपातकाल में श्रीमती इंदिरा गांधी की फासिस्ट तानाशाही के विरुद्ध किये गए सफल संघर्ष में देश की लोकतांत्रिक शक्तियों का केंद्रबिंदु संघ ही था।यही कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज लोकतंत्र की आधारभूत शक्ति के रूप में देश में विद्यमान है।”

                   लोकतांत्रिक शक्तियों का केंद्रबिंदु आरएसएस नहीं, जेपी थे और हैं जिन्हें उनदिनों आरएसएस के लोगों ने ‘पागल’ तक करार दे दिया था जब जेपी ने जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बनने के बाद आरएसएस को अन्य लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ विलीन हो जाने के लिए कहा था।

     अपने तानाशाही चरित्र को ढंकने के लिए आरएसएस के इस पर्चे में ये थोथी दलील भी दी गई है कि, “चूंकि आरएसएस के पास राज्य की कोई दंडात्मक शक्ति नहीं है इसलिए वह फासिस्ट नहीं हो सकता।”

    स्वर्गीय श्री टी. आर. वेंकटराम शास्त्री ने जुलाई1949में इस दलील के आधार पर आरएसएस का बचाव भले ही कर लिया हो, लेकिन मार्च77के बाद देश के अनेक राज्यों में, और कुछ अंशों में केंद्र के स्तर पर भी आरएसएस को जनता पार्टी के जनसंघी घटक के माध्यम से दंडात्मक शक्ति प्राप्त हुई है जिसका उसके द्वारा किया गया इस्तेमाल उसके फासिस्टी चरित्र को ही बेनकाब 

करने वाला सिध्द हुआ है।

   श्री वीरेंद्र कुमार सखलेचा तथा कुशाभाऊ ठाकरे मध्यप्रदेश में जो कुछ भी कर रहे हैं,वह आरएसएस के फासिस्ट चरित्र का परिचायक नहीं तो और क्या है?

     जनता पार्टी का मुखौटा लगाकर आरएसएस के लोग, खासतौर पर मध्यप्रदेश में, जिस तरह अनैतिक और भ्रष्ट साधनों से, खुद के तथा आरएसएस के लिए करोड़ों रुपए की संपत्ति, पूंजीपतियों व अफसरशाही के साथ सांठगांठ करके लूट रहे हैं, उसे देखते हुए ये कहना पड़ता है कि न केवल फासिस्टी बल्कि आरएसएस के बेईमान और भ्रष्ट चरित्र का भी,मार्च 77 के बाद से पर्दाफाश होने लगा है।

    भूलों को सुधारकर, उन्हें स्वीकार कर अपने चरित्र में सत्योन्मुखी सुधार करने की भारत की महान आध्यात्मिक परंपरा में आरएसएस का कभी भी विश्वास नहीं रहा है।वह तो इस दंभ में आकंठ डूबा हुआ है कि उससे एक भी गलती नहीं हुई है और सिवाय उसके, बाकी सबके विचार और दर्शन खोटे तथा झूठे हैं। 

            विचारों की संकीर्णता के मामले में आरएसएस का ये आलम है कि उसके पुस्तकालयों या पुस्तक बिक्री केन्द्रों में आप बुद्ध, मार्क्स, ईसा और गांधी जैसे विश्व सभ्यताओं को प्रभावित करने वाले महापुरुषों का साहित्य ढूंढे से भी नहीं पा सकेंगे।

          कभी कभी मेरी इच्छा जेपी की तुलना भोलेशंकर से करने की होती है।दूसरों को सुखी देखने के लिए उनके तमाम दुख दर्दों का जहर पीते रहने वाले भोलेशंकर की ये कमजोरी रही कि भस्मासुर जैसे दुष्ट राक्षसों की दिखावटी भक्ति से वे पसीजते रहे और उन्हें शक्ति देते रहे। पुराण कथाओं के इस महानायक की ही तरह जेपी भी1977में, आरएसएस की लोकतंत्र के प्रति दिखावटी भक्ति से पसीज गए और उसकी असली नीयत को कसौटी पर कसे बिना ही उसे उन्होंने तानाशाही बनाम लोकतंत्र की लड़ाई में अपना हमसफ़र बना लिया। जनता तो जेपी पर विश्वास करती थी इसलिए उनका कहना मानकर उसने जनता पार्टी को भारी बहुमत से विजयश्री दिला दी।

    इस विजयश्री ने आरएसएस के पहले से ही मजबूत संगठन को, अन्य घटक दलों के साथ साथ, सत्ता के सिंहासन तक जब पहुंचा दिया तो आरएसएस को यह लगने लगा कि ‘हिंदू राष्ट्र’ के सपने को साकार करने का अब समय आ गया है और इस बार अगर चूक गए तो फिर ये सपना कभी भी साकार नहीं हो सकेगा।

      कानून की पकड़ से बचकर गलत काम करते रहने के अपने परंपरागत तरीकों को अपनाते हुए आरएसएस  ने जनता पार्टी पर एकाधिकार जमाने हेतु अपने पंजों को फैलाना जब शुरू कर दिया तो अन्य घटक दलों, खासकर लोकदल और संयुक्त समाजवादी पार्टी को अपने पैरों के नीचे की धरती खिसकती हुई मालूम पड़ने लगी।आरएसएस को भी जनता पार्टी में इन्हीं दो घटकों से खास खतरा नजर आता था इसलिए धीरे धीरे योजनाबद्ध तरीकों से, अपने जनसंघी कठपुतलों की मदद से आरएसएस ने जनता पार्टी में इन दोनों घटक दलों के लिए घुटन की हालत पैदा कर दी।इन दलों के पास आरएसएस जैसा सुदृढ़ संगठन नहीं था इसलिए जनता पार्टी पर फैलते जा रहे आरएसएस के पंजों को फैलने से वे रोक नहीं पाए।

                    संगठन की कमजोरी के अलावा इन दलों की सत्ता पिपासा और आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक लक्ष्य का विस्मरण भी महत्वपूर्ण कारण रहा है जिसने आरएसएस के दिलोदिमाग में पल रहे घातक आशावाद को निरंतर पल्लवित किया।

        इन सतही परिवर्तनों ने देश में इस महसूसियत को जन्म दिया कि आरएसएस अपने दकियानूसी मकसद की तरफ तेजी से बढ़ता चला जा रहा है।

     बस, घटनाक्रम के इसी मुकाम पर पहुंचकर आरएसएस को अपनी मृत्यु की घंटी सुनाई देने लगी।इस देश का लोकमत अब आरएसएस को पहले से भी ज्यादा हिकारत की नजर से देखने लगा है क्योंकि लोकमत की आधुनिकता, संपन्नता और समानता की जगी हुई भूख को शांत करने की बजाय आरएसएस इस भूख को कुचल डालने में विश्वास करता है।उसकी नजरों में ये सारे आदर्श पाश्चात्य आदर्श हैं जो इस श्रेष्ठ के सनातन सांस्कृतिक आदर्शों से मेल नहीं खाते।

        आरएसएस की, लेकिन, सबसे बड़ी मुसीबत ये है कि जबतक हिंदुस्तान में लोकतंत्र जिंदा है तबतक लोकमत की उपेक्षा करके वह अपने मकसद को हासिल नहीं कर पाएगा।उसके सामने दो मार्ग खुले हैं।एक तो अपने विचारों व आदर्शों के मुताबिक हिंदुस्तान के लोकमत को ढालने का, डॉ हेडगेवार और गुरु गोलवलकर की तरह ईमानदारी से प्रयास करना, फिर भले ही प्रयासों में सफलता हाथ न लगे।और दूसरा ये कि लोकमत को चकमा देने के लिए अपना मुखौटा बदल लिया जाय और जब छल कपट, झूठ आदि के सहारे सत्ता पर एकाधिकार हो जाय तो मुखौटा उतारकर, पहले लोकतंत्र की उस सीढ़ी को नष्ट कर देना जिस पर चढ़कर भविष्य में कोई दूसरी शक्ति उन्हें पराजित न कर सके।और फिर श्रीमती गांधी के तरीकों से अपने विचारों व आदर्शों को जबरन प्रस्थापित करने का प्रयास करना।

      आरएसएस के दुर्भाग्य से उसने इसी दूसरे रास्ते पर चलना शुरू कर दिया है।श्री बाळासाहेब देवरस इस रास्ते पर आरएसएस को सन 1948 में ही ले जाना चाहते थे लेकिन श्री गुरुजी उनसे सहमत नहीं थे इसलिए काफी लंबे समय तक श्री देवरस उन दिनों श्री गुरुजी से नाराज रहे और यहां तक नाराज रहे कि कई सालों तक संघ कार्य से उन्होंने अपना संबंध विच्छेद कर डाला।इस तथ्य से आरएसएस के सभी पुराने स्वयंसेवक अच्छी तरह से परिचित हैं।

    आरएसएस का अखिल भारतीय प्रचार और जनसंपर्क अभियान तथा दिल्ली में बांटा गया पर्चा, इसी दूसरे रास्ते पर आरएसएस के चलने का संकेत है।इस पर्चे में सच बहुत थोड़ा और झूठ बहुत ज्यादा है।

        संघ का वास्तविक उद्देश्य वह नहीं है जो इस पर्चे में बताया गया है कि, ‘अपने श्रेष्ठ और प्राचीन राष्ट्र का अपने सनातन सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर तथा वर्तमान समय की आवश्यकताओं के अनुरूप सर्वांगीण विकास करना’

           कुछ माह पहले नानाजी देशमुख ने संघ का उद्देश्य ये बताया था कि पिछले बारह सौ सालों में देश में सामाजिक विकास के जो काम नहीं हो सके हैं, उन्हें आरएसएस पूरा करना चाहता है।

    उस समय एक लेख लिखकर नानाजी से मैंने पूछा था कि वे कौनसे सामाजिक विकास के कार्य हैं जो पिछले 12 सौ सालों में नहीं हो पाए हैं तथा किस क्रम से आरएसएस उन्हें पूरा करना चाहता है? नानाजी के पास इस सवाल का कोई जवाब होता तो वे देते।

    असल में संघ का उद्देश्य आज भी वही है जो 1925 में डॉ हेडगेवार द्वारा निर्धारित किया गया था।ये उद्देश्य था–मुस्लिम और ईसाई शक्ति से लोहा लेने के लिए हिंदू समाज को संगठित करना।

          लोकमत इस प्रतिहिंसात्मक उद्देश्य को पसंद नहीं करता इसलिए फिलहाल लोकमत को भरमाने के लिए, पर्चे में आरएसएस का एक कपोलकल्पित मोहक सा उद्देश्य सामने रखकर आगे की बातें इसी कल्पित उद्देश्य के आधार पर गढ़ी गई हैं।

                 अपनी मातृभूमि, अपनी प्राचीन व गौरवपूर्ण परंपरा तथा अपने श्रेष्ठ पूर्वजों के प्रति आत्यंतिक प्रेम एवं अभिमान का भाव जगाने का आरएसएस का दंभ, देश भर में फैले संघ के स्वयंसेवकों के जीवन के आईने में अगर देखा जाय तो खोखला ही नजर आता है।संस्कृत में गाए जाने वाले संघ के प्रातःस्मरण का सतही रूप जरूर कुछ ऎसा है जिसे पढ़कर और समझकर शायद संघ के इस दावे को सही समझा जाय लेकिन इस प्रातःस्मरण को भी मैं संघ की कुटिल चाल से जादा कुछ नहीं मानता।

      1965के पूर्व तक आरएसएस के इस प्रातःस्मरण में महात्मा गांधी का नाम शामिल नहीं था।1965में पहली बार महात्मा गांधी के नाम को संघ के प्रातःस्मरण में इस दलील के साथ जोड़ा गया कि हिंदू समाज के शूद्र वर्ण को हरिजन नाम देकर गाँधीजी ने देश के करोड़ों हिन्दुओं को मुसलमान बनने से रोक दिया और इस तरह हिंदू समाज की उन्होंने भारी सेवा की है,इसलिए वे भी प्रातःस्मरणीय हैं।गाँधीजी के मरने के सत्रह साल बाद सिर्फ यही एक गाँधीजी का ‘गुण’ आरएसएस को नजर आया।ये ध्यान देने की बात है कि सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह जैसे गाँधीजी के आदर्शों, गरीबी व अन्य सभी तरह के अन्यायों के खिलाफ संघर्ष करने की गाँधीजी की कोशिश आदि ने आरएसएस को कतई प्रभावित नहीं किया।

     इस प्रातःस्मरण का एक और मजेदार पहलू मैं आपको बताता हूँ।

          आपातकाल में संघ पर प्रतिबंध लगने के बाद इस प्रातःस्मरण के उस श्लोक को संघ द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिरों में गवाया जाना बंद कर दिया गया जिसमें संघ के आद्य और द्वितीय सरसंघचालक श्री के बी हेडगेवार और श्री एम एस गोलवलकर का नाम स्मरण किया जाता था।ये शिशु मंदिर उन दिनों इंदिरा गांधी की नजरों में खटक रहे थे इसलिए आरएसएस को यह भय सताने लगा था कि हेडगेवार व गोलवलकर का नाम स्मरण कहीं शिशु मंदिरों पर सरकारी कब्जे का कारण न बन जाए।इस इहलौकिक भय ने हिन्दुओं की आध्यात्मिक परंपरा पर चलने का ढोंग करने वाले संघ के नेताओं को इतना आत्मपतित कर दिया कि अपने प्रेरणास्रोतों का नाम तक इन्होंने प्रातःस्मरण से निकाल दिया।क्या अपने श्रेष्ठ पूर्वजों के प्रति आत्यंतिक प्रेम एवं अभिमान का भाव इसी तरह जगाया जाता है?

                भारतमाता की सब संतानों को जाति, पंथ, प्रांत, भाषा, दल आदि भेदों से ऊपर उठाकर एक अटूट भाईचारे में बांधने का काम आरएसएस ने अगर अपने 54 साल के इतिहास में किया होता तो आज उसकी ये दुर्दशा न होती।मुस्लिम और ईसाई हिंदुस्तानियों की बात तो जाने ही दें, हिंदुओं में भी उन हिंदुओं के साथ आरएसएस के लोग किस तरह का सलूक करते हैं जो समाजवादी, साम्यवादी या अन्य गैरआरएसएसवादी विचारधारा में निष्ठा रखते हैं, यह बात क्या किसीसे छिपी हुई है?मैं तो 14 बरस तक आरएसएस में अपना जीवन बर्बाद करता रहा।उसके बाद जब मैं आरएसएस का विरोधी बन गया तो अटूट भाईचारे में बांधने का दम भरने वाले इन आरएसएस के लोगों ने बम्बई और रायपुर की आम सभाओं में मुझपर हमला करने की कोशिश की, मुझे गंदी गंदी गालियां दी और अखबारों में भी मेरे खिलाफ ओछे शब्दों का इन्होंने इस्तेमाल किया।मुझे तो ऐसा लगता है कि गुनाह करके सीनाजोरी करने के मामले में और लगातार झूठ बोलते रहने के मामले में आरएसएस आपातकाल के बाद शायद सबसे आगे निकल गया है।

              अब हम देशव्यापी संगठन खड़ा कर, उसके द्वारा राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं की पूर्ति करने के आरएसएस के दावे को लें।

    देशव्यापी संगठन खड़ा करने की बात तो सही है लेकिन क्या राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासित और समर्पित कार्यकर्ताओं की, आरएसएस पूर्ति कर पाया है? 

               जनसंघ, भारतीय मजदूर संघ, विद्यार्थी परिषद आदि आरएसएस के कुछ प्रमुख पारिवारिक सदस्य हैं।इसके अलावा मार्च77के बाद आरएसएस के लोगों ने अनेक क्षेत्रों में यूनियनें आदि बनाई हैं।आरएसएस के संस्कार से संस्कारित हजारों लोग सरकारी नौकरी में हैं, व्यापारी हैं, ठेकेदार हैं, वकील हैं, प्रोफेसर हैं, डॉक्टर हैं।लेकिन मैं पूछता हूं कि इन तमाम वर्गों में फैले आरएसएसवादियों और गैर आरएसएसवादियों के बुनियादी राष्ट्रीय चरित्र में क्या कोई फर्क नजर आता है?आरएसएस के कारखाने से निकला पुलिस का दारोगा, सिंचाई, लोककर्म, जंगल विभाग का अफसर और इसी तरह का अन्य कोई भी सरकारी अफसर अन्य गैर आरएसएस वादी अफसर से ज्यादा ईमानदार, अनुशासित व अपने कर्तव्यों के प्रति समर्पित होता है?जहां तक मैंने देखा और महसूस किया है, मुझे तो राष्ट्रजीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कार्यरत आरएसएसवादियों और गैरआरएसएसवादियों की तुलना में ऐसा एक भी विशेष गुण नजर नहीं आता है जिससे प्रभावित होकर आरएसएस को कुछ प्लस पॉइंट दिये जा सकें।

      समाज में चलने वाले नगण्य सत्कार्यों के पीछे ही आरएसएस का थोड़ा बहुत हाथ दिखाई देता है।इन सत्कार्यों का उल्लेख, ‘क्या संघ मुस्लिम और ईसाई विरोधी है?’ शीर्षक के प्रथम दो बिंदुओं में किया गया है जिससे मैं अंशतः सहमत हूँ।स्वामी विवेकानंद का आरएसएस पर जो यत्किंचित प्रभाव है, उसीके चलते आरएसएस प्राकृतिक विपदाओं के समय समस्या ग्रस्त लोगों की सहायता,मानवता के नाते कर पाया है।इसके लिए आरएसएस को साधुवाद देना ही पड़ेगा।

     अब हम संघ के ‘हिन्दूराष्ट्र’की थोड़ी सी चर्चा करें।

    डॉ हेडगेवार के जीवन चरित्र की पृष्ठभूमि में ही, हिन्दू राष्ट्र के बारे में संघ के सही मंतव्य को समझा जा सकता है।

    डॉ हेडगेवार अपनी युवावस्था से ही एक उत्कृष्ट देशभक्त थे और 1925 में संघ की स्थापना के पूर्व, हिंसात्मक और अहिंसात्मक-सभी तरीकों से देश को आजाद कराने का, वे समय समय पर प्रयास करते रहे।वे जेल भी गए और उन्हें ये सारे काम करते-करते ऐसा लगा कि जबतक हिंदुओं को संगठित नहीं किया जाता, तबतक देश को ईसाईयों और मुसलमानों के खतरे से नहीं बचाया जा सकता।ईसाई और मुसलमान, डॉ हेडगेवार को ऐसे दो खतरे दिखाई देने लगे थे जो कालांतर में असंगठित हिंदुओं को अपनी अपनी सभ्यता व संस्कृति के उदर में लील सकते थे।

   इसी भय ने, जिसे डॉ हेडगेवार ने एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया, उन्हें हिंदुओं का जैसा वे चाहते थे वैसा संगठन खड़ा करने के लिए प्रेरित किया।

    लगातार 15 वर्षों तक वे इस कार्य को सम्पूर्ण एकाग्रता के साथ करते रहे और मरने से पहले इस कार्य की बागडोर उन्होंने श्री गोलवलकर को सौंप दी।

   श्री गोलवलकर रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के अनुयायी थे लेकिन डॉ हेडगेवार की इतिहास दृष्टि से वे पूरी तरह से सहमत थे।इतिहास दृष्टि की यह एकरूपता आरएसएस पर अपना पूरा प्रभाव जमाए हुए है।

    संघ के नामकरण को लेकर डॉ हेडगेवार के समय ही एक विवाद चल पड़ा था कि संघ का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बजाय हिंदू स्वयंसेवक संघ क्यों न रखा जाए?

    तब यह दलील दी गई कि ऐसा करने का मतलब गैर हिंदुओं को भी स्वयं को राष्ट्रीय समझने का अधिकार दे देने के बराबर होगा जबकि इस देश में सिर्फ हिंदू ही राष्ट्रीय हैं, इसलिए राष्ट्रीयता पर हिंदुओं के एकाधिकार की गारंटी के लिए संघ का नाम ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ रखा जाय तथा यह प्रतिपादित किया जाय कि ‘हिंदुत्व ही राष्ट्रीयत्व है।’

   इस मान्यता को संघ का प्रथम मूल तत्व मान लिया गया।

           संघ के हिन्दूराष्ट्रवादी दर्शन की यह पृष्ठभूमि स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद या लोकमान्य तिलक जैसे महान हिंदुओं की इतिहासदृष्टि से बिल्कुल मेल नहीं खाती।

          राजनीतिक परिस्थितियां कभी भी कभी भी स्थायी और शास्वत स्वरूप की नहीं हुआ करती।परिवर्तनशील राजनीतिक परिस्थितियों की कोख से जन्मा आरएसएस का हिन्दूराष्ट्रवाद का सिद्धांत भी कोई शास्वत स्वरूप का सिद्धांत नहीं हो सकता।लेकिन इस बात को मानने से आरएसएस ने इंकार कर दिया और आजभी मुस्लिम व ईसाई सभ्यता तथा संस्कृति के खतरों का डर बताकर आरएसएस डरपोक और पीछेदेखू हिंदुओं की जमात, संगठन के रूप में बढ़ाता चला जा रहा है।

    ईसाई और मुस्लिम विरोधी इतिहासदृष्टि संघ की मूल प्राण शक्ति है जिसके बिना संघ एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता।

       आरएसएस के पर्चे में, साम्प्रदायिक दंगों में संघ का हाथ नहीं होने की जो ढेर सारी कानूनी दलीलें दी गई हैं, उनमें भी हकीकत की कसौटी पर कोई दम नहीं है।

      साम्प्रदायिक दंगों में संघ का हाथ कैसे रहता है, ये बताने के लिए एक ठोस नजीर, मैं आपके सामने रखता हूं।

            आरएसएस से अपने रिश्ते तोड़ने के पहले, मई-जून75में, मध्यप्रदेश के दुर्ग शहर में लगे, आरएसएस के महाकौशल प्रांत के एक प्रशिक्षण शिविर में मैंने एक प्रशिक्षक के नाते भाग लिया था। उस वर्ष, छिंदवाड़ा विभाग के प्रचारक श्री कृष्ण दामोदरराव सप्रे बौद्धिक विभाग की जिम्मेदारी संभाले हुए थे और मुझे उनके सहायक के रूप में, पूरे एक माह तक उस प्रशिक्षण शिविर में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ था।प्रतिदिन दोपहर में, ‘बौध्दिक’ के रूप में आरएसएस के नेताओं द्वारा स्वयंसेवकों को जो दिमागी खुराक पिलाई जाती थी, उसे लेखबद्ध करके बाद में उसकी साफ सुथरी प्रतियां तैयार करने का काम मेरे ही जिम्मे था।प्रमुख नेताओं के भाषण टेप भी किये जाते थे इसलिए बाद में टेप की मदद से उन भाषणों को मैं अक्षरशः लिख लिया करता था।

            हिंदुस्तान की खुशकिस्मती और आरएसएस की बदकिस्मती से, उस शिविर में दिये गए तीस भाषणों की मेरे द्वारा लिखी गई तीसों रफ कापियाँ ,सप्रेजी की अनुमति से मैंने अपने ही पास रख ली थी और उन भाषणों का साफसुथरा (फेयर) रिकॉर्ड आरएसएस के प्रांतीय कार्यालय जबलपुर चला गया।10या11जून 1975 को शिविर समाप्त हुआ,25जून 1975 को आपातकाल लगा और 27जून1975 को मुझे मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया।

                 21महीनों के बाद, जेल से मैं आरएसएस का विरोधी बनकर निकला।बाहर का राजनीतिक वातावरण पूरी तरह से बदल गया था और मैं भी बदल चुका था।

       जनता पार्टी के भीतर और बाहर छिपे और खुले तौर पर चलने वाली आरएसएस की गतिविधियों ने आरएसएस के बारे में मेरी बदली हुई धारणाओं को दिन पर दिन भी मजबूत ही किया।और समय समय पर अखबारों व पत्रिकाओं के जरिये मैंने अपने विचारों से जनता को अवगत भी कराया।इन सारी झंझटों के बीच मुझे ये याद ही नहीं रहा कि मई-जून75के आरएसएस के प्रशिक्षण शिविर में आरएसएस के आला नेताओं द्वारा दिये गए तीस भाषणों की रफ कापियां मेरे ही पास रखी हुई हैं।

      अलीगढ़ के साम्प्रदायिक दंगों में आरएसएस की भूमिका को लेकर छिड़ी बहस ने उन दस्तावेजों की मुझे याद दिलाई।

          मुझे अच्छी तरह से याद है कि दुर्ग के उस शिविर में 30और31मई को श्री भाऊराव देवरस द्वारा दिये गए धारावाहिक भाषणों के बाद, प्रशिक्षण के लिए आए स्वयंसेवकों की दिमागी दुनिया मुसलमानों के प्रति नफरत के जहर में इस बुरी तरह से डूब गई थी कि कई स्वयंसेवक केवल दो भाषणों को सुनकर, जिसमें भारत विभाजन पर आरएसएस की इतिहास दृष्टि की मुस्लिम विरोधी उत्तेजक व्याख्या की गई थी, समूचे इतिहास को सही अर्थों में जाने बिना ही मुसलमानों से निपट लेने की चर्चा करने लगे थे।

            श्री भाऊराव देवरस आरएसएस के वर्तमान सरसंघचालक श्री बाळासाहेब देवरस के छोटे भाई और, पद की दृष्टि से आरएसएस के तीसरे सबसे बड़े नेता (सह सरकार्यवाह) हैं।सह सरकार्यवाह का पद सम्हालने के पहले, पच्चीस सालों से भी ज्यादा समय तक वे उत्तरप्रदेश के प्रांत प्रचारक रहे हैं।

   सिर्फ दो दिनों में ही, दुर्ग शिविर में आए करीब चार सौ स्वयंसेवकों को कट्टर मुस्लिम विरोधी बना देने वाले भाऊराव देवरस ने उत्तरप्रदेश में अपने जीवन के बेहतरीन जोशीले पच्चीस सालों में कितने हिंदुओं के दिमाग में सांप्रदायिकता और मुस्लिम विरोध का जहर फैलाया होगा, इसका अनुमान श्री भाऊराव देवरस के उन दो भाषणों को पढ़कर सहज ही लगाया जा सकता है।

    आरएसएस के नेतागण साम्प्रदायिक दंगों में आरएसएस का हाथ होने का जब खंडन करते हैं तो उनका आशय सिर्फ यही होता है कि कानून की मौजूदा प्रक्रियाएं साम्प्रदायिक दंगों में आरएसएस का हाथ सिद्ध नहीं कर सकतीं।यही वजह है कि दंगों में अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए आरएसएस के इस पर्चे में जांच आयोगों की रपटों और कानूनी फैसलों का सहारा लिया गया है लेकिन इंसानी सभ्यता कानून के चौखटों को अभी तक इतना बड़ा नहीं कर पाई है कि वह सच्चाई के चौखटे की बराबरी कर सके।कानून का चौखटा साम्प्रदायिक दंगों के आरोप से आरएसएस को भले ही बेदाग बरी कर दे लेकिन ये सच है कि आरएसएस के जनम की बुनियाद ही कट्टर मुस्लिम विरोध है और अपनी इस पहचान को बरकरार रखे बिना आरएसएस का जिंदा रहना मुश्किल है।

                         ये एक अलग बात है कि हिंदुस्तान की लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी विचारधारा ने आरएसएस को जिल्लत की जिंदगी जीने के लिए मजबूर कर दिया है और अब पर्चे छापकर तथा जनसंपर्क अभियान चलाकर आरएसएस को चिल्ला चिल्लाकर ये कहना पड़ रहा है कि वह लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समाजवादी विचारों का विरोधी नहीं है ;वह साम्प्रदायिक नहीं है; वह मुसलमानों और ईसाईयों का विरोधी नहीं है आदि आदि।

    अपने आप को सेक्यूलरवादी सिद्ध करने के लिए आरएसएस ने अपने इस पर्चे में यह दलील दी है कि, ‘…..स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत ने सेक्युलर राज्य की परंपरा को जो अपनाया, वह इसलिए संभव हो सका क्योंकि भारत की बहुसंख्यक जनता हिन्दू है।…..’

     यह एक अधूरा सच है।पूरा सच ये है कि राष्ट्रीय स्वातंत्रय के आंदोलन ने इस देश में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी जीवन मूल्यों को जन्म दिया है और इस आंदोलन तथा आंदोलन के प्रमुख प्रणेता महात्मा गांधी का, आरएसएस हमेशा कटु आलोचक रहा है।जिन हिंदुओं ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया उनकी आरएसएस में कभी कोई आस्था नहीं रही या इसे यों भी कहा जा सकता है कि ऐसे क्रांतिकारी, त्यागी और बलिदानी हिंदुओं में आरएसएस की कभी कोई आस्था नहीं रही।

   इस पर्चे में किया गया आरएसएस का ये प्रतिपादन भी निरा झूठा है कि, ‘संघ का ये विश्वास है और संघ ने सदा ये कहा है कि इस देश के लिए संसदीय प्रजातंत्र सर्वोत्तम व्यवस्था है।’

    श्री गुरुजी संसदीय प्रजातंत्र को पाश्चात्य प्रणाली मानकर हमेशा इसकी आलोचना करते रहते थे और एकात्मक प्रणाली का वे पक्ष लिया करते थे।श्री गुरुजी के भाषणों और अन्यत्र प्रकट किए गए विचारों को जिन लोगों ने पढ़ा या सुना नहीं, उन्हें भले ही आरएसएस के लोग इस तरह के पर्चे छपवाकर भ्रमित कर लें लेकिन भ्रम के ये बादल सच्चाई को जानने के बाद आखिर कबतक टिके रह सकेंगे?

                 अपने आप को जनतंत्रवादी साबित करने के लिए आरएसएस ने इस पर्चे में ये बात भी बिल्कुल झूठ कही है कि संघ के संविधान के अनुसार प्रत्येक तीसरे वर्ष विभिन्न स्तरों पर संगठनात्मक चुनाव होते हैं

                    संघ के जिस संविधान की इस पर्चे में दुहाई दी गई है, उसकी भी बड़ी दिलचस्प कहानी है।

          गाँधीजी की हत्या से उत्पन्न जनाक्रोश की वजह से संघ पर लगाई गई पाबंदी को हटाने के लिए संघ को अपने विचारों तथा कार्यप्रणाली में, सतही तौर पर ही सही, लेकिन कुछ परिवर्तन अवश्य करने पड़े।इन परिवर्तनों में एक परिवर्तन संघ का नया संविधान था।पंडित नेहरू और सरदार पटेल के संतोष के लिए लोकतंत्र का बाह्य ढांचा इस संविधान में स्वीकृत किया गया लेकिन मेरे जैसे, कई बरसों तक संघ में रहे हुए और रह रहे असंख्य स्वयंसेवक इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं कि इस नए लोकतांत्रिक बाह्य ढांचे के बावजूद, संघ की अंतर्गत कार्यप्रणाली का आधार ‘एकचालकानुवरतित्व’ ही रहा है।संघ के पदाधिकारियों की नियुक्ति चुनाव के द्वारा नहीं बल्कि नेता के द्वारा किये गए मनोनयन के जरिए होती है।

         पर्चे में किया गया संघ का ये कथन भी निरा झूठ है कि संघ ग्रामपंचायत के स्तर तक सत्ता के विकेंद्रीकरण का पक्षपाती है।

     जिन्होंने श्री गुरुजी के भाषणों को पढ़ा या सुना होगा कि श्री गुरुजी सत्ता के विकेंद्रीकरण के नहीं बल्कि सत्ता के केंद्रीकरण के पक्षपाती थे और श्री गुरुजी से संघ के स्वयंसेवक आजतक ,कभी भी किसीभी मुद्दे पर असहमत नहीं हुए हैं।

        जिस हिन्दू हृदय की सदैव ये प्रार्थना रही है कि, ‘सर्वेपि सुखिनः संतु:सर्वे संतु निरामयाः’ ,वह हिन्दू हृदय संघ के पास कभी भी नहीं रहा।

     जब मैं नरसिंहगढ़ की जेल में था तब गांधी, लोहिया, जयप्रकाश आदि नेताओं के विचारों व कामों के अध्ययन ने, आरएसएस का परित्याग करने के पहले, कुछ मासूम विश्वासों के बीज मेरे चिंतन में बोए थे।पत्रव्यवहार के रूप में मैंने अपने इस चिंतन को, येरवड़ा जेल में बंद संघ प्रमुख श्री बाळासाहेब देवरस के साथ साझा किया था।लेकिन देवरस मेरे इस चिंतन पर अपनी प्रतिक्रिया देने के बदले, मेरे पत्रों का गोलमोल जवाब देते रहे क्योंकि उनदिनों वे श्रीमती गांधी से समझौता करके लोकतंत्रवादियों की पीठ में छुरा भोंकने की साजिश रच रहे थे।अब यही साजिश वे लोकतंत्रवादियों के बीच में रहकर, आरएसएस पर लोकतंत्रवादी होने का तमगा लगाकर रच रहे हैं।

        इसलिए, लोकतंत्र में आस्था रखने वाले हिंदुस्तानी नौजवानों से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे आरएसएस द्वारा फैलाए जा रहे झूठ को खुद भी समझें और अपनी समझ से देश की जनता को भी वाकिफ कराएं।

    जबतक गांधी-लोहिया-जयप्रकाश के सपनों का कोई क्रांतिकारी युवा मंच देश में नहीं उभरता तबतक आरएसएस के झूठ फरेब के खतरों से सावधान तो रहा ही जा सकता है।

                      — विनोद कोचर

Exit mobile version