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*ख्वाब नही हक़ीक़त*

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शशिकांत गुप्ते

आज सीतारामजी बहुत ही क्रोधित दिखाई दे रहे हैं।
मुझे से मिलते ही सीतारामजी कहने लगे, मुझ पर लोग आरोप लगाते हैं कि, मै सिर्फ और सिर्फ राजनीति पर ही व्यंग्य लिखता हूं।
मुझ पर आरोप लगाने वाले राजनीति को फालतू समझते हैं।
एक ओर राजनीति को फालतू कहते हैं लेकिन दूसरी ओर व्यक्ति पूजा में इतने लीन रहते हैं कि, व्यक्ति की कमियां,खामियां इन लोगों को दिखाई नही देती है।
मैने कहा आप क्रोधित मत हो संभवतः राजनीति को फालतू समझने वालों को तेरह रुपए किलों शक्कर मिल रही है।
पैतीस रुपए लीटर पेट्रोल मिल रहा है। इन लोगों के खाते में पंद्रह लाख आ गए होंगे। इन लोगों को दस वर्षो से पंद्रह लाख का व्याज मिल रहा होगा?
इन लोगों के लिए चिकत्सा सुविधा इनके देय शक्ति के अंदर है। इन लोगों को दवाइयां भी बहुत सस्ती मिल रही है।
इन लोगों के लिए तनिक भी महंगाई नहीं हैं। कारण दस वर्ष पूर्व बहुत होती थी, महंगाई की मार।
दस वर्षों में बीस करोड़ लोगों को रोजगार मिल गया है।
देश में अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त राशन मिल ही रहा है।
सत्तर साल में कुछ हुआ ही नहीं था।
सीतारामजी ने मुझे बीच में रोका और शायर बेकल उत्साही रचित चार पंक्तियां सुनाई।
“फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
ग़रीब शर्मो हया में हसीन कुछ तो है
लिबास क़ीमती रख कर भी शहर नंगा है
हमारे गाँव में मोटा महीन कुछ तो है

उक्त रचना सुनाने के बाद सीतारामजी ने मुझे शायर
तरन्नुम कानपुरी का निम्न शेर भी सुनाया
ऐ क़ाफ़िले वालों, तुम इतना भी नहीं समझे
लूटा है तुम्हे रहज़न ने, रहबर के इशारे पर

मैने भी सीतारामजी को शायर सागर ख़य्यामी का शेर सुनाया।
कितने चेहरे लगे हैं चेहरों पर
क्या हक़ीक़त है और सियासत क्या
सीतारामजी ने चर्चा को समाप्त करते हुए मुझे शायर माजिद देवबंदी का निम्न शेर सुनाया।
जिसके किरदार पे शैतान भी शर्मिंदा है
वो भी आये हैं यहां करने नसीहत हमको

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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