Site icon अग्नि आलोक

टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट यानी टीआरपी की हकीकत !

Share

मिडिया के जानकार एक सुप्रसिद्ध विशेषज्ञ की नजरों में

मुकेश कुमार

          ____________________


       ' वास्तव में हमारा मीडिया लोकतांत्रिक है ही नहीं। वह सवर्णवादी है, बहुसंख्यकवादी है। उसमें बहुलता और विविधता के दर्शन हमें नहीं होते। राजनीतिक मुहावरे में कहें तो वह हिन्दू-तुष्टीकरण पर चलता है '
     ' हालांकि हमारे टेलीविजन उद्योग के लोग हर समय वैचारिकी से मुक्त समाचार-विचार और मनोरंजन की वकालत का ढोंग करते रहते हैं। भारत में आज यह टीवी उद्योग सियासत का अनोखा औजार और शासक समूह का बेहद ताकतवर सहयोगी बनकर उभरा है। मौजूदा हिन्दुत्ववादी शासकों के दौर के इस टीवी उद्योग को टीवीपुरम् कहना ज्यादा मुफीद होगा। '
      ' सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र को हमेशा भ्रष्ट साबित करने में जुटा रहने वाला निजी क्षेत्र किस तरह नख से शिख तक भ्रष्टाचार में सराबोर है; टीआरपी की कहानी में इसके ठोस प्रमाण मिलते हैं। बीते कुछ वर्षों के दौरान हुए तमाम रहस्योद्घाटनों को उद्धृत करते हुए मुकेश कुमार लिखते हैः ‘ बहरहाल, इन तमाम रहस्योद्घाटनों ने दो बातें स्पष्ट कर दीं कि टीआरपी का पूरा तंत्र-बार्क ही भ्रष्ट है, इसलिए वह किसी भी लिहाज से विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती। '
       ' टीआरपी प्रणाली के साथ छेड़छाड़ करके उसे अपने हिसाब से बनाने में पूरा उद्योग ही लगा हुआ है। इसमें टीवी चैनल, बार्क के अधिकारी-कर्मचारी, बार्क से जुड़ी एजेंसियां और कुछ बाहरी शक्तियां मिलकर जो खेल खेल रहे हैं, उसमें टीआरपी का पवित्र होना संभव ही नहीं रह जाता। यहां तक कि अब तो राजनीति और सरकारें भी इसमें शामिल दिख रही हैं। सोचिए कि 32000 करोड़ मतलब 3 खरब 20 अरब रूपयों के विज्ञापन का जो कारोबार इस टीआरपी के आंकड़ों के आधार पर होता है, वह कितने बड़े छल का शिकार हो रहा है ! '
      ' टीआरपी की शुरुआत भले ही विज्ञापनों के निर्धारण कि किस चैनल को कितना विज्ञापन मिलना चाहिए, के लिए हुई हो लेकिन भारतीय टीवी उद्योग में टीआरपी का दायरा आज सिर्फ विज्ञापन तक सीमित नही रह गया। उसने टेलीविजन के समूचे कंटेट को भी प्रभावित और यहां तक कि नियंत्रित और निर्देशित करने लगा। टीआरपी ही ‘असल संपादक’ और ‘प्रबंध संपादक’ बन गया! टीआरपी  की रिपोर्ट से ही तय होने लगा कि टेलीविजन पर क्या दिखाया जाना चाहिए और क्या नहीं दिखाया जाना चाहिए? यह सब कैसे और क्यों हुआ; किताब के पाचवें और छठें अध्याय में इसका विस्तारपूर्वक व्याख्यात्मक ब्योरा दिया गया है। छठें अध्याय-‘टीवी न्यूज में फार्मूलेबाजी का सिलसिला’ में  उदाहरणों के साथ बताया गया है कि किस तरह हर हफ्ते आने वाली टीआरपी ने टेलीविजन चैनलों को नये-नये फार्मूले दिये और किस तरह ‘फाइव-सी’ यानी क्राइम, क्रिकेट, सेलेब्रिटी,  सिनेमा और कंट्रोवर्सी का फार्मूला न्यूजरूम में टीवी कारोबार का सबसे ‘कारगर हथियार’ बना। इसी दबाव में भारतीय न्यूज टीवी उद्योग पत्रकारिता को छोड़कर मनोरंजन के धंधे में कूद पड़ा और सारी लाज-शर्म ताक पर रखकर पत्रकारिता से किनारा कर लिया। आर्थिक उदारीकरण की हवा में श्रोता और दर्शक भी बड़े पैमाने पर उपभोक्ता में बदल चुका था। '

         साभार - वरिष्ठ पत्रकार और मीडिया शिक्षक डाक्टर मुकेश कुमार उनकी अभी-अभी प्रकाशित पुस्तक 'टीआरपी और टीवीपुरम् का राजनीतिक-अर्थशास्त्र ' से 

          संकलन -निर्मल कुमार शर्मा, 'गौरैया एवम् पर्यावरण संरक्षण तथा देश-विदेश के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पाखंड, अंधविश्वास,राजनैतिक, सामाजिक,आर्थिक,वैज्ञानिक, पर्यावरण आदि सभी विषयों पर बेखौफ,निष्पृह और स्वतंत्र रूप से लेखन ', गाजियाबाद, उप्र,
Exit mobile version