शकील प्रेमजी
किसी के धर्म का रंग
हरा हो सकता है
किसी के मजहब का रंग
भगवा हो सकता है
किसी का रिलीजन सफेद
तो किसी का काला हो सकता है
इन रंग बिरंगे मगर नकली रंगों के चक्कर में
जो असली खून बहता है
उस खून का रंग हमेशा लाल ही होता है
तेरा मजहब जुदा मेरा धर्म अलग
मेरी पूजा जुदा तेरी इबादत अलग
मेरा मन्दिर अलग तेरा गिरजा अलग
मेरा खुदा अलग तेरा ईश्वर अलग
लेकिन इन अलग अलग धर्मों
और जुदा जुदा खुदाओं के चक्कर में
जो एक सा लहू बहता है
उस लहू का रंग हमेशा लाल ही होता है
हिन्दू या मुसलमान
मूरख या विद्वान
साधु या बेईमान
बूढ़ा हो या जवान
सिख यहूदी ईसाई
संत हो या कसाई
दुश्मन हो या सगा भाई
सभी की धमनियों में
बहने वाले खून का रंग लाल ही होता है
दंगों के दौरान
नालों में बहने वाला खून हो
या ब्लड बैंक की दान पेटी में जमा रक्त
दोनों का रंग लाल ही होता है
दोनो ओर के झंडे और लिबास का रंग
मुख्तलिफ जरूर हैं
लेकिन
इन अलग अलग झंडों
और लिबासों के वजूद को बचाने की खातिर
दोनो ओर
खून की जो नदियां बहाई जाती हैं
वो लाल ही होती हैं.
राजनीति की बिसात पर
नफरतों की आंच सुलगाई जाती है
उस सुलगती आंच में
धीमे धीमे
लहू को गर्म किया जाता है
फिर यही लहू
नफरतों की घनघोर घटा बनकर
बरस जाता है
जिसका हर बून्द लाल ही होता है
धर्म का विषाक्त संक्रमण
पीढ़ी दर पीढ़ी
इंसान रूपी भेड़ों के
दिमागों तक पहुंचाया जाता है
इन्ही बीमार भेड़ों की भीड़ को
दूसरे बीमार भेड़ों की भीड़ से लड़ाया जाता है
भेड़ों की भीड़ के इस भीषण भिड़ंत में
दोनो ओर
जो रक्त निकलता है
वो लाल ही होता है
यह कोई नई खोज नहीं है
बल्कि
मनुष्य शताब्दियों से जानता है
की लहू का रंग लाल ही होता है
जब
धरती पर गिरा था
पहला कतरा खून का
उसका रंग लाल ही था
जब पहली बार
भाई ने भाई का खून पीया
तो वह खून लाल ही था
जब बेटे ने बाप का रक्त बहाया
वह पहला रक्त भी लाल ही था
जब पहली बार
मर्द ने औरत के जिस्म को निचोड़ा
तो वहां से लाल रंग ही निकला
जब पहली बार
दो इंसानी कबीलों के बीच
जंग हुई
तो उस जंग में
लहू का जो पहला कतरा
जमीन पर गिरा
उसका रंग लाल ही था
इंसान का रंग रूप नस्ल जाती धर्म
सब बदलता रहा
लेकिन खून का रंग नही बदला
वो लाल ही रहा
क्रांति के नाम पर लड़े गये जनआंदोलनों में
रक्त की जो धाराएं बही
उन धाराओं का रंग भी लाल ही था.
राष्ट्रों की सीमाएं
न जाने कितनी माओं के लालों के
जिस्म से निकलने वाले
लाल रक्त से ही
आकार लेती रहीं
इंसान और इंसान के बीच खड़ी
धर्म जाती और साम्प्रदाय की
बड़ी बड़ी दीवारें
नफरतों की गहरी दरारो में
बहते लाल लहू से ही
तैयार होती रहीं
जिंदा लाशों के ढेर पर खड़ी
मुर्दा लोगों की सभ्यताएं
जिंदा लाशों से निकलते
लाल रक्त की दुर्गंध से ही
बेकार होती रहीं
जब पूंजीपतियों के
कारखानों से निकलते काले धुओं में
मजदूरों का लाल रक्त शामिल हुआ
तब ही
पूंजीवाद के विकास का सार्वभौमिक रथ
लाल रक्त के इस उड़ते फुहार से
धूमिल हुआ
साम्राज्यों का विस्तार भी
सपूतों के लहू की लाल धार से ही हुआ
नेता सत्ता ईश्वर और धर्म के गठजोड़ ने
शोषितों को कमजोर और
शोषकों को ताक़तवर बनाया है
और फिर इन सब ने मिलकर
जनसमूहों का लाल रक्त बहाया है.
लाल रंग
सुबह की लालिमा का चिन्ह है तो
यह जीवन और मृत्यु का प्रतीक भी है
यह ब्रह्मांड का संक्षेप है तो
सृष्टि की ऊर्जा का विस्तार भी है
यह प्रकृति का बोध है तो
उत्तपत्ति का स्रोत भी है
लाल रंग
जीवन को बनाने और बचाने के लिए है
यह धमनियों में बहता रहे तो
हमारी सभ्यताएं भी
स्वच्छ नदियों की अविरल धाराओं की भांति
निरंतर आगे बढ़ती रहेगी
और यदि
यही लाल रंग
नालों में बहता रहे तो
हमारी सभ्यताएं भी
गन्दे नाले के ठहरे हुए और बदबूदार
पानी की तरह
सड़ जाएगी.
साभार - रचयिता सुप्रसिद्ध चिंतक और दार्शनिक रचयिता शकील प्रेमजी, संपर्क- 79 8261 0842
प्रस्तुति - अशोक जी , द्वारा -जय भीम पटल, संपर्क - 9466856436
-निर्मल कुमार शर्मा, 'गौरैया एवम् पर्यावरण संरक्षण तथा देश-विदेश के समाचार पत्र-पत्रिकाओं में पाखंड,अंधविश्वास,राजनैतिक, सामाजिक,आर्थिक,वैज्ञानिक, पर्यावरण आदि सभी विषयों पर बेखौफ,निष्पृह और स्वतंत्र रूप से लेखन ',गाजियाबाद, उप्र,