Site icon अग्नि आलोक

पश्चात्या विश्व की दृष्टि में धार्मिक भारत

Share

 पुष्पा गुप्ता

       _यह देखना रोचक होगा कि पश्चिमी बुद्धिजीवियों ने भारत को किस नजरिये से खोजा और इस देश को एक राजनीतिक ही नहीं, धार्मिक नक्शा भी दिया।उन्होंने भारत के बारे में यात्रा वृत्तांत लिखे थे, व्याख्यान दिए थे और चमकदार जिल्दों में अनगिनत रोचक पुस्तकें छपाई थीं।कभी ये पुस्तकें अभिजात राजाओं-जमींदारों की ही नहीं, अंग्रेजी-शिक्षित भारतीय बुद्धिजीवियों की भी अलमारियों की शोभा होती थीं।वे इन्हें पढ़कर अपने बारे में जानते थे और किसी न किसी रूप में साम्राज्यवाद के प्रति कृतज्ञता स्वीकार करते थे।यह परंपरा आज भी बनी हुई है- यह बौद्धिक  परजीविता है।_

*पश्चिम में भारत को जानने की होड़ :*

        जर्मन दार्शनिक जोहान हर्डर (१७४४-१८०३) ने भारत को दुनिया का एक ऐसा प्राचीन देश कहा था, जहां ‘मनुष्यता का बचपन’ था।वे गेटे के मित्रों में थे।उन्होंने भी विलियम जोंस द्वारा अनूदित ‘शाकुंतलम’ पढ़ा था।हर्डर के बाद इस तरह के विचार आने शुरू हुए कि भारत की सभ्यता में शिशुता है।

     भारत के लोग अबोध हैं- इनोसेंट हैं।यह तर्क उन्हें यहां पहुंचाता था कि भारतवासियों को पश्चिम से बहुत कुछ सीखना है- अपनी अबोधता को बोधता में बदलना है! जाहिर है, पश्चिम ने भारत को सिर्फ उपनिवेशवाद नहीं दिया, इसकी सकारात्मक व्याख्याएं भी दीं, जिन्हें कई भारतीय बुद्धिजीवी लंबे समय तक सच मानकर ढोते रहे हैं।

     निश्चय ही जब हम यूरोपकेंद्रिक सोच से मुक्त होने की बात करते हैं, हमारा लक्ष्य यूरोपीय श्रेष्ठता के अहं का विरोध करना होता है, पश्चिम की बौद्धिक उपलब्धियों से नाता तोड़ना नहीं।इसी तरह जब हम अपने देश के जड़ पुनरुत्थानवादी उभारों की आलोचना करते हैं, हमारा लक्ष्य धार्मिक कूपमंडूकता का विरोध करना होता है और इस दंभ से बाहर निकलना होता है कि भारत से ही सारा ज्ञान-विज्ञान दुनिया में फैला।इसका अर्थ भारतीय चिंतन के महान मानवीय तत्वों से नाता तोड़ना नहीं है।

       एन्क्वेंटिल-द-पेराँ (१७३१-१८०५) एक तरह से पहला महत्वपूर्ण प्राच्यविद था, जिसने पश्चिम को इस देश की उपनिषदों और इनमें व्यक्त धार्मिक उदारवाद से परिचित कराया था।उसकी प्रसिद्धि से विलियम जोंस को जलन थी।

जर्मन कवि गेटे की भी भारत को लेकर ऊंची दृष्टि थी।उन्होंने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ के जोंस द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद को पढ़कर बहुत सुंदर शब्द कहे थे, ‘यदि तुम यौवन के फूल और प्रौढ़ता के फल और ऐसी सामग्रियां एक स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा तृप्त और शांत होती है, अर्थात- यदि तुम मर्त्य और स्वर्ग को एक स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से एक नाम निकल पड़ता है-शाकुंतलम्, महान कवि कालिदास की अमर कृति।’

      यहां ध्यान में रखना है कि हिटलर के शासन में गेटे के महान काव्य ‘फाउस्ट’ को इसलिए अपमानित किया गया कि गेटे के विचार अंतरराष्ट्रीयतावादी थे।

*कूपमंडूकता पर अतीत का एकाधिकार नहीं :*

      विलियम जोंस संस्कृत की प्राचीन उपलब्धियों की सराहना करते हुए भी कहता था कि भारत का धर्म ऐसा है, धार्मिक कानून ऐसे हैं कि यहां के लोग कभी स्वाधीन नहीं रह सकते।एशिया की जातियां चाहे प्राचीन हों या आधुनिक, वे यूरोपीय जातियों से निम्न हैं।

     हिंदुस्तानियों में उनके धर्म की वजह से ही लोकतंत्र के विचार नहीं हैं।भारत के जो हिस्से अंग्रेजों के हाथ में आ गए हैं, वे इस समय देश के श्रेष्ठ प्रांत हैं।ईश्वर ने भारत के ये भूखंड अंग्रेजों को वस्तुतः यहां की जनता की खुशहाली के लिए सौंपे हैं।

      विलियम जोंस भारत के लोगों से कहते थे कि ‘गीता’ के पहले जो कुछ लिखा गया है, उसे वे भूल जाएं।वे ‘गीता’ के पहले का सबकुछ भूलने के लिए कह रहे थे तो मैक्स मूलर वेद के बाद का सबकुछ भूलने के लिए कह रहे थे।यह उच्छेदवाद का औपनिवेशिक रूप था, जिसमें बड़े सूक्ष्म ढंग से कई उच्च परंपराओं को खारिज करने की प्रवृत्ति दिख सकती है।

     कई आधुनिक भारतीय लेखकों और बुद्धिजीवियों ने खारिज करने की इस प्रवृत्ति को अपनाया।

१८वीं सदी से ही इंग्लैंड, फ्रांस, डच, पुर्तगाल, जर्मनी आदि के प्रतिभासंपन्न विद्वान स्थापित कर देना चाहते थे कि भारत वैसा ही है जैसा वे जानते हैं।कहना न होगा कि प्राच्य के बारे में पश्चिमी सोच और निष्कर्ष लंबे समय तक भारतीय बुद्धिजीवियों पर हावी थे।निश्चय ही वह सिलसिला मिटा नहीं है।

       भारत में कूपमंडूकता पर अतीत का एकाधिकार नहीं है।इसमें ऐसे पश्चिमी बुद्धिजीवियों और बौद्धिक उपनिवेशवाद से आक्रांत भारतीय बुद्धिजीवियों का बड़ा योगदान है, जो सामाजिक विभाजन के उद्देश्य से लिबरल बुद्धिपरक सोच में उच्छेदवाद और परंपरागत धार्मिक सोच में कट्टरवाद की बारूदी सुरंग बिछाते रहे हैं।

      वे भारतीय  परंपराओं में  बुद्धिपरक, लोकतांत्रिक और मानवतावादी तत्व नहीं देख पाते।ऐसे बुद्धिजीवी खासकर पिछले ४० सालों से, राष्ट्र को खलनायक बनाकर धर्म, जाति, भाषा, स्थानीयता आदि के आधार पर सिर्फ ‘भिन्नता’ दिखाते आ रहे हैं, बौद्धिक उपनिवेशवाद का उनपर इतना ज्यादा असर पड़ा है।इसका नतीजा है कि समाज में उदारवाद घटता गया, कूपमंडूकता बढ़ती गई।

       इस देश में उच्छेवाद और कट्टरवाद को मौसेरा भाई समझना चाहिए।आज का हर उच्छेदपरक  बुद्धिवादी किसी न किसी कट्टरता की जमीन पर खड़ा है और हर रूढ़िप्रेमी कट्टरवादी का लक्ष्य कुछ न कुछ  का उच्छेद करना है।दोनों तरह के सज्जनों में विभाजनकारी कूपमंडूकता भरी हुई है।

      इस दौर में विभाजनकारी कूपमंडूकता राजनीतिक हथियार के अलावा एक बड़ा व्यापार है।इसमें ग्लैमर का प्रवेश हुआ है।विभाजनकारी कूपमंडूकता शिक्षा, मीडिया, फिल्म, साहित्य, इतिहास, कला-संस्कृति और पूरी वैचारिक दुनिया में फैली हुई है, जिससे भारत में मानवीय उदारता की राह कठिन होती जा रही है।कोई बड़ा प्रेरणादायक जन-आंदोलन कठिन है।कहा जा सकता है कि अब भी सुधरने का समय बीता नहीं है।

*भारत में नस्लवाद का औपनिवेशिक बीज :*

      फ्रेडरिक मैक्स मूलर (१८२३-१९००) का संस्कृत के प्रचार में एक बड़ा योगदान है।उन्होंने अपने मामले को वैदिक मंच पर खड़ा किया।वे इंग्लैंड में रहकर अपना काम कर रहे थे और वहां संस्कृत के सबसे बड़े विद्वान माने जा रहे थे।यह एक विडंबना है कि जो काम संस्कृत के भारतीय पंडितों को करना चाहिए था, वह यूरोपीय विद्वान कर रहे थे और अपने हर काम पर औपनिवेशिक छाप भी छोड़ रहे थे।

       यह चिंताजनक है, पर सचाई भी है कि हिंदू धर्म पर ज्यादा खोजपरक चिंतन विदेशी विद्वानों ने किया है।

       पश्चिमी विद्वानों में मैक्स मूलर के अलावा यूजिन बरनाफ, मौनियर विलियम्स, विलियम व्हिटनी, आर्थर मैक्डोनल, आर्थर बेरीडेल कीथ आदि के योगदान से बहुत से लोग परिचित हैं।

      इनके अलावा सैकड़ों अमेरिकी-यूरोपीय विद्वानों में जेम्स फ्रेजर, जेम्स फीजरैल्ड, गेविन फ्लूड, लिंडा हेस, हर्मन टुल, डेविड लारेंजन, शेल्डॉन पोलेक, वेंडी डॉनिगर, पॉल रिचमैन, जॉन स्ट्रेटन हाउले आदि के नाम लिए जा सकते हैं।

मैक्स मूलर ने ॠग्वेद के आधार पर आर्य की अवधारणा प्रतिपादित की थी।इसे १९वीं सदी के उपनिवेशवादी प्राच्यवादियों ने नस्लवाद के रूप में विकसित कर आर्य-द्रविड़ संघर्ष की कल्पना की और सिंधु घाटी से संबंधित कुछ पुरातात्विक साक्ष्य भी खड़े किए।

        इस तरह उत्तर-दक्षिण भारत के नस्लीय विभाजन की नींव पड़ी।स्पष्ट कर देना उचित है कि खुद मैक्स मूलर नस्लवादी न थे।वे ‘आर्य’ को इंडो-यूरोपियन संदर्भ में देखते थे, उत्तर भारत (आर्यावर्त्त) के संदर्भ में नहीं।

      मैक्स मूलर जर्मनी के थे।प्रमुख यूरोपीय देशों में एकमात्र जर्मनी है जो दुनिया में कहीं उपनिवेश नहीं बना सका था।वह एक समय दर्शन में आगे हो, व्यापार में पिछड़ा था।जर्मनी में जब गृह कलह की वजह से भयंकर गरीबी थी, वहां श्रेष्ठतम आर्यन होने का नस्लीय दंभ जगाया जा रहा था।उस समय भारत में औपनिवेशिक लूट के कारण गरीबी थी।

     उत्तर भारत के लिए मैक्स मूलर कह रहे थे- तुम आर्यन हो और दक्षिण भारत के लिए राबर्ट काडवेल कह रहे थे- तुम द्रविड़ हो!

       पौर्वात्यवादियों की विवेचना में आमतौर पर हिंदू धर्म अंधों का हाथी है।जिस विद्वान ने जिस अंश को छुआ, उसे ही वह संपूर्ण मान बैठा या उतने को ही सार्थक समझकर बाकी को बेकार घोषित करने में लग गया।जब कोई विद्वान सत्ता के दृष्टिकोण से किसी धर्म को देखता है, वह इसकी प्रकृति, अंतर्भावना, क्षमताओं और विडंबनाओं को समझ नहीं पाता।

         उसका अध्ययन उसकी भाषाशास्त्रीय, नृतात्विक और समाजवैज्ञानिक विद्वता की औपनिवेशिक क्रीड़ा भर होता है।वह पहले अपने उद्देश्य के अनुसार निष्कर्ष सोच लेता है, फिर मनोनुकूल तथ्यों को खोजता और चुनता है तथा बाकी को छोड़ देता है।

      वास्तविकता यह है कि प्राचीन भारतीय संकरता (हाइब्रिडिटी), बौद्ध-जैन धर्म और भक्ति आंदोलन ने भारत में आर्य-द्रविड़ का कृत्रिम विभाजन कभी निर्मित होने ही नहीं दिया था, लेकिन औपनिवेशिक सिद्धांतों के प्रभाव में कई भारतीय सुधारक और बुद्धिजीवी आर्य-द्रविड़ विभाजन को यथार्थ मान रहे थे और संकरता को अस्वीकार कर रहे थे।

        कहने की जरूरत है कि इंग्लैंड, फ्रांस, डच, पुर्तगाल आदि उपनिवेशकों की कतार में जर्मनी के शामिल न होने की अंध-राष्ट्रवादी क्षतिपूर्ति काफी देर से हिटलर के रूप में हुई।

      वह जर्मनों को सर्वश्रेष्ठ और शुद्ध आर्यन कहने लगा था तथा उन्हें दुनिया पर राज करने का सर्वाधिक उपयुक्त अधिकारी मानता था।क्या इस प्रवृत्ति का अंत हो गया?

*हिंदू धर्म बहुरेखीय :*

     मौनियर विलियम्स (१८१९-१८९९) को देखें, उन्होंने संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन को एक दूसरी दिशा दी।वे आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के चेयर पर मैक्स मूलर को हटाए जाने के बाद बैठे थे।जाहिर है, वे संस्कृत ग्रंथ और हिंदू धर्म की परंपराओं के संबंध में भिन्न मुद्दों पर जोर देते, जैसा कि उन्होंने हिंदू धर्म में जाति व्यवस्था, पुरोहितवाद और कर्मकांड को प्रधान धार्मिक तत्व बनाकर किया।

      १९वीं सदी में हिंदू धर्म को एकरेखीय ब्राह्मण परंपरा के रूप में परिभाषित करने और इसी वृत्त में उसे समझने की शुरुआत इसी प्राच्यविद ने की थी।उनकी पुस्तक है, ‘ब्राह्मणिज्म एंड हिंदुइज्म’।उन्हें हिंदू अज्ञानता के अंधकार में डूबे दिखते थे।

     उन्हें इनके धर्म में सिर्फ अंधविश्वास दिखता था, तर्क और उच्च मूल्यबोध की कोई परंपरा नहीं दिखती थी, मानो पश्चिमी देशों में अंधविश्वास न हों।

        मौनियर विलियम्स ने हिंदू धर्म की व्याख्या ‘ब्राह्मणवाद के शक्तिशाली किले’ के रूप में करके भारत में सामाजिक विभाजन की बौद्धिक प्रक्रिया को तेज किया।अंग्रेज १८५७ के विद्रोह के बाद इसकी जरूरत महसूस करने लगे थे।

       हिंदू धर्म को ब्राह्मण धर्म मानने का औपनिवेशिक विचार अंग्रेजी दां अति-बुद्धिवादी बुद्धिजीवियों में भी लोकप्रिय हुआ, जबकि हिंदू धर्म सदा बहुरेखीय रहा है।

*अंग्रेजों ने जनसर्वेक्षण में जाति का मुद्दा :*

       अंगे्रजों ने भारत में जाति व्यवस्था को प्याज की परतों की तरह सुनिश्चित कर दिया, जिससे धार्मिक व्यवस्था अधिक कठोर हुई।यह काम एक वैज्ञानिक ने शुरू किया!

      जेम्स प्रिंसेप (१७९९-१८४०) ने काफी पहले बनारस के ब्राह्मणों का जनसर्वेक्षण करके इनके भीतर १०७ जातियां खोजी थीं।उसका मकसद गोत्र, स्थान, कुल आदि के आधार पर श्रेष्ठता-दंभ के विभिन्न स्तर तैयार करना था।

      १८७१ में अंग्रेजों ने उद्देश्यपूर्ण ढंग से जनसर्वेक्षण शुरू किया, तब भारत में जातियों की संख्या ३,२०८ थी।यह १८८१ के जनसर्वेक्षण में १९,०४४ हो गई।हर्बट रिस्ले ने जनसर्वेक्षण करते हुए कहा था, ‘भारत नस्लीय सिद्धांत की सबसे बड़ी प्रयोगशाला है’। (कास्ट्स ऑफ माइंड, निकोलस डिर्क)।

      निश्चय ही भारत में जाति भेदभाव पहले से था, पर इन उद्देश्यपूर्ण सर्वेक्षणों ने जातिवादी मानसिकता को इतना मजबूत बनाया और विभाजन बढ़ाया कि कोई भाषण भले दे दे, पर आज जाति के बाहर कुछ भी सोचना बड़ा कठिन है।

       औपनिवेशिक अध्ययनों में प्रायः अनदेखा किया गया कि भारतीय परंपराओं में जाति के विरोध में मजबूत आवाजें हैं और यह भी कि जाति से परे भी बहुत कुछ है।

उपर्युक्त उदाहरण से स्पष्ट हो सकता है कि भारतीय समाज में किस तरह नस्ल, जाति और सामाजिक रीतिरिवाज के आधार पर ‘भिन्नताओं’ का राजनीतिक जहर बोया गया।उपनिवेशकों ने जाति, परंपरा और सभ्यता की हमारी जो समझ बनाई और भारतीय चीजों को तोड़ा-मरोड़ा, जन-आंदोलनों में फूट डालने की कोशिश की, उन सबका एकमात्र उद्देश्य  जनता को कमजोर करके देश की आर्थिक लूट रहा है।

        कहा जा सकता है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां उनकी सफल अनुकरणकर्ता हैं।उपर्युक्त चीजों का असर भारत के इतिहास लेखन पर भी पड़ा है, असहमतियों और प्रतिवादों के चरित्र पर भी पड़ा है, भारतीय लिबरल सोच पर पड़ा है।

*कैसा होगा भारत के १२,००० साल का इतिहास?*

        २१वीं सदी में प्रत्यक्ष उपनिवेशवाद नहीं है, पर भारत में ‘खंड-खंड करने वाली औपनिवेशिक सोच’ हावी है।जिसका उपयोग अंध-बुद्धिवादी और कट्टरवादी दोनों करते हैं।इसका नतीजा है कि मुक्त बाजार व्यवस्था अखंड है, जबकि धर्म, जाति, प्रांतीयता आदि के आधार पर भारत का समाज पहले से अधिक विभाजित होता जा रहा है।

       कहा जा सकता है कि बौद्धिक उपनिवेशवाद की सामाजिक सफलता आज जितनी कभी स्पष्ट नहीं थी।उसके खोदे गड्ढे कभी ठीक से भरे न जा सके।ऐसे में भारत से संबंधित किसी भी चिंतन का प्रधान लक्ष्य होना चाहिए बौद्धिक अन-उपनिवेशन!

        इधर भारत के १२,००० साल का इतिहास लिखने की होड़ है।यह क्रिकेट मैच के आंखों देखा हाल की तरह लिखा जाएगा! इतिहास विज्ञान नहीं है, इसलिए इसमें कुछ भी बो देना आसान है, फसल तो नागरिकों के सिर पर होगी!

        इतिहास और राज्यसत्ता के संबंध ने समय-समय पर समाज में कितना जहर नहीं बो दिया! लंबे समय से इतिहास औपन्यासिक क्रीड़ाभूमि था।इतिहास और अपने मनपसंद झूठ का सनसनीखेज मिश्रण करके उपन्यासकार तत्काल लोकप्रियता पाते रहे हैं।इधर कई उत्तेजक फिल्में इसी तरह बनीं।

     अब इतिहास को उपन्यास के क्रीड़ांगन से राजनीतिक रणभूमि में बदला जा रहा है।इतिहास इतना असहाय कभी नहीं था।

*इतिहास के अंधे :*

       भारत के प्राचीन लोगों की यह कमी बताई जाती है कि उन्होंने कभी इतिहास को महत्व नहीं दिया।कहा जाता है कि ये अंग्रेज थे, जिन्होंने भारतवासियों को इतिहास की समझ दी।उन्होंने जहां भी राज किया, सबसे पहले वहां का इतिहास लिखा, वहां एक नक्शा बनाया।कहने की इच्छा हो रही है, कई बार इतिहास की किताबों का ज्यादा सामने न रहना अतीत को देखने के लिए एक रोशनी का काम करता है।

      भारत के प्राचीन दार्शनिक, भक्त-संत और कवि यदि बौद्धिक स्वतंत्रता के साथ कुछ कह सके, किसी शास्त्र को अंतिम नहीं मानकर ‘सनातन’ में सृजनात्मक बदलाव ला सके और वे कई बार खुलकर असहमति दर्ज कर पाए तो इसकी मुख्य वजह यह है कि वे किसी इतिहास के अंधे शासन में नहीं थे।

        हिंदुओं ने आमतौर पर नहीं सोचा कि उनका इतिहास क्या है और उनकी पहचान दूसरों से भिन्न कैसे है।वैदिक जनों का साहित्य (ॠग्वेद आदि) सुलभ होने पर भी उनका इतिहास खोज पाना आज तक संभव नहीं हो पाया है।द्रविड़ों का ऐतिहासिक साक्ष्य है (सिंधु घाटी), पर उस काल का उनका साहित्य उपलब्ध नहीं है।इस मामले को समझना चाहिए।

        निश्चय ही वे स्वर्ण युग न थे।आंधी-तूफान, वर्षा-बाढ़, लू-ठंड, जंगल-जानवर, नदी-पर्वत, महामारी और ऐसे कई प्राकृतिक अवरोधों से मानव जीवन अशांत रहता होगा।सभ्यता पर बर्बरता बार-बार भारी हो जाती होगी।फिर भी  लगभग चार हजार साल पहले से, एक दीर्घ और अविच्छिन्न कालावधि में लोग हमेशा कुछ नया सोच रहे थे, कल्पना कर रहे थे, याद रख रहे थे और जीवन में बहुत कुछ अच्छा-बुरा घट रहा था।

       उन सारी घटनाओं को ठीक उनके घटित रूप में जान पाना असंभव है, सरलीकृत निष्कर्ष निकालना भले आसान हो।इतिहास में सेंध लगाकर अपने सीमित मकसद से कई बार जो ‘असली तथ्य’ सामने लाए जाते हैं, वे झूठ से भी बड़े झूठ होते हैं।

दरअसल हम प्राचीन काल के साहित्य से जो कुछ जानते हैं, वह ‘कहे गए, सुने गए और स्मृति में रखे गए’ रूप में है।यह भी देखने की जरूरत है कि यहां ‘डिजिटल चिप’ नहीं हैं कि भौतिक घटनाएं जिन रूपों में घटी थीं, प्राचीन साहित्य में वे उन्हीं रूपों में हों।

      जाहिर है वैदिक ग्रंथ, रामायण और महाभारत को इतिहास के रूप में पढ़ने पर उनमें कथा ही कथा मिलेगी।यदि उन्हें कथा के रूप में पढ़ा जाए तो संभव है प्राचीन इतिहास की थोड़ी झलक मिल जाए।

      हम यहां यूरोपीय पौर्वात्यवादियों (भारत के बारे में विशेष तरह के पश्चिमी ज्ञानी, ओरियंटलिस्ट) की नई पीढ़ियों के बारे में कुछ कहना चाहते हैं, जिन्होंने धार्मिक कथाओं को इतिहास के आख्यानों के रूप में देखना शुरू किया था।इस तरह उन्होंने भाषाशास्त्र और नृविज्ञान का दामन छोड़कर इतिहास को अपना औपनिवेशिक हथियार बनाया था।

       उनका एक लक्ष्य धार्मिक कथाओं को इतिहास के रूप में उपस्थित करना था, जबकि धर्मग्रंथों को कभी भी इतिहास का दर्पण नहीं माना जा सकता।

      आज यूरोपीय पौर्वात्यवादियों के भारतीय वंशज बड़े उत्साहित हैं।वे धार्मिक कथाओं को साहित्य के रूप में न देखकर इतिहास के तथ्यों के रूप में देख रहे हैं।

*क्या रावण इतिहास है?*

     धार्मिक कथाओं को इतिहास के तथ्य के रूप में पढ़ने की औपनिवेशिक घटना को एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है।प्राच्यवादियों ने पहली विचित्र खोज यह की कि देवता आर्य और दस्यु द्रविड़ हैं या दस्यु-राक्षस निम्न जातियों के लोग हैं।

      अलब्रेख्त वेबर ने रामकथा के बारे में लिखा है, ‘रामायण दक्षिण भारत में आर्य सभ्यता और कृषि के प्रसार का रूपक है।’ (हिस्ट्री ऑफ इंडियन लिटरेचर, १८२८)।इस कथन से लगता है कि द्रविड़ लोग उन्नत सभ्यता होकर भी कृषि से अनभिज्ञ थे!

       यह वैचारिक जाल दक्षिण भारत में कई तरह से बिछाया गया।तमिलनाडु में राबर्ट काल्डवेल ने तमिल की उन्नति के लिए महत्वपूर्ण काम किया, पर दीर्घ संकरता और विकासशील भारतीय भाईचारे की उपेक्षा करके तमिल का संबंध नस्ल से जोड़ा और द्रविड़ अलगाववाद की धारणा दी।

       कुछ साल पहले ‘द सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट, डिस्क्राइब्ड एंड एक्जामिंड (१८९८) का अमेरिका से पुनर्मुद्रण हुआ था।इसके तीसरे खंड में ‘रामायण’ ग्रंथ की भूमिका में मौनियर विलियम्स, राल्फ ग्रिफिथ आदि यूरोपीय विद्वानों के मत देते हुए कहा गया है, ‘आर्यों के गंगा तट पर आकर बस जाने के बाद किसी समय आक्रमणकारियों के एक दल ने किसी वीर पुरुष के नेतृत्व में पहाड़ों की बर्बर जनजातियों और वनवासियों को लेकर दक्षिण भारत पर हमला किया।यह कथा ही रामायण में काव्य रूप प्राप्त करती है।’ यह एक मनगढंत इतिहास है, पर इसका दक्षिण भारत में खूब प्रचार किया गया।

       उसी दौर में बनारस कॉलेज के प्रिंसिपल और रामायण का अंग्रेजी अनुवाद करने वाले राल्फ ग्रिफिथ (१८२६-१९०६) का मत था, ‘रामायण महाकाव्य में दो परस्पर भिन्न स्रोतों और सभ्यताओं के नस्लों-आर्यों और द्रविड़ों के बीच युद्ध का वर्णन है।’ (वही)।

      यूरोपीय विद्वानों के ऐसे ही कृत्रिम विचारों की रोशनी में कुछ द्रविड़ नेताओं ने रावण को द्रविड़ के रूप में प्रचारित किया और राम को आर्य आक्रमणकारी बताया।गजब है, क्षीरसागर मिथ है, रावण का भाई हिमालयवासी कुबेर मिथ है, पर दस सिर का रावण इतिहास है!

       दरअसल धार्मिक कथा को इतिहास में बदलकर तमिल जनमानस में ‘उत्तर भारत’ के प्रति विद्वेष बढ़ाया गया, कटु मनोवैज्ञानिक विभाजन पैदा किया गया, जिसकी तरफ ध्यान जाना चाहिए।

     इन उदाहरणों से सतर्क होना चाहिए कि इतिहास का निरंकुश दमनमूलक सत्ता के लिए कितना बुरा इस्तेमाल हो सकता है।

*धर्म और इतिहास से मनुष्य को मनुष्य की पहचान :*

       निःसंदेह हिंदू धर्म के इतिहास की औपनिवेशिक निर्मिति में इस धर्म की विविधता, इसके भीतर के आलोड़नों-नवोन्मेषों और विस्तृत साहित्यिक गौरव की उपेक्षा की गई है।प्राचीन क्लासिकल साहित्य की नस्लवादी-जातिवादी व्याख्या हुई है।

        भक्ति आंदोलन को खंड-खंड करके देखा गया है।उसके उच्च सामाजिक अभिप्राय से आधुनिक लोगों की विच्छिन्नता बढ़ाई गई है।भारतीय नवजागरण को कलुषित किया गया है।यह साम्राज्यवादी दृष्टियों का असर है कि इधर हर तरफ नकारवाद और ‘दूसरे’ के प्रति विद्वेष बढ़ा है।

      दरअसल चार्वाकी उच्छेदवाद और मनुवादी कट्टरता- दोनों खतरनाक हैं।ये भारतीय सभ्यता की खाइयां हैं।यूरोपकेंद्रित सोच के भारतीय विद्वानों को हिंदू धर्म नस्लवाद और उत्पीड़न-आधारित जाति व्यवस्था से भिन्न नहीं दिखा।कई बुद्धिजीवियों की धारणा है कि हिंदू धर्म १९वीं सदी के यूरोपीय प्राच्यविदों की देन है, जिसे देशी राष्ट्रवादियों और सांप्रदायिक तत्वों ने लपक लिया।

      कई बार हिंदू धर्म को एक धर्म मानने तक से इनकार किया गया।स्पष्ट है कि ‘पोस्ट हिंदू इंडिया’ (कांचा इलैया) किस तरह एक वायवीय और सनसनीखेज कल्पना है।इन सबके समानांतर हिंदू धर्म को लेकर एकरेखीय पहचानवादी और कट्टरवादी धारणाओं को लोकप्रिय बनाया गया, ताकि आमलोगों का  ध्यान वर्तमान बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चालाकी और सामंती अन्यायों से हटा रहे।

       धर्म और इतिहास को ‘पहचान’ के लिए इस्तेमाल करना धर्म को मूल्य-व्यवस्था और इतिहास को तर्क-आधारित रहने नहीं देना है।यदि धर्म और इतिहास का पहचान देने जैसा कोई काम है भी, तो वे समान रूप से मनुष्य को मनुष्य की पहचान देने का काम करते हैं।

     यदि आदमी समुद्र के विस्तार से सिर्फ घोंघे चुने और घोंघा बसंत बनकर किनारे बैठ जाए तो इसमें समुद्र का क्या दोष!

*बौद्धिक उपनिवेशवाद की देन :*

       कई भारतीय बुद्धिजीवियों ने १९वीं-२०वीं सदी के धार्मिक सुधार आंदोलनों को उच्च वर्ण के हिंदुओं के आंदोलन के रूप में और कई बार सिर्फ राष्ट्रवाद से प्रेरित आंदोलन के रूप में देखा था।यह दृष्टि मुख्यतः जाति और स्थानीयता-आधारित सबाल्टर्न अध्ययनों से प्रेरित रही है, जिनमें सुधार के मध्यवर्गीय प्रयासों, ‘राष्ट्र’ की उदारवादी धारणा और उपनिवेशवाद-विरोधी स्वाधीनता आंदोलनों को अंधा होकर नकारा गया है।

      इन अध्ययनों के सैद्धांतिक आधार ‘पहचान’ और ‘पृथकता’ हैं।इनमें ‘उच्चतर’ तथा ‘बृहत्तर’ की उपेक्षा है, खंड ही समग्र बनकर उपस्थित है।ऐसे अध्ययनों में वंचित जनों की राष्ट्रीय एकता, नीचे से राष्ट्रीय एकता पर ध्यान नहीं है। ‘अ-पर’ का जरा भी बुद्धिपरक बोध नहीं है।इस दौर में खंड-खंड-महाखंड के खेल अधिक चले।

       चिंताजनक है कि देश के कर्णधारों और बुद्धिजीवियों में आत्म-आलोचनात्मकता की भारी कमी है।उनमें आत्मविमुग्धता ज्यादा है।यही वजह है कि इतनी बड़ी आबादी का भारत पिछले दो सौ सालों से सिद्धांतों का आयातकर्ता देश बना हुआ है, एक भी सिद्धांत भारत से पश्चिम में नहीं गया!

*अतीत आफत और ताकत भी :*

     पहले विश्व युद्ध के दौरान और इसके बाद पश्चिम में भी कई ऐसे बुद्धिजीवी हुए  जो इसपर जोर दे रहे थे कि एक सभ्यता दूसरी सभ्यता को समझे, ‘सभ्यताओं के टकराव’ की जगह ‘सभ्यताओं का संवाद’ हो, क्योंकि तभी एक सभ्यता खुद अपने को भी ठीक से समझ सकती है।ये बुद्धिजीवी  पश्चिमी साम्राज्यवादी सोच के विरुद्ध थे और जालियांवाला बाग (१९१९) जैसी घटनाओं के विरोधी थे।

       ऐसे ही लेखकों में से एक ई.एम.फार्स्टर ने अपने उपन्यास ‘ए पैसेज टु इंडिया’ (१९२४) के पहले संस्करण में पूछा था, ‘प्रेम ही ईश्वर है, क्या यही भारत का पहला संदेश है?’ अगले संस्करण में उन्होंने यह पंक्ति इस तरह बदल दी, ‘प्रेम ही ईश्वर है, क्या यही भारत का अंतिम संदेश है?’ जब पश्चिमी बुद्धिजीवियों द्वारा भारत को एक हद तक सही परिप्रेक्ष्य में समझने की शुरुआत हुई, लगभग उसी समय से भारत के कई विद्वानों, बुद्धिजीवियों और नेताओं ने अपने देश को भूलना शुरू कर दिया!

        यह समझना मुश्किल नहीं है कि एक मानवीय भविष्य-दृष्टि के बिना न भारत के १२,००० साल के इतिहास को जाना जा सकता है और न संस्कृति को।और न समाजविज्ञान अर्थपूर्ण हो सकता है।कई बार इतिहास उसका होता है, जो भारी फंड देता है।

        यदि भारी फंड है तो १२ क्यों, २२ हजार सालों का इतिहास निर्मित किया जा सकता है और वर्तमान के जो दुख-कष्ट हैं उनसे ध्यान हटाया जा सकता है।इतिहास को बारूदखाना बनाया जा सकता है, पर एक भरोसा है कि ऐसे हर संकट में वैयक्तिक प्रयासों से समानांतर इतिहास लिखे गए!

        कहना न होगा कि भारत के लोगों के साथ अतीत हमेशा रहा है।उसका विविध जगहों पर विविध रूपों में पुनःसृजन होता रहा है।किसी भी देश में, खासकर भारत जैसे गहरी और उलझी सांस्कृतिक जड़ों वाले देश में, अतीत आफत है तो ताकत भी है।

        अतीत से बचना संभव नहीं है और मानव सभ्यता के विकास पथ पर उसे अपनी-अपनी छोटी रस्सी से बांधना भी! 

(स्रोत : संपादकीय ‘वागर्थ’ नवंबर-2002)

Exit mobile version