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सांप्रदायिक नफरत के दौर में कबीर की याद

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जितेन्द्र यादव

    कबीर हमारे वैचारिक पूर्वज हैं। करीब छह सौ साल बाद भी उनकी रचनाएँ हमें प्रेरित करती रहती हैं। जब धार्मिक कट्टरता और उन्माद के दौर में परिस्थितियाँ विस्फोटक हो गई हों, ऐसे में कबीर का याद आना स्वाभाविक है। मशहूर शायर अल्लामा इक़बाल की वह पंक्ति याद करिए; ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ यदि यह वास्तविक सच्चाई है कि मज़हब नहीं सिखाता है तो फिर सवाल उठता है कि बैर रखना कौन सिखाता है। धर्म का कारोबारी भी मनुष्य है और जो ठगा जाता है वह भी मनुष्य ही है। जो दंगा करवाता है वह भी मनुष्य है, जो मारता है वह भी मनुष्य है। दंगे में जो निर्दोष मारे जाते हैं वह भी मनुष्य ही होते हैं। यह सब परम शक्ति के नाम पर ही होता है।

    जिस बात को कबीर छह सौ साल पहले ही समझ गए थे कि मज़हब और उसके पैरोकार ही आपस में बैर रखना सिखाते हैं, उस बात को अल्लामा इक़बाल अपने शायराना अंदाज में नकार देते हैं। धर्म की पड़ताल करिए तो पता चलेगा कि सभी धर्मों के हाथ खून से रंगे हुए हैं। उसके अनुयायियों और पैरोकारों ने धर्म और ईश्वर की धज्जियां उड़ा दी है। ईश्वर या अल्लाह एक अदृश्य भाव है लेकिन संगठित मज़हब या धर्म मनुष्य द्वारा निर्मित है। इस मसले पर कबीर और अल्लामा इक़बाल के विचार एक दूसरे के ठीक विपरीत हैं। कबीर का मानना था कि ईश्वर या अल्लाह नहीं सिखाता आपस में बैर रखना लेकिन यह मज़हब तो झगड़े का फसाद है। लेकिन इक़बाल की दृष्टि वहाँ तक नहीं पहुँच पाती। बल्कि यह भी एक बिडम्बना है कि मज़हब को निर्दोष साबित करने वाले अल्लामा इक़बाल बाद में मज़हब के नाम पर एक अलग देश की मांग का प्रस्ताव तक देते हैं। यानी अपने कथन को इक़बाल खुद झूठा घोषित कर देते हैं।

    ईसाई, इस्लाम, हिन्दू इत्यादि प्रचलित धर्मों के अनुयायियों ने अपने-अपने धर्म की श्रेष्ठता साबित करने के लिए धरती पर मानवता का बहुत खून बहाया है। कबीर इस मसले में बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने अपने प्रत्यक्ष जीवन अनुभव से इस आत्मज्ञान को पहचान लिया था कि इन प्रचलित धर्मों में कट्टरता, बर्बरता, आडंबर, लड़ाई-झगड़ा और इंसानियत का खून बहाने के अलावा कुछ नहीं बचा है। सभी धर्मों ने अपने धर्म को एक अलग पहचान देने के लिए अलग-अलग वेशभूषा और विधि-विधान की पद्धति का निर्माण किया है, ताकि गलती से भी एक-दूसरे के साथ समन्वय न हो पाए। कबीर इन सभी बाह्य प्रतीकों और बाहरी सीमा रेखाओं को मिटा देना चाहते थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं, ‘कबीर दास ऐसे ही मिलन के बिन्दु पर खड़े थे जहां एक ओर हिन्दुत्व निकल जाता है दूसरी ओर मुसलमान’ इसलिए वे एक ऐसे नए मार्ग की तलाश कर रहे थे जहां ईश्वर और भक्त के बीच किसी मौलवी और पंडित जैसे बिचौलिए की दरकार न हो। वे एक ऐसे निराकार ब्रह्म की बात करते हैं जिसे प्राप्त करने के लिए किसी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में खोजने की आवश्यकता नहीं है। उसके यहाँ पहुँचने के लिए किसी मुल्ला, मौलवी या पंडित को पैसे देकर सिफ़ारिश करने की जरूरत भी नहीं है। वे एक सहज मार्ग की खोज कर रहे थे जिसे निच्छल भाव से कहीं से भी भजा जा सकता है। इसीलिए वे परमात्मा की व्याप्ति कण-कण में बताते हैं। आसान भाषा में समझा जाए तो कबीर के ईश्वर किसी ब्रांडेड मार्क की तरह नहीं हैं जो किसी खास कंपनी की खास दुकान पर ही मिलेंगे। वे तो बहती नदियों की जलधारा की तरह हैं, जिसकी गोद में जाकर सभी मनुष्य, पशु-पक्षी अपने ज्ञान की प्यास बुझा सकते हैं। कबीर के इस दर्शन से सभी धार्मिक पैरोकारों की दुकान उठ जाने का भय था। कबीर साफ शब्दों में कहते भी हैं कि ‘अरे इन दोहुन की राह न पाई/ हिन्दू अपनी करै बड़ाई गागर छुवन न देई/ मुसलमान के पीर-औलिया मुर्गा-मुर्गी खाई’ कबीर ने ‘हिंदून की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई’ देख लिया था। वह सत्य के मार्ग पर चलने के हिमायती थे। उस मार्ग पर चलना उसी के लिए संभव था जिसने बाह्य आडंबर से अपने को मुक्त कर लिया हो। इसलिए कबीर से मुल्ला और पंडित दोनों ने दूरी बना ली थी क्योंकि जिस साधना के मार्ग को प्रशस्त कर रहे थे, उस राह पर उन दोनों के स्वार्थ नहीं सध पाते।

    कबीर से दूरी बनाने और सही मायने में उनको नहीं समझ पाने के कारण ही आज भारत सांप्रदायिक नफरत की आंच में झुलस रहा है। कबीर को सिर्फ पाठ्यपुस्तकों तक सीमित कर दिया गया है, जहां उनके कुछ नीतिपरक और साधनापरक दोहों और पदों को ही रखा जाता है। अमूमन शिक्षक भी नीरस और उबाऊ कक्षाएं लेते हुए देखे जा सकते हैं, जहां बुझे मन से छात्र उसी एकरसता भरी कक्षा में रटंत पद्धति का हिस्सा बनते हैं। वे भी इतना जानना चाहते हैं, जितना कि परीक्षा में पास होने के लिए जरूरी है, भले ही जीवन की परीक्षा में फेल हो जाएँ। शिक्षा के इस माहौल में कबीर के अन्तर्ज्ञान को समझ पाना कितना संभव है? इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं, इसके अलावा कबीर की बची-खुची ज्ञान परंपरा को उनके नाम पर बने मठों ने मटियामेट कर दिया है।

    कबीर पत्थर पूजने की परंपरा के खिलाफ थे लेकिन भारत में कदम-कदम पर पत्थर पूजने की परंपरा बहुत सशक्त रही है। कबीर पत्थर से टकरा रहे थे। यह साहस बिरले लोगों में ही हो सकता है। अपना मस्तक काटकर वीर हुआ क(बीर) चरितार्थ होता है। भारतीय मानस पत्थर पूजते-पूजते दिल से भी पत्थर हो गया था, कहावत है कि पत्थर दिल पसीजता नहीं है, यदि भारतीय समाज हिन्दू और मुसलमान वर्ग ने कबीर के आह्वान को सुना होता तो आज धार्मिक वैमनस्यता और कट्टरता इस हद तक नहीं आती कि उसकी भावनाओं का राजनीतिकरण हो जाता। कबीर भारतीय समाज में हिन्दू-मुसलमान दोनों की जड़ता और कट्टरता को समाप्त करना चाहते थे। ईश्वर साधना का एक सच्चा रास्ता दिखाना चाहते थे, जहां किसी भी प्रकार की धार्मिक पहचान, मंदिर, मस्जिद, तीर्थाटन, काबा, कैलाश की जरूरत नहीं थी। आंतरिक ज्ञान के बल पर परमात्मा तक पहुँचने का रास्ता दिखा रहे थे। लेकिन यह इतना आसान नहीं था क्योंकि हजारों साल के झूठ ने सत्य को ढक लिया था। लोग झूठ को ही असली मार्ग समझ रहे थे (है)। कबीर ने इस बात का गहराई से अनुभव किया था- ‘साधो यह जग बौराना/साँच कहे तो मारन धावै/झूठे जग पतियाना’। कबीर जीवन अनुभव के सबसे बड़े कवि हैं। अपने अनुभव को महत्व देने के कारण ही थोथा ज्ञान और कर्मकांड का विरोध करते थे। कबीर कागद की लेखी नहीं आंखन देखी की बात करते हैं, जिस बात को कबीर ने सैकड़ों साल पहले कह दिया था। उस बात को भारतीय समाज ने गंभीरता से विचार किया होता तो आज जिस गंगा-जमुनी तहजीब की बात होती है। उसकी तस्वीर कुछ और होती है। आज बात-बात पर नेताओं द्वारा फैलाये जा रहे वैमनस्यता का शिकार नहीं होना पड़ता। भारतीय समाज को कबीर जगाने की बहुत कोशिश की लेकिन यह समाज सोता ही रहा ‘तेरा मेरा मनुवा कैसे इक होय रे/ मैं कहता हूँ जागत रहियो, तू जाता है सोय रे’।

    आज समाज जिस दौर से गुजर रहा है उस दौर में कबीर को फिर नए सिरे से पढ़ने और समझने की जरूरत है। सांप्रदायिक विचार से कबीर के विचार ही टक्कर ले सकते हैं। वरना नफरत का जहर एक दिन पूरे समाज को निगल जाएगा। हमारे पास इतने बड़े-बड़े वैचारिक पुरोधा हैं लेकिन उनके विचारों को हम सही तरीके से जन-जन तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं, जबकि सांप्रदायिक शक्तियाँ दुगुने-तिगुने की गति से लोगों तक पहुँच जा रही हैं। हमें डर है कि कबीर को समझने में हम कहीं देर न कर दें। ढाई आखर प्रेम का पढ़ने-गुनने से ही देश की सांस्कृतिक विविधतामूलक एकता सुरक्षित और जीवंत रह सकती है। नफ़रत को प्रेम से ही जीता जा सकता है नफ़रत से नहीं। ‘रस गगन गुफा में अजर झरै का लौकिक अभिप्राय प्रेम रूपी रस का निरंतर प्रवहमान होना है। कबीर को पढ़ते हुए यह हम सबकी जिम्मेदारी है।

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