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संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों का हटाया जाना एक बड़ी साजिश 

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मुनेश त्यागी 

        कल जब संसद के विशेष सत्र के दौरान नये संसद भवन में भारत के सांसदों को भारत के संविधान की प्रतियां दी गई और उन्हें पढ़कर पता चला की संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को हटा दिया गया है। इन बुनियादी महत्व के शब्दों का हटाया जाना कांग्रेस, टीएमसी, समाजवादी पार्टी और वामपंथी पार्टियों के सांसदों को सबसे पहले पता चला। इन्होंने इसका विरोध भी किया और सरकार का इस ओर ध्यान दिलाया कि उनको दी गई संविधान की प्रतियों में धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द गायब हैं।

       मगर यहीं पर सबसे ज्यादा आश्चर्य चकित करने वाली बात यह है कि इस प्रकार की जानकारी भाजपा, उसके गठबंधन एनडीए और किसी भी हिंदूत्ववादी और मनुवादी सोच के सांसदों को पता नहीं चला। उन्होंने इसका कोई जिक्र या विरोध भी नहीं किया और ना ही किसी प्रेस को इस बारे में कोई बयान दिया। उनके लिए यह कोई विशेष बात नहीं है और उन्हें इसको लेकर कोई अफ़सोस भी नहीं है।

      यहां पर सबसे मुख्य सवाल यह है कि जब 1976 में संविधान के 42वें संशोधन में जब इन प्रमुखतम शब्दों को भारत के संविधान के प्रिएम्बल में जोड़ा गया तो ये तभी से भारत के संविधान का प्रमुख हिस्सा और बुनियादी सिद्धांत बने हुए हैं। अब जब सांसदों को संविधान की प्रतियां दी गई तो संविधान की लेटेस्ट संसोधित प्रतियां क्यों नहीं दे गई? और लगभग 73 साल पुराने संविधान की प्रतियां सांसदों को क्यों दे दी गई हैं? जबकि भारतीय संविधान में इसके बाद अनेकों अनेक संशोधन किए जा चुके हैं। जब सांसदों ने इस बारे में सवाल जवाब किया तो सरकार के पास इन सवालों को कोई संतोषजनक जवाब नहीं था। सरकार की यह चाल उसके भारत के धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी चिंतन की चाल चलन और सोच के खिलाफ है।

      कानून की भाषा में यह संविधान का निरादर है। अदालत की भाषा में यह संविधान का कंटेंप्ट यानी संविधान का घनघोर अपमान है। आज जब हमारे देश का पूरा शासन प्रशासन संविधान के प्रावधानों के तहत चलने की बात की जा रही है तो फिर सांसदों को संविधान की पुरानी प्रतियां क्यों दी गई? उसकी लेटेस्ट संसोधित प्रतियां सांसदों को क्यों नहीं दी गई? यह चालबाजी एक साजिश का बड़ा हिस्सा है क्योंकि एनडीए, भाजपा, हिंदूत्ववादी और मनुवादियों का भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी नीतियों में कोई यकीन नहीं है। हमारी वर्तमान मोदी सरकार यह बात पूरी तरह से भूल रही है कि इन्हीं धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी विचारों और नीतियों को अमल में लाकर चीन रूस वियतनाम कोरिया क्यूबा  आदि समाजवादी मुल्क दुनिया की महान आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक शक्तियां बन पाई हैं।

     जब भारत का संविधान बनाया जा रहा था तब ये तमाम हिंदूत्ववादी ताकतें भारत के संविधान निर्माण का विरोध कर रही थीं और कह रही थीं कि यहां पर किसी संविधान की जरूरत नहीं है क्योंकि यहां तो मनुस्मृति भारत का सबसे पुराना संविधान पहले से ही मौजूद है। उनकी वही मानसिकता आज भी काम कर रही है क्योंकि इन तत्वों का आज भी मनुस्मृति में दिए गए विचारों में ही विश्वास है।

      भारत के संविधान में, जनतंत्र, गणतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद और सामाजिक न्याय के सिद्धांत में इनका कोई विश्वास नहीं है। भारत के संविधान में प्रमुखता से लिखे गए ज्ञान विज्ञान के प्रचार प्रसार में और ज्ञान विज्ञान की संस्कृति को बढ़ाने की कोशिश करने में इनका कोई विश्वास नहीं है। ये ताकतें आज भी भारत को अंधविश्वास और धर्मांता के आधार पर हिंदू राष्ट्र बनाने की कोशिश कर रही है। इनका भारत के संविधान में लिखित समता, समानता और कानून के शासन में कोई विश्वास नहीं है।

     ये ताकतें आज भी समाजवादी विचारों में विश्वास नहीं रखती है, क्योंकि समाजवाद के सिद्धांत सबको शिक्षा, सबको काम, सबको रोटी, सबको मकान, सबको रोजगार और विकास में सब की भागीदारी की बात करते हैं, अमीरी गरीबी की बढ़ती खाई को पाटने की बात करते हैं और सारी जनता के लिए एक डिसेंट जीविका चलाने की बात करते हैं, इसलिए ये पश्चगामी ताकतें समाजवादी मूल्य से खौफ खाती हैं, उन्हें उनसे किसी भी तरह से निजात पाना चाहती है इसलिए समाजवाद को ही संविधान से हटा रही हैं।

        ये ताकतें जान पूछ कर भारत को पूंजीवादी तौर तरीके से आगे बढ़ना चाहती है जिसमें चंद लोगों, चंद पूंजीपतियों को आगे बढ़ने का काम किया जाता है। इन पूंजीवादपरस्त ताकतों का एक अरब से ज्यादा बड़ी जनसंख्या जिसमें किसान और मजदूर और मेहनतकश शामिल हैं, उनके कल्याण का, उसकी भलाई का, उनकी शिक्षा का, उनके रोजगार का, उनके आधुनिकतम विकास का, कोई विश्वास और विचार नहीं है। इसलिए सरकार ने जान पहुंचकर भारत के संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्दों को निकाल दिया है और संविधान की ऐसी प्रतियां ही सांसदों को बांट दी है।

       यह कोई अनजाने में किया गया काम नहीं है। बल्कि भारतीय संविधान के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के बुनियादी सिद्धांतों को जान पूछ कर हटाने का प्रयास है। ताकि भारत को हिंदूत्ववादी तौर तरीकों से आगे बढ़ाया जा सके और भारत में चंद पूंजीपतियों के विकास के लिए पूंजीवादी तरीकों को आगे बढ़ाया जा सके। इस सरकार का अभी तक का यह सबसे बड़ा संविधान विरोधी कृत्य है जिसे किसी भी दशा में स्वीकार और समर्थित नही किया जा सकता है।

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