वर्ष 2024 बीतने को है। लोकसभा चुनाव से लेकर देश के कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों व मुद्दों के आलोक में इस साल दलित और ओबीसी की राजनीति किस दिशा और दशा में रही,
वर्ष 2023 जहां एक ओर सियासी दृष्टिकोण से इसलिए महत्वपूर्ण था कि उस साल ‘जातिगत जनगणना’ का सवाल उभार पाने में कामयाब रहा। वहीं दूसरी ओर 2024 में यह सवाल लोकसभा चुनाव में कुछ असर दिखाने में कामयाब तो रहा, लेकिन निर्णायक अवस्था को प्राप्त करने में असफल रहा। इस बीच दलित-बहुजन राजनीति बीच मझधार में डोलती नजर आई। हालांकि इसकी शुरुआत तभी हो गई जब नवंबर, 2023 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुए विधानसभा चुनावों में विपक्षी दलों (विशेषकर कांग्रेस की) हार हुई। इसके ठीक बाद 19 दिसंबर, 2023 को दिल्ली में इंडिया गठबंधन की बैठक में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शामिल थे, लेकिन 28 जनवरी, 2024 को उन्होंने न सिर्फ ‘इंडिया’ गठबंधन को छोड़ा, बल्कि राजद का साथ छोड़कर भाजपा के साथ मिलकर सरकार का गठन भी किया। पूरे वर्ष संविधान और आंबेडकर चर्चा में रहे। साल के अंतिम महीने में संविधान लागू होने के 75 साल पूरे होने पर संविधान पर विशेष चर्चा लोकसभा और राज्यसभा में की गई। इस दौरान अपने संबोधन में अमित शाह ने डॉ. आंबेडकर को लेकर अपमानजनक टिप्पणी की।
अधर में लटका एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण बढ़ाने का फैसला
अंकुरण की अवस्था में ही ‘इंडिया’ गठबंधन के बिखरने के बाद बिहार में एक बदलाव यह आया कि राज्य सरकार द्वारा अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण में किए गए वृद्धि पर पटना हाई कोर्ट ने रोक लगा दी। हालांकि इसका सीधा संबंध नीतीश कुमार के द्वारा गठबंधन बदलने से नहीं जोड़ा सकता है, क्योंकि इसके पहले जातिवार सर्वेक्षण के मामले में पटना हाई कोर्ट ने स्थगन का आदेश दिया था। यह मामला सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ता राज्य सरकार को वापस हाई कोर्ट जाने को कहा। इसके बाद हाई कोर्ट ने पूर्व में लगाए गए रोक को विराम देते हुए राज्य में जातिवार सर्वेक्षण को हरी झंडी दे दी थी।
दरअसल हुआ यह था कि जब नीतीश कुमार राजद के साथ मिलकर सरकार चला रहे थे तब 2 अक्टूबर, 2023 को उनकी सरकार ने जातिवार सर्वेक्षण की रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए आरक्षण को बढ़ाया था। इसके तहत अनुसूचित जाति का आरक्षण 16 प्रतिशत से बढ़ाकर 20 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का आरक्षण 1 प्रतिशत से बढ़ाकर 2 प्रतिशत, पिछड़ा वर्ग का आरक्षण 12 प्रतिशत से बढ़ाकर 18 प्रतिशत तथा अत्यंत पिछड़ा वर्ग का आरक्षण 18 से बढ़ाकर 25 प्रतिशत किया गया। इस प्रकार इन वर्गों को देय 50 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाकर 65 प्रतिशत करने के फैसले को 9 नवंबर, 2023 को विधानसभा और विधान परिषद, दोनों सदनों में बिहार आरक्षण (एससी-एसटी व ओबीसी के लिए) संशोधन विधेयक, 2023 और बिहार (शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए) आरक्षण संशोधन विधेयक, 2023 पारित कर सहमति दी गई। तदुपरांत 21 नवंबर, 2023 को राज्यपाल की मंजूरी मिलने के बाद इन्हें लागू कर दिया गया।
लेकिन पटना हाई कोर्ट ने 20 जून को अपने फैसले में राज्य सरकार के निर्णय के क्रियान्वयन पर रोक लगा दी। हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के. विनोद चंद्रन और जस्टिस हरीश कुमार की खंडपीठ ने राज्य सरकार के द्वारा जातिवार सर्वेक्षण की रिपोर्ट के आधार पर बढ़ाए गए आरक्षण पर रोक लगाते हुए कहा कि आरक्षण सीमा बढ़ाने के पहले न तो गहन अध्ययन किया गया अैर न सही आकलन किया गया। खंडपीठ ने इसे संविधान प्रदत्त समानता के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन भी कहा। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है और 29 जुलाई, 2024 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाई कोर्ट के फैसले को फिलहाल यथावत रखने का आदेश दिया गया है।
लोकसभा चुनाव में बहुमत से दूर रह गई भाजपा
खैर, इस बीच जब देश में लोकसभा के चुनाव हुए तो भाजपा अपने बूते बहुमत से 32 सीटें दूर रह गई। यह चुनाव इसलिए भी खास था, क्योंकि विपक्षी गठबंधन जातिगत जनगणना और संविधान बचाने के सवाल को लेकर जनता के बीच गया था, जबकि भाजपा अयोध्या में मंदिर निर्माण को भूना रही थी। लेकिन परिणाम यह हुआ कि 80 लोकसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा महज़ 33 सीटों पर सिमट गई, जबकि समाजवादी पार्टी 37 सीटें हासिल कर मौजूदा लोकसभा में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी। हालांकि बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन को अपेक्षाकृत कम नुकसान हुआ। इन दोनों को 12-12 सीटें, लोजपा (रामविलास) को 6 सीटें, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा को एक सीट पर सफलता मिली। यानी कुल 40 में से 30 सीटें जीतने में भाजपा नीत एनडीए कामयाब रहा तो इंडिया गठबंधन को 9 सीटों पर जीत मिली। इनमें राजद को 4, कांग्रेस को 3 और भाकपा माले को मिलीं 2 सीटें शामिल हैं।
बहुमत से 32 सीटें दूर रहने के बावजूद केंद्र में तीसरी बार नरेंद्र मोदी की अगुआई में भाजपानीत एनडीए की सरकार का गठन हुआ। इसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी जदयू और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्राबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी की अहम भूमिका रही।
असल में भाजपा इस लोकसभा चुनाव में सामाजिक न्याय की चुनौती से निपटने में कामयाब नहीं हुई। चुनाव परिणाम ने भाजपा को निर्णायक शिकस्त देने का केंद्रीय एजेंडा स्पष्ट कर दिया कि उसे केवल सामाजिक न्याय के मोर्चे पर ही परास्त किया जा सकता है।
सामाजिक न्याय के रथ पर सवार रही कांग्रेस
कांग्रेस ने वर्ष 2022 में मल्लिकार्जुन खड़गे को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना। खड़गे दलित समुदाय से आनेवाले कांग्रेस के तीसरे राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। मतलब साफ था कि कांग्रेस अब अपनी राजनीति में दलित-बहुजनों को स्पेस देगी। यही हुआ भी। कांग्रेस के नेता रहे राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना का सवाल उठाना प्रारंभ किया, जिसे वे आज तक विभिन्न मंचों से उठा रहे हैं और ओबीसी को आबादी के अनुपात में आरक्षण दिए जाने के सवाल को नहीं छोड़ा है। कांग्रेस इस बीच अडाणी के सवाल को लेकर भी मुखर रही। लेकिन उसने आरक्षण और संविधान के सवाल पर अपने रूख को यथावत रखा। कांग्रेस के हिस्से इस साल दो बड़ी पराजय आईं। एक पराजय हरियाणा में और दूसरी पराजय महाराष्ट्र में। हालांकि विश्लेषकों का यह भी मानना रहा कि इन दोनों राज्यों में कांग्रेस की हार के पीछे क्रमश: जाट और मराठा समुदायों को बढ़ावा देना रहा।
वोटकटवा और भाजपा की ‘बी’ टीम का कलंक रहा बसपा के नाम, नगीना में चमके चंद्रशेखर
उत्तर प्रदेश में 2007 में अपने बूते सरकार बनानेवाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) इस साल भी वोटकटवा और भाजपा की ‘बी’ टीम का कलंक झेलती रही। लोकसभा चुनाव में बसपा ने कुल 79 लोकसभा क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार उतारे। उसे कुल 9.39 प्रतिशत मत प्राप्त हुए। लेकिन उसके कोई उम्मीदवार जीतने में नाकाम रहे। जबकि 2019 में बसपा के दस उम्मीदवार जीतने में कामयाब हुए थे। बसपा इस चुनाव में न तो एनडीए गठबंधन का हिस्सा थी और न ही इंडिया गठबंधन की। वहीं चंद्रशेखर लोकसभा चुनाव में नगीना सुरक्षित क्षेत्र से चुनाव जीतने में कामयाब रहे। उनकी जीत को इस साल दलित राजनीति में एक नए उभार के रूप में देखा गया।
हरियाणा में कुमारी शैलजा फैक्टर कांग्रेस को पड़ा महंगा
दरअसल, हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले यह लग रहा था कि भाजपा को इस बार जीतना मुश्किल होगा। इस संभावना के पीछे कई कारण थे। पहला कारण था किसान आंदोलन का दमन और दूसरा कारण था मनोहरलाल खट्टर सरकार के प्रति लोगों में असंतोष। इस चुनाव में केंद्र सरकार की अग्निवीर योजना भी अहम मुद्दा के रूप में सामने आई और महिला पहलवानों के साथ अखिल भारतीय कुश्ती संघ के पूर्व अध्यक्ष द्वारा अभद्र व्यवहार को लेकर हुआ आंदोलन भी चर्चा में रहा। लेकिन भाजपा ने चुनाव के ठीक पहले ओबीसी समुदाय से आनेवाले नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाकर इस असंतोष को न्यूनतम करने का प्रयास किया। वहीं कांग्रेस ‘हुड्डा’ परिवार के आसरे रही। इस बीच कुमारी शैलजा, जो कि दलित समुदाय से आती हैं, ने भी अपना दावा ठोंका, जिसे कांग्रेस ने एक तरह से अनसुना कर दिया। इसके कारण कुमारी शैलजा चुनाव अभियानों में किनारे पर रहीं, और कांग्रेस को दलित मतदाताओं का समर्थन नहीं हासिल हो सका। वहीं ओबीसी समुदाय भी जाटों के वर्चस्व के खिलाफ गोलबंद हुआ, जिसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा कुल 90 विधानसभा सीटों में से अकेले 48 सीटें जीतने में कामयाब रही। उसे नुकसान के बजाय 8 सीटों का फायदा हुआ। हालांकि कांग्रेस को भी 6 सीटों का फायदा हुआ और उसे 37 सीटों पर जीत मिली। लेकिन कांग्रेस के लिए यह महज सांत्वना पुरस्कार से अधिक कुछ भी नहीं था।
महाराष्ट्र और झारखंड : दोनों राज्यों में ओबीसी फैक्टर
साल के अंत में जब झारखंड और महाराष्ट्र में चुनाव हुए तो भाजपा की तैयारी दोनों जगहों पर जीत मुकम्मल करने की थी। इन दोनों राज्यों में भाजपा की रणनीति प्रारंभ में लगभग एक जैसी रही। झारखंड में हेमंत सोरेन व उनके कबीना सहयोगियों के पीछे केंद्र सरकार की एजेंसी ईडी लगभग पूरे साल सक्रिय रही। यहां तक कि खनन पट्टा के एक मामले में हेमंत सोरेन को गिरफ्तार भी कर लिया गया। इस कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। फिर आनन-फानन में चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया गया। उनके कार्यकाल की खास बात यह रही कि झारखंड में जातिवार सर्वेक्षण कराने की घोषणा की गई। इसके लिए राज्य सरकार द्वारा आदेश भी जारी कर दिया गया। इस बीच जब हेमंत सोरेन को जमानत मिली तब एक बार फिर सरकार का गठन किया गया और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वे फिर से काबिज हो गए। भाजपा ने आदिवासी मतदाताओं में पैठ बनाने के लिए पहले ही बाबूलाल मरांडी को फिर से अपनी पार्टी में शामिल कर प्रदेश का अध्यक्ष बना दिया था, उसने चंपई सोरेन को भी शामिल कर आदिवासी मतों में सेंधमारी की कोशिश की। लेकिन जब चुनाव परिणाम आया तब भाजपा के हिस्से में केवल 21 सीटें आईं। जबकि हेमंत सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा को 34, कांग्रेस को 16 और राजद को 4 सीटों पर जीत मिली।
झारखंड में भाजपा की हार की बड़ी वजह आदिवासी मतदाताओं में सेंधमारी में नाकामी रही। झारखंड के अधिकांश ओबीसी जातिगत जनगणना और आरक्षण जैसे सवालों पर एकमत दिखे।
वहीं महाराष्ट्र में भाजपा के लिए विषमतम परिस्थिति थी, क्योंकि जून, 2024 में लोकसभा चुनाव परिणाम में इंडिया गठबंधन राज्य के कुल 48 सीटों में से 30 सीटें जीतने में कामयाब रहा था और भाजपा व उसके सहयोगी दल केवल 17 सीटों पर जीत दर्ज कर पाए थे। ऐसे में यह लग रहा था कि इंडिया गठबंधन के पक्ष में हवा है और वह आसानी से जीत जाएगा। लेकिन कांग्रेस व उसके सहयोगी दल ओबीसी के बीच पनप रहे असंतोष से अनभिज्ञ रहे, जिसके केंद्र में मराठा आरक्षण आंदोलन को शरद पवार जैसे नेताओं के द्वारा संरक्षण दिया जाना था। महाराष्ट्र के ओबीसी विमर्शकार प्रो. श्रावण देवरे बताते हैं कि राज्य के ओबीसी किसी भी हाल में मराठों के हाथ में सूबे की बागडोर नहीं सौंपना चाहते थे। यहां तक कि वे ब्राह्मण समुदाय से आनेवाले देवेंद्र फड़णवीस भी उन्हें स्वीकार्य थे।
महाराष्ट्र में भाजपानीत महायुति के चुनावी पोस्टरों में पहली बार नजर आए जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपानीत महायुति को ओबीसी समुदाय का वोट पाने के लिए जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले के नाम के साथ तस्वीरों का सहारा लेना पड़ा। ओबीसी विमर्शकार श्रावण देवरे के मुताबिक यह पहली बार हुआ कि भाजपा एवं उसके घटक दलों के चुनावी अभियान के पोस्टरों में जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले की तस्वीरें भी शामिल की गईं। देवरे बताते हैं कि भाजपा अब यह जान चुकी है कि राज्य के ओबीसी जागरूक हो रहे हैं। हालांकि वह पहले भी नायकों में फुले दंपत्ति का उल्लेख करते थे। लेकिन एकनाथ शिंदे की सरकार के दौरान उन्हें कुछ करके दिखाना पड़ा। उन्होंने किया यह कि पुणे के भिड़ेवाड़ा में, जहां फुले दंपत्ति ने पहला स्कूल खोला था, उसकी इमारत जीर्ण-शीर्ण हे गई थी, का निर्माण नए सिर से करवाया।
इसके अलावा 9 नवंबर, 2024 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने जब महायुति गठबंधन का घोषणापत्र जारी किया तो उसमें यह कहा गया कि यदि गठबंधन को जीत मिली तो जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले के साथ वीर सावरकर को ‘भारत रत्न’ का सम्मान दिलाने की पूरी कोशिश की जाएगी। यह पहली बार हुआ कि भाजपानीत गठबंधन को फुले दंपत्ति का नाम घोषणा पत्र में शामिल करना पड़ा। वहीं महाविकास आघाड़ी की ओर से जारी घोषणापत्र में डॉ. आंबेडकर कॉरिडोर स्थापित करने की बात कही गई। इस कॉरिडोर में महाराष्ट्र के उन सभी स्थलों व गांवों को शामिल करने की बात कही गई, जहां-जहां डॉ. आंबेडकर गए थे।
राज्यसभा के सभापति का जातिवाद
बीत रहा साल जिस एक राजनीतिक घटना के लिए याद किया जाएगा, वह है राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ विपक्षी दलों के सदस्यों द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाया जाना। विपक्षी दलों के द्वारा इस संबंध में एक नोटिस दी गई है, जिसमें धनखड़ के ऊपर आरोप लगाया गया है कि आसन पर रहने के बावजूद वे सत्ता पक्ष के प्रवक्ता के रूप में व्यवहार करते हैं। यह भारतीय संसदीय इतिहास में पहली बार हो रहा है कि राज्यसभा के सभापति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है। वैसे यह साल राज्यसभा में जगदीप धनखड़ और विपक्ष के नेता व कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के बीच विवादों के लिए भी जाना जाएगा। इसी साल 2 जुलाई को धनखड़ ने राज्यसभा में अपने संबोधन में कांग्रेस के सदस्य जयराम रमेश को मल्लिकार्जुन खड़गे का स्थान तुरंत ले लेने को कहा। उन्होंने यह भी कहा कि “जयराम रमेश, आप बहुत मेधावी हैं, बहुत तेज हैं।” इस पर मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि “सभापति वर्णाश्रम व्यवस्था सदन में लाना चाहते हैं। वे जयराम रमेश को इसलिए अधिक बुद्धिमान बता रहे हैं, क्योंकि वे ब्राह्मण हैं और मुझे [एक दलित को] वे बुद्धिहीन कह रहे हैं।”
लोकसभा में ‘एक देश – एक चुनाव’ के सवाल पर सत्ता पक्ष को मिली हार
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली आयोग की अनुशंसा पर देश में लोकसभा और सभी राज्यों के विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने की मंशा से ‘एक देश – एक चुनाव’ कानून को लागू करने की दिशा में गत 17 दिसंबर, 2024 को केंद्र सरकार को हार का सामना करना पड़ा। हुआ यह कि लोकसभा में सत्ता पक्ष के कई सांसदों ने विधेयक का समर्थन नहीं किया। सरकार द्वारा इस संबंध में दो विधेयक – 129वां संविधान संशोधन विधेयक और संघ राज्य क्षेत्र विधि (संशोधन) विधेयक, 2024 – लोकसभा में रखे गए थे। इन विधेयकों को पारित कराने के लिए दो-दो बार मतदान कराया गया। पहली बार जब केंद्र सरकार की तरफ प्रस्तुत विधेयकों पर मतदान हुआ तो इलेक्ट्रानिक वोटिंग के जरिए मतदान कराया गया। तब विधेयक के समर्थन में 220 मत और विरोध में 149 मत पड़े। इसके बाद लोकसभा अध्यक्ष ने दुबारा मतदान पर्चियों से कराया। तब 129वां संविधान संशोधन विधेयक के पक्ष में 269 व विरोध में 198 मत पड़े। इसके बाद केंद्र सरकार के अनुरोध पर लोकसभा अध्यक्ष ने दोनों विधेयकों को संयुक्त संसदीय समिति को भेजने का नियमन दिया।
दरअसल, संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 368 में दो शर्तें निर्धारित हैं, जिनका अनुपालन होना आवश्यक है। पहला यह कि संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में संशोधन के पक्ष में कुल सीटों के आधार पर स्पष्ट बहुमत हो – लोकसभा में कम-से-कम 272 मत व राज्यसभा में कम-से-कम 123 मत – तथा दूसरा यह कि दोनों सदनों में संशोधन के पक्ष में चाहे जितने भी सदस्य मौजूद हों और मतदान में हिस्सा लेते हों, उनका दो-तिहाई मत आवश्यक हैं।
लोकसभा में आंबेडकरवाद के खिलाफ अमित शाह ने की प्रतिकूल टिप्पणी
वर्ष के अंत तक आते-आते आंबेडकर को लेकर केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री अमित शाह की मंशा उजागर हो गई। हुआ यह कि 18 दिसंबर, 2024 को लोकसभा में अपने संबोधन में अमित शाह ने कह दिया कि “आंबेडकर का नाम लेना फैशन हो गया है।” उन्होंने यह भी कहा कि “जितनी बार विपक्ष आंबेडकर का नाम लेता है, अगर उसने उतनी बार ईश्वर का नाम ले लिया होता तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति हो गई होती।” अमित शाह की इस टिप्पणी का लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष ने जमकर विरोध किया। संसद परिसर में विपक्षी सदस्यों ने अपने हाथ में डॉ. आंबेडकर की तस्वीर हाथ में लेकर अमित शाह के खिलाफ नारे लगाए। वहीं राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के सदस्य डेरेक ओ’ब्रायन ने अमित शाह के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का नोटिस दिया।