~ पुष्पा गुप्ता
संकल्प का संबंध सत्य और धर्म से होता है। उसका प्रयोग अधर्म और अत्याचार के लिए नहीं हो सकता। अधर्म पतन की ओर ले जाता है, पर यह संकल्प का स्वभाव नहीं है।
अधर्म से धर्म की ओर, अन्याय से न्याय की ओर, असत्य से सत्य की ओर, कायरता से साहस की ओर, कामुकता से संयम की ओर, मृत्यु से जीवन की ओर अग्रसर होने में संकल्प की सार्थकता है। आचार्यों ने उसे इसी रूप में लिया है।
भारतीय धर्म में अनुशासन की इस उदात्त परम्परा का ध्यान रखते हुए ही गुरुजन “सत्यं वद, धर्मम् चर” का संकल्प अपने शिष्यों से कराते रहे हैं। आध्यात्मिक तत्त्वों की अभिवृद्धि की तरह ही भौतिक उन्नति की नैतिक आकांक्षा को बढ़ाना भी संकल्प के अन्तर्गत ही आता है।
जहाँ अपने स्वार्थों के लिए अधर्माचरण शुरू कर दिया जाता है, वहाँ संकल्प का लोप हो जाता है और वह कृत्य अमानुषिक, आसुरी, हीन और निकृष्ट बन जाता है। संकल्प के साथ जीवन-शुद्धता की अनिवार्यता भी जुड़ी हुई है।
संकल्प की इस परम्परा में अपनी उज्ज्वल गाथाओं को ही जोड़ा जा सकता है।निकृष्टता से, पाप से, स्वार्थ की सतर्कता और अत्याचार द्वारा संकल्पजयी नहीं बना जा सकता।
अन्यमनस्कता, उदासीनता और मुर्दादिली को छोड़कर ऊँचे उठने की कल्पना मनः क्षेत्र को सतेज करती है। इससे साहस, शौर्य, कर्मठता, उत्पादन शक्ति, निपुणता आदि गुणों का आविर्भाव होता है। इन गुणों में शक्तियों का वह स्रोत छुपा हुआ है जिससे सन्तोष, सुख और आनन्द का प्रतिक्षण रसास्वादन किया जा सकता है।
निकृष्टता मनुष्यों में दुर्गुण पैदा करती है, जिससे चारों ओर से कष्ट और क्लेश के परिणाम ही दिखाई दे सकते हैं। संकल्प को इसीलिए जीवन की उत्कृष्टता का मंत्र समझना चाहिए, उसका प्रयोग मनुष्य जीवन के गुण विकास के लिए होना चाहिए।
अपने को असमर्थ, अशक्त एवं असहाय मत समझिए। साधनों के अभाव में किस प्रकार आगे बढ़ सकेंगे? ऐसे कमजोर विचारों का परित्याग कर दीजिए। स्मरण रखिए शक्ति का स्रोत साधनों में नहीं संकल्प में है।
यदि उन्नति करने की, आगे बढ़ने की इच्छाएँ तीव्र हो रही होंगी तो आप को जिन साधनों का आज अभाव दिखलाई पड़ता है, वे निश्चय ही दूर हुए दिखाई देंगे। संकल्प में सूर्य रश्मियों का तेज है, वह जाग्रत चेतना का श्रृंगार है, विजय का हेतु और सफलता का जनक है। दृढ़ संकल्प से स्वल्प साधनों में भी मनुष्य अधिकतम विकास कर लेता है और मस्ती का जीवन बिता सकता है।