–मंजुल भारद्वाज
सत्ता नीति बना सकती है,सड़क बना सकती है, नोट बंदी या देश बन्दी कर सकती है पर मनुष्य को इंसान नहीं बना सकती। मनुष्य को इंसान बनाती है कला। कला चेतना है जो सौन्दर्य बोध के साथ मनुष्य में इंसानियत का भाव जगाकर उसे विवेक –विचार के चैतन्य से आलोकित करती है. इस चैतन्य ने मनुष्य की वैज्ञानिक नामकरण होमोसेपियन से आगे अपनी पहचान बनाई वो पहचान है ‘इंसान’ होना. इंसान होने का अर्थ है भूगोल,राष्ट्रवाद,धर्म,जात,.नस्ल,अमीरी-ग़रीबी,स्त्री-पुरुष के भेद को त्याग,समता ,न्याय और शांति में विश्वास रखने वाला व्यक्तित्व ! कला का अर्थ है विवेकशील चैतन्य जो दुनिया को सुन्दर और मानवीय बनाने की दृष्टि से समाज को आलोकित करती है । सांस्कृतिक चेतना “वो चेतना है जो मनुष्य को आंतरिक और बाहरी आधिपत्य से मुक्त कर उसके मूल्यों को उत्क्रांति के पथ पर उत्प्रेरित करती है और प्रकृति के साथ जीते हुए मनुष्य का एक स्वायत्त अस्तित्व बनाती है” इससे जो व्यवस्था बनती है उसे हम संस्कृति कहते हैं ! सांस्कृतिक चेतना से निर्मित मनुष्य समाज की एक स्वायत्त व्यवस्था को संस्कृति कहते हैं । कला सृजन का मूल आधार मनुष्य के भीतर चलती खोज है। इस खोज को राजनीति उत्प्रेरित करती है। सत्ता बाधित तो व्यवस्था चुनौती देती है। धर्म इसे अधर्मी मानता है। इसलिए कला सौन्दर्य बोध के साथ राजनैतिक चिन्तन की परकाष्ठा है। सत्ता हमेशा कला का दमन करती रही है और कलाकारों की हत्या या देश निकाला। इस मामले में किसी भी तरह की सत्ता कमतर नहीं है । क्योकि कला ‘सत्य की खोज’ है और सत्ता,व्यवस्था को सत्य पसंद नहीं. धर्म तो पाखंड है और पाखंडों पर आधारित कर्मकांड को परम्परा और संस्कृति के रूप में स्थापित करता है। सत्ता हमेशा चाहती है की कला बस तमाशा भर रहे, फूहड़ भाषा में कहें तो मनोरंजन तक सीमित रहे। कोई सवाल ना पूछे इसलिए वो ड्रामा स्कूल खोलती है,सम्मान, विभूषण, नवरत्न या दरबारी होने के ख़िताब देती है ताकि कलाकार भोग में डूबा रहें । मूलतः कला व्यक्तिगत सृजन होते हुए भी सार्वभौम कर्म है इसलिए संस्कृतिकर्मी को हमेशा इस दायित्व का भान रहे। सत्ता उसे डरायेगी,लोभ,लालच देगी पर उसे मनुष्यता के प्रति निष्ठावान रहना है सत्ता के प्रति नहीं। पर अफसोसजनक है की सत्ता के कला स्कूलों से शिक्षित या कहें भ्रमित संस्कृतिकर्मी कला को नुमाइश भर समझते हैं वो नुमाइशी हुनर में प्रवीन हो सकते हैं पर दृष्टि में शून्य, नहीं तो सत्ता कभी भी असत्य को नहीं अपना सकती क्योंकि कला एक विद्रोह है और कलाकार विद्रोही । सत्ता वैभव का खजाना खोल संस्कृति को पेट के आगे नहीं सोचने देती. इसमें सत्ता का पक्षधर समाज भी कलाकारों को प्रसिद्दी और शोहरत के लिए उकसाता है ‘सत्य’ के लिए नहीं। इसलिए संस्कृतिकर्मियों को संस्कृति की सही समझ और उसके कर्म यानी कला के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सृजन करना अनिवार्य है। भोग विलास से दूर कला एक यौगिक क्रिया है। थोड़े में कहूँ तो संस्कृति के नाम पर समाज में पसरे पाखंडों और कर्मकांडों के प्रति जनता /दर्शक /पाठक को संस्कृतिकर्मी जागरूक करें चाहे इसके लिए उन्हें जान ही क्यों ना देनी पड़े ! याद रखिये सत्यम,शिवम .सुन्दरम् ! गांधी ने सत्य बोलना नाटक से सिखा । यह कला की शक्ति है। कला का सृजन सर्वोपरि इंसानी कर्म है!