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समीक्षा : अभिनव क़दम: किसान और उनकी समस्याओं पर दस्तावेज़ी अंक

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‘अभिनव क़दम’ ने ‘किसान और किसानी’ विशेषांक निकालकर न सिर्फ़ किसानों की समस्याओं और सवालों को केंद्र में ला दिया है, बल्कि उनके आंदोलन को एक नई दिशा देने का भी महत्वपूर्ण काम किया है। पत्रिका के यह दोनों अंक किसानों के लिए एक मशाल की तरह हैं, जिसकी रौशनी में वे अपने अतीत, वर्तमान और मुस्तकबिल को साफ़-साफ़ देख सकते हैं। पत्रिका के अतिथि संपादक बिपिन तिवारी और अटल तिवारी दोनों मुबारकबाद के हक़दार हैं कि उन्होंने हिंदी समाज को किसानों की समस्याओं से व्यापक रूप से जोड़ा। संवेदनशील किया। किसानों पर कोई भी संकट पूरी इंसानियत पर संकट है। यदि समय रहते हमने इस संकट पर काबू नहीं पाया, तो नई पीढ़ी का भविष्य ख़तरे में होगा।

ज़ाहिद ख़ान 

जयप्रकाश ‘धूमकेतु’ के संपादन में बीते ढाई दशक से निरंतर निकल रही ‘अभिनव क़दम’, हिन्दी साहित्य की प्रगतिशील विचारों की एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका है। जिसके इस दरमियान कई ख़ास विशेषांक मसलन ‘राही मासूम रज़ा’, ‘राहुल सांस्कृत्यायन, ‘सहजानंद सरस्वती और किसान आंदोलन’, ‘एरिक हॉब्सबॉम’, ‘उत्तर आधुनिक विमर्श की शल्य क्रिया’, ‘मलयज’, ‘शैलेन्द्र कुमार त्रिपाठी’ और ‘महामारी की त्रासदी और हम’ आए और चर्चित हुए। जिन्होंने संपूर्ण साहित्य-जगत और पाठकों दोनों का ध्यान अपनी ओर खींचा है।

‘अभिनव क़दम’ ने अपनी इसी प्रतिबद्ध-यात्रा को ज़ारी रखते हुए पत्रिका के 43-44 और 45-46 अंक ‘किसान और किसानी’ विशेषांक के तौर पर निकाले हैं। इन अंकों के अतिथि संपादक अटल तिवारी और डॉ. बिपिन तिवारी हैं। पत्रकारिता का ज़मीनी तजुर्बा रखनेवाले अटल तिवारी ने इन अंकों के संपादन से पहले ‘तद्भव’ के लिए ‘किसान की पीड़ा’ के अलावा ‘पत्रकारिता : परंपरा, समकाल और भविष्य’ जैसे शानदार विशेषांक संपादित किए हैं। जिनकी चर्चा आज तक होती है। वहीं बिपिन तिवारी ने साहित्यक यूट्यूब चैनल ‘किताबी दुनिया’ से अपनी एक अलग पहचान बनाई है। यह उनका एक ऐसा दस्तावेज़ी काम है, जिसका मूल्यांकन बाद में होगा।

बहरहाल, बीते एक दशक से देश में किसान और उनकी समस्याएँ केन्द्र में है। लेकिन जिस तरह से इस समस्या पर मुख्य धारा की पत्र-पत्रिकाओं में व्यवस्थित और एक नई दिशा देने वाली चर्चा, वाद-विवाद और संवाद होना चाहिए, वह कहीं होता नहीं दिखाई दे रहा था। ‘अभिनव क़दम’ ने ‘किसान और किसानी’ विशेषांक निकालकर, अपनी ओर से यह चुप्पी तोड़ने की भरसक कोशिश की है। 900 से ज़्यादा पेज के यह दोनों अंक अपने अंदर काफ़ी कुछ संजोए हुए हैं। किसानों से जुड़ी हुई कोई समस्या या कोई बात छूट नहीं जाए, इसके लिए संपादक द्वय अटल तिवारी और डॉ. बिपिन तिवारी ने काफ़ी मेहनत की है। उनकी यह मेहनत इन अंकों में साफ़ झलकती है। एक योजनाबद्ध तरीके़ से उन्होंने अंकों के लिए सामग्री इकट्ठी की है।

पत्रिका का पहला खंड दस्तावेज़ है। जिसमें ‘किसान और साहित्य’, ‘किसान और राजनीति’, ‘किसानों से संवाद’, ‘किसान और बुद्धिजीवी’ अध्यायों के अंतर्गत देश के जाने-माने साहित्यकारों, क़लम के सिपाहियों (पत्रकारों), सियासी रहनुमाओं और इतिहासकारों मसलन प्रतापनारायण मिश्र, गणेशशंकर विद्यार्थी, प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, राहुल सांकृत्यायन, श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, नवजादिक श्रीवास्तव, महात्मा ज्योतिबा फुले, राधामोहन गोकुल, बाबा रामचंद्र, आचार्य नरेन्द्रदेव, स्वामी सहजानंद सरस्वती, प्रोफ़ेसर एन.जी. रंगा, महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, राममनोहर लोहिया, महेन्द्र सिंह टिकैत, डॉ. जै़नुल आब्दीन अहमद, आदित्य मुखर्जी, किशन पटनायक आदि कुल पैंतालिस शख़्सियतों के विचार संकलित हैं।

इन विचारों को पढ़कर अंग्रेज़ी हुकूमत से लेकर आज़ाद भारत के शुरुआती सालों में किसानों की जो समस्याएँ रही हैं, उन पर विस्तृत रौशनी पड़ती है। किसान जीवन और उनकी समस्याओं को समझने के लिए यह आलेख मशाल का काम करते हैं। भारतीय किसानों की जो मौजूदा समस्याएँ हैं, देश में उनके बीज अंग्रेज़ी हुकूमत के ही दौरान पड़ गए थे। जब तक हम उस दौर पर एक नज़र नहीं डालेंगे, इन समस्याओं से भी अच्छी तरह वाक़िफ़ नहीं होंगे।

आज़ादी से पहले देशी ज़मींदार, जागीरदार, महाजन, सामंत, राजे-रजवाड़े अंग्रेज़ी हुकूमत के लिए काम करते थे। किसानों से जबरन किसी फसल की खेती करवाने से लेकर, मनमाना लगान तक वह उन्हीं के लिए वसूलते थे। इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक तक आते-आते भूमिकाएँ बदल गई हैं। अब यह काम सरकार कर रही है। अपने मनपसंद सरमायेदारों को फ़ायदा पहुँचाने के लिए ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं, जो किसानों को एक ऐसी अंधी सुरंग में छोड़ देंगे, जहाँ एक बार वे अंदर घुस गए, तो वहाँ से बाहर निकलना उनके लिए मुश्किल हो जाएगा। संभलने के लिए उन्हें कोई दूसरा मौक़ा नहीं मिलेगा।

अच्छी बात यह है कि समय रहते किसान इस सियासी चाल को समझ गए और उन्होंने संघर्ष का वह रास्ता इख़्तियार किया, जिस पर आज़ादी से पहले उनके पूर्वज चलते रहे हैं। बाबा रामचंद्र, मदारी पासी, सहजानंद सरस्वती, सरदार वल्लभभाई पटेल, सर छोटूराम, लाला हरदयाल, महात्मा गांधी जैसे किसान और सियासी लीडरों ने किसानों के आंदोलन की अगुवाई की और अंग्रेज़ी हुकूमत से उनके अधिकार दिलवाये।

समीक्षा : अभिनव क़दम 43-44, 45-46 (किसान और किसानी विशेषांक खंड-1 और खंड-2), संपादक : जयप्रकाश ‘धूमकेतु’, अतिथि संपादक : बिपिन तिवारी और अटल तिवारी, पेज : 900, मूल्य : 400, संपर्क : 94152 46755

अंग्रेज़ी हुकूमत ने किस तरह योजनाबद्ध तरीके से भारतीय उद्योग और काम धंधों को ख़त्म किया व कर्ज़ में डुबोया, लाला लाजपत राय के लेख ‘भारतवर्ष-‘दरिद्रता का घर’ से पता चलता है। लाला लाजपत राय ने यह लेख मिस कैथरीन मेयो की किताब ‘मदर इंडिया’ के जवाब में लिखा था। इसमें वे कई दलीलों से साबित करते हैं कि ‘ब्रिटेन भारत की संपत्ति के दम पर महाशक्ति बना था।’

आज अंग्रेज़ी हुकूमत की तरह किसानों पर मनमाना लगान या मालगुज़ारी नहीं, लेकिन किसानों के प्रति सरकार की जो नीतियाँ हैं, उसने उनकी आर्थिक कमर तोड़कर रख दी है। फसलों का उचित दाम न मिलना, सब्सिडी में भारी कमी, चारों ओर कर्ज का बढ़ता शिकंजा और सरकार की ओर से किसी भी तरह की कोई राहत न मिलना। इन सब बातों ने किसानों को एक चक्रव्यूह में फंसा दिया है। एक लिहाज़ से कहें, तो भारतीय कृषि का चरित्र आज भी औपनिवेशिक है। जहां किसानों का शोषण चारों ओर हो रहा है।

पत्रिका का दूसरा खंड ‘मूल्य और मूल्यांकन’ विषय पर केंद्रित है। जो 550 पेज से ज़्यादा का है। इस खंड में किसान और किसानी से जुड़ी सभी समस्याओं पर फोकस किया गया है। अलग-अलग समस्याओं पर विद्वान लेखकों ने लिखा है। मसलन ‘भारत का किसान और राजनीति’-सोमपाल शास्त्री, ‘सबसे बड़े क्षेत्र में सबसे बड़ा संकट’-अशोक धवले, ‘विकास के नाम पर भू:अधिग्रहण : अनुभव, परिदृश्य और सबक’-अभिषेक श्रीवास्तव, ‘देशी और जीन परिवर्तित बीज’-अरविंद कुमार सिंह, ‘ठेका खेती के लाभ-हानि’-प्रीति सिन्हा, ‘रसायनिक खेती के जोखिम बनाम जैविक के संकट’-पंकज मिश्र, ‘उत्तर प्रदेश के गन्ना उत्पादक किसानों की व्यथा’-मुशर्रफ अली, ‘फल-सब्जी की खेती और किसानों की मुसीबतें’-अरविंद शुक्ला, ‘प्राकृतिक और ‘सरकार जनित आपदाओं’ के बोझ तले किसान’-दीप सिंह, ‘राजनीति के अखाड़े में गो-धन और मुसीबत में किसान’-अटल तिवारी, ‘भारत का कृषि संकट : भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीति’-राजेश मल्ल, ‘प्रधानमंत्री फ़सल बीमा योजना में लूट’-अर्जुन प्रसाद सिंह, ‘किसानों का ये कैसा सम्मान’-दया शंकर राय।

इस खंड की खासियत देश की कुछ अहम शख्सियतों पी. साईनाथ, देविंदर शर्मा, राकेश टिकैत, विजय जावंधिया, डॉ.दर्शनपाल सिंह, डॉ.सुनीलम से इंटरव्यू है। इंटरव्यू अटल तिवारी और बिपिन तिवारी ने लिए हैं। इंटरव्यू में सवाल इस तरह संयोजित किए गए हैं कि किसान और उनकी मौजूदा दौर की सारी समस्याओं के जवाब हमें मिल जाते हैं। आज वो जिस दुष्चक्र में फंस गए हैं, उससे बाहर निकलने का रास्ता ये सभी अपनी बातचीत में सुझाते हैं। साथ ही किसानों की चुनौतियों को भी रेखांकित करते हैं। पत्रिका का एक खंड साहित्य पर केंद्रित है।

विगत और मौजूदा दौर में साहित्य की अलग-अलग विधाओं कविता, कहानी, उपन्यास, फिल्म, रंगमंच, मीडिया, वैकल्पिक मीडिया और पत्र-पत्रिकाओं में किसानों की समस्याओं और सवालों को किस तरह उठाया गया, इन लेखों को पढ़कर जाना जा सकता है। मैगजीन का आख़िरी खंड किसान आंदोलन पर केंद्रित है। किसान आंदोलन के क्या सबक हैं, किसान आंदोलन 2021 का हासिल और भविष्य की चुनौतियां कमोबेश सभी सवालों को अलग-अलग लेखों में उठाया गया है।

कमल नयन काबरा, अरुण कुमार त्रिपाठी, सुनीत चोपड़ा, रामशरण जोशी, भाषा सिंह, विनीत तिवारी और बादल सरोज जैसे लेखक, वरिष्ठ पत्रकार, अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने ज़मीनी तजुर्बों के आधार पर किसान आंदोलन का मूल्यांकन किया है। आंदोलन के दबाव में भले ही केंद्र सरकार ने अपने किसान विरोधी तीन कानून वापस ले लिए हैं, लेकिन किसानों की मांगों पर अभी तक कोई विचार नहीं किया गया है।

किसानों की मुख्य मांग एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानूनी गारंटी, अपनी फसल का सही दाम यानी लागत का उन्हें डेढ़ गुना मूल्य मिले। जब तक यह मांग नहीं मानी जाती, किसानों के दिन भी नहीं बदलेंगे। उनका जीवन स्तर नहीं सुधरेगा।

‘अभिनव क़दम’ ने ‘किसान और किसानी’ विशेषांक निकालकर न सिर्फ़ किसानों की समस्याओं और सवालों को केंद्र में ला दिया है, बल्कि उनके आंदोलन को एक नई दिशा देने का भी महत्वपूर्ण काम किया है। पत्रिका के यह दोनों अंक किसानों के लिए एक मशाल की तरह हैं, जिसकी रौशनी में वे अपने अतीत, वर्तमान और मुस्तकबिल को साफ़-साफ़ देख सकते हैं। पत्रिका के अतिथि संपादक बिपिन तिवारी और अटल तिवारी दोनों मुबारकबाद के हक़दार हैं कि उन्होंने हिंदी समाज को किसानों की समस्याओं से व्यापक रूप से जोड़ा। संवेदनशील किया। किसानों पर कोई भी संकट पूरी इंसानियत पर संकट है। यदि समय रहते हमने इस संकट पर काबू नहीं पाया, तो नई पीढ़ी का भविष्य ख़तरे में होगा।

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