रिहाना 74 करोड़ में यूं ही नहीं नाचती भारत आकर. शाहरुख और अमिताभ यूं ही चम्मचों से पनीर और मीठे के टुकड़े मेहमानों की प्लेट में नहीं डालते. यूं ही किसी जलसे में हजारों करोड़ खर्च के नाटक तमाशे नहीं होते. इसके लिए लाखों नौजवानों को बेहद मामूली पगार पर गैर मामूली मेहनत करनी होती है, गैर मामूली मुनाफा बढ़ाना होता है. इसके लिए सरकार को टैक्स पेयर्स के पैसों से कल्याण कार्यक्रम चलाने होते हैं ताकि बड़े मालिकों की सेवा में अपनी जवानी को होम करने वालों के बूढ़े मां बाप भूख से मरें नहीं.
मन्त कुमार झा,
एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
74 करोड़…, अपने अंबानी सर ने बेटे के ‘प्री वेडिंग’ समारोह में परफॉर्म करने के लिए रिहाना को इतनी ही रकम दी. ऊपर से आने-जाने का खर्चा. अब कोई अमेरिका से आए, वह भी रिहाना जैसी अंतरराष्ट्रीय स्टार कलाकार, तो चार्टर प्लेन तो मिनिमम सुविधा है.
साथ में झाल मंजीरा बजाने वाले संगतियों की फौज भी. सबका नाश्ता, खाना, रहना, घूमना. बड़ा खर्च है ! बड़ा खर्च बड़े लोग ही करते हैं.
बचपन में कहानियां सुनते थे कि हमारे गांव के फुद्दी बाबू ने अपने छोटे भाई की शादी में परफॉर्म करने के लिए बनारस से कलाकार बुलाए थे. जब बाजार में तीन रुपए किलो रोहू मछली बिकती थी तब बनारस वाली उस टोली को तीन हजार रुपये देने की चर्चा दस दस कोस दूर के गांवों तक हुई थी.
फुद्दी बाबू सैकड़ों बीघे खेत के मालिक थे. इलाके के बड़े बबुआनों में नाम था. उनके खेतों में, खलिहानों में न जाने कितने लोग काम करते थे. औरतें भी, मर्द भी. मडुआ, मकई तौल कर मजदूरी में देते थे.
गांव के श्रमिक उनके खेतों में खूब काम करते थे. मौसम साथ देता तो अक्सर अच्छी उपज भी होती. फुद्दी बाबू मय खानदान फलते फूलते रहे. दुर्गा पूजा में नाटक कंपनी भी गांव में आती थी, जिसकी मेजबानी वही करते थे. दो दृश्यों के बीच में नटुआ नाचता तो मौज में आकर उसे नकद इनाम भी देते थे.
गांव के श्रमिकों ने अथक मेहनत से फुद्दी बाबू की बबुआनी को बनाए रखा. बदले में सपरिवार भरपेट भोजन भी नसीब नहीं तो इसे नसीब का खेल माना. जमाना बदला. फुद्दी बाबुओं की रौनक भी घटी. रौनक शिफ्ट हुई नए दौर के फुद्दी बाबुओं के आंगन में. बोले तो बड़े बिजनेस मैन. सम्मान से बुलाओ तो उद्योगपति कहो, फिलॉसफी से बुलाओ तो पूंजीपति कहो.
फुद्दी बाबुओं से अधिक कमाई. न जाने कैसे और न जाने कितनी अधिक कमाई. उनसे अधिक शातिर, उनसे अधिक निर्मम. फुद्दी बाबुओं के हथकंडे तो फिर भी समझ में आते थे, भले ही विरोध का साहस या संबल न हो लोगों में. इनके हथकंडे तो समझ से बाहर हैं. पता नहीं कैसे, रौनक और कमाई बढ़ती ही जाती है, बढ़ती ही जाती है.
मौज की मौज में अकल्पनीय खर्च कर देने वाले आधुनिक प्रभुओं की जमात. किसी का बेटा चार्टर प्लेन में हजारों फीट ऊपर उड़ते अपनी गर्लफ्रेंड के बर्थडे का केक काट रहा है, कोई निजी जेट विमान में दोस्तों के साथ शैम्पेन की फुहारों के बीच रिंग सेरेमनी कर रहा है, कोई अपनी पोती को मैरेज डे में पूरा का पूरा आइलैंड ही गिफ्ट कर दे रहा है.
फुद्दी बाबुओं के जमाने में सरकारों के पास उतने पैसे नहीं होते थे कि सबको मुफ्त अनाज दो, मुफ्त मकान दो। टैक्स देने वाले मिडिल क्लास का उतना विकास और विस्तार नहीं हुआ था, अर्थव्यवस्था को रफ्तार देने वाली नई प्रौद्योगिकियों का जलवा कायम नहीं हुआ था.
तो, उस टाइम में गरीब बीमारी से मरते थे, अक्सर भूख से भी मरते थे. काम फुद्दी बाबू का करते थे, अनाज की कोठरियां उनकी भरते थे. खुद भूख और बीमारी झेलते, अपने नसीब को रोते एक दिन मर जाते थे. अब जमाना बदला है. देश ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था के दौर में है. अब टैक्स लेने और देने का अच्छा सिस्टम है. आमदनी बढ़ी है तो टैक्स भी बढ़ा है.
नए दौर के फुद्दी बाबुओं के कर्मचारी भूख से नहीं मरें, इसका इंतजाम सरकार करती है. बीमारी के इलाज के लिए मुफ्त बीमा के कार्यक्रम सरकार अपने फंड से चलाती है. जीतोड़ मेहनत से काम मालिक का करेंगे लेकिन जीने के लिए न्यूनतम जरूरतों की गारंटी सरकार देगी.
अंबानी सर ने रिहाना को महज कुछ घंटों के परफॉर्म के लिए चौहत्तर करोड़ खर्च कर दिए. वेडिंग नहीं, प्री वेडिंग में ही हजारों करोड़ खर्च कर दिए. लेकिन, रिलायंस की रिटेल चेन के निचले दर्जे के कर्मचारियों की विशाल फौज से जा कर मिलिए, उन्हें देखिए, जानिए.
वे लगातार काम करते हैं, अथक मेहनत करते हैं, मामूली पगार पाते हैं. इतनी ही कि वे और उनका परिवार इस पर जी नहीं सकते. वे शहरों में अंबानी सर की सेवा में लगे हैं. उनके बिजनेस के लिए उनके मुनाफे के लिए पूरा टाइम, पूरी एनर्जी खर्च करते हैं.
उधर, गांव में उनके बूढ़े और अशक्त माता पिता मुफ्त अनाज की लाइन में खड़े हैं, उनके बच्चे मुफ्त किताबों, पोशाकों और मिड डे मील की लाइन में खड़े हैं. वे परेशान हैं कि उनकी बीवी, बच्चे, माता, पिता के नाम से मुफ्त का आयुष्मान कार्ड बन जाए तो किसी हारी बीमारी में मुफ्त इलाज की कुछ सुविधा मिल जाए.
उनकी जवानी की फुल एनर्जी अंबानियों की सेवा में लग रही है, लेकिन, परिवार की न्यूनतम जरूरतों के लिए वे सरकार पर निर्भर हैं. काम बड़े मालिकों का, मुनाफा बड़े मालिकों का, दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रौनक बड़े मालिकों के आंगनों की…मेहनत गरीब नौजवानों की, उनकी भूख और बीमारी की जिम्मेदारी सरकार की.
आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस पंद्रह वर्षों में जितनी तेजी से भारत के अरबपतियों की समृद्धि में वृद्धि हुई है उतनी दुनिया के किसी और देश में नहीं. अपने अडानी सर की बढ़ती समृद्धि के ग्राफ की ही स्टडी कर लें जरा. सुना है, साल दो साल में ही दोगुनी, चौगुनी की रफ्तार से बढ़ी है उनकी रौनक.
मुफ्त अनाज लेने वाली 85 करोड़ आबादी में न जाने कितने परिवारों के नौजवान बेटे शहरों में अंबानियों, अदानियों का मुनाफा बढ़ाने के लिए अपनी जवानी गर्क कर रहे हैं. और हम सरकारों को कोस रहे हैं कि अब तक उन्हें मुफ्त मकान देने का वादा पूरा नहीं हुआ.
रिहाना 74 करोड़ में यूं ही नहीं नाचती भारत आकर. शाहरुख और अमिताभ यूं ही चम्मचों से पनीर और मीठे के टुकड़े मेहमानों की प्लेट में नहीं डालते. यूं ही किसी जलसे में हजारों करोड़ खर्च के नाटक तमाशे नहीं होते. इसके लिए लाखों नौजवानों को बेहद मामूली पगार पर गैर मामूली मेहनत करनी होती है, गैर मामूली मुनाफा बढ़ाना होता है. इसके लिए सरकार को टैक्स पेयर्स के पैसों से कल्याण कार्यक्रम चलाने होते हैं ताकि बड़े मालिकों की सेवा में अपनी जवानी को होम करने वालों के बूढ़े मां बाप भूख से मरें नहीं.