अग्नि आलोक

राधा से कम अहम नहीं रुक्मिणी 

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        बबिता यादव 

यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो एक ही श्री कृष्ण नाम के शरीर में तीन विभिन्न शक्तियों ने अलग-अलग प्रकार की लीला की। बृहत्सदाशिव संहिता में कहा गया है कि परब्रह्म की किशोर लीला का ऐश्वर्य वृंदावन में स्थित है। वह ही गोकुल में बाल रूप की लीला में स्थित है। वैकुण्ठ का वैभव मथुरा और द्वारिका में स्थित है।

     रासमण्डल में वेद ऋचाओं के द्वारा स्तुति किये जाने पर श्री कृष्ण जी ने उनके साथ लीला करने का वरदान दिया और उनके साथ वृंदावन में सात दिनों तक लीला करके वे मथुरा चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने कंस का वध किया| कृष्ण के विरह में व्याकुल वेद ऋचा सखियाँ गोलोक धाम को प्राप्त हुईं। पृथ्वी का भार हरण करने की इच्छा से चक्रधारी विष्णु भगवान कुछ वर्षों तक मथुरा में रहे। इसके बाद वे द्वारिका गये और बाद में वैकुण्ठ में विराजमान हो गये। 

         राधा-कृष्ण का अनन्य उपासक यदि रुक्मिणी को अपना इष्ट बनाये तो यही कहा जा सकता है कि उसने सार और असार को एक ही में मिला दिया है। सांसारिक राग जब भगवत चिन्तन का माध्यम बन जाता है तो वह राग ही प्रेम रस के रूप में परिणत हो जाता है। किसी भी क्रिया में प्रेम और ज्ञान दोनों की संगति आवश्यक है। 

    श्रीकृष्ण ब्रह्म हैं, रुक्मिणी ज्ञान शक्ति और सत्यभामा क्रियाशक्ति हैं। इन दोनों की समाविष्ट पराशक्ति श्री राधा हैं।

रुक्मिणी भक्ति और प्रेम का सामंजस्य हैं। वह भगवान की भक्त भी हैं और प्रेमी भी। बिना देखे, बिना मिले, कृष्ण के गुणों से, उनके स्वरूप से प्रेम कर बैठीं। प्रेम भी इतना प्रगाढ़ कि मन ही मन उन्हें अपना सर्वस्व तक समर्पित कर दिया। जब प्रेम ऐसा हो जाए,  निष्ठा ऐसी हो जाए तो परमात्मा को खोजने के लिए, सत्य को खोजने के लिये भटकना नहीं पड़ता। वह परमात्मा तो स्वयं ही हमें ढूँढता चला आता है। 

     अर्थात पूर्ण निष्ठावान होकर, एकाग्रचित्त होकर यदि सत्य की खोज की जाए, ज्ञान प्राप्ति की कामना की जाए तो वह सत्य, वह ज्ञान हमें बहुत सरलता से उपलब्ध हो सकता है।

      रुक्मिणी ने मन में भगवान को सर्वोच्च स्थान दिया अतः भगवान ने स्वयं उनके जीवन में प्रवेश किया |  इस ईश्वर प्राप्ति के लिये रुक्मिणी ने बहुत सोच विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को सन्देश देकर कृष्ण के पास भेजा।  ईश्वर की प्राप्ति के लिये माध्यम अर्थात सत्य की प्राप्ति के लिये गुरु किसी ऐसे व्यक्ति को ही बनाना चाहिये जिसे स्वयम् ईश्वर सत्ता का ज्ञान हो, सत्य का ज्ञान हो। सच्चे गुरु का चित्त सदा सन्तुष्ट रहता है। उसे अपने पूर्व पुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में भी कोई कठिनाई नहीं होती। वह समस्त धर्मों, समस्त विचारों का मनन करना जानता है| तथा सत्यान्वेषण और सत्यप्राप्ति की दिशा में शिष्य का भली भांति तथा उचित विधि से मार्ग दर्शन करता है।

रुक्मिणी भक्त भी हैं और प्रेमी भी। भक्ति और प्रेम के समक्ष सबसे बड़ी कठिनाई यही आती है कि जब मन सत्य में लीन होना चाहता है तो अन्य इन्द्रियाँ उसे अनेक प्रकारों के विकारों में भटकाने का प्रयास करती हैं। 

     किन्तु मन तटस्थ हो, ध्यानावस्थित हो तो कोई भी विकार उसे प्रभावित नहीं कर सकता। रुक्मिणी रूपी मन का परमात्मा अकेला है और शिशुपाल आदि विकार पूरी सेना हैं। किन्तु मन अर्थात रुक्मिणी को तो केवल शाश्वत सत्य अर्थात ईश्वर की ही लगन लगी है, उसी के ध्यान में पूर्ण निष्ठा तथा एकाग्रता के साथ अवस्थित हैं वे। यही कारण है कि सत्य अर्थात परमात्मा स्वयं उसके समक्ष उपस्थित हो गया|

      इस प्रकार रुक्मिणी हरण की लीला केवल एक लौकिक लीला ही नहीं वरन् कृष्ण की अन्य लीलाओं के समान इसमें भी बहुत गहन रहस्य छिपे हुए हैं, बहुत गूढ़ सन्देश छिपे हुए हैं|

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