प्रफुल्ल कोलख्यान
आजादी के बाद भारत के लोकतंत्र और संविधान के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन। 2024 के आम चुनाव का परिणाम आनेवाले हैं। ‘एग्जिट पोल’ ने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को भारी जीत का संकेत दे रहा था। ‘एग्जिट पोल’ लगभग उसे चार सौ के पार पहुंचा रहा था, हालांकि उस में कुछ आंख में चुभनेवाली सांख्यिकीय त्रुटियां और अंकगणितीय भूल भी थी। कहा जा रहा है कि ‘एग्जिट पोल’ में जानबूझकर आंकड़ों को इस तरह से फैलाया गया है कि ‘बाजार’ की हिम्मत बनी रहे। क्या पता इस मामले में सच क्या है! लेकिन इसमें जरा भी सच है तो भयानक है। इससे यह संकेत मिलता है ‘बाजार’ की घड़कन बाहर से प्रभावित है और जानबूझकर बाहर से प्रभावित किया जाता है।
स्वाभाविक है कि विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) ‘एग्जिट पोल’ को जरा भी महत्व नहीं दे रहा है। सोनिया गांधी, कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, न्याय योद्धा राहुल गांधी, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, राष्ट्रीय जनता दल के नेता तेजस्वी यादव सहित सभी बड़े नेता ‘एग्जिट पोल’ को सिरे से खारिज कर रहे हैं। विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) 295 की सीट पाने की बात पर टिके हुए हैं।
पिछले दस साल के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन काल में लोकतांत्रिक संस्थाओं, संवैधानिक मूल्यों, राजनीतिक व्यवहार, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं भारतीय जनता पार्टी की ‘सांस्कृतिक जिद’ के कारण भारत का सामाजिक ताना-बाना, गंगा-जमुनी संस्कृति, आर्थिक विन्यास तहस-नहस हो गया। राहुल गांधी के नेतृत्व में हुई ‘भारत जोड़ो यात्रा’ और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के दौरान जनसाधारण से मिले संकेतों को देखते हुए विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) के भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन पर भारी पड़ने के आसार साफ-साफ दिख रहे थे। तथ्यात्मक दृष्टि से अनुमान लगाने की कोशिश की जाये तो ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्ण या अर्ध सत्ता परिवर्तन अवश्यंभावी हो गया है।
अभी चुनाव परिणाम की बस झलक दिख रही है। इतना तय हो गया है कि तानाशाही की ओर बढ़ते कदमों में भारत के मतदाताओं ने लोकतंत्र की “पैजनिया” डालने में सफलतापूर्वक अपनी मत-शक्ति का परिचय दे दिया है। आम चुनाव में जितनी मुश्किलों के विपक्ष की राजनीति चलती रही उसे याद रखें तो यह कामयाबी सचमुच बहुत बड़ी लगती है। जिस तरह से अंतिम क्षण तक ‘एग्जिट पोल’ का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ बहुत ही हताशाजनक था। चुनाव में राष्ट्रीय भावना जिस तरह बदलाव के पक्ष में व्यक्त हुई है उसके राजनीतिक निहितार्थ को ठीक से पढ़ने में राजनीतिक दल कोई चूक नहीं करेंगे।
राम मंदिर के माध्यम से जिस तरह मतदाताओं को रिझाने-फुसलाने-भटकाने की कोशिश की गई, भावुक सांद्रताओं, बुद्धिमत्ता के पूर्णस्थगन की कोशिश की गई वह चुनावी सफलता तक सत्ताधारी दल को सत्ता रक्षण में मददगार साबित नहीं हुई। संविधान पर फिर फिलहाल खतरा टल गया है, भारत के संघात्मक ढांचे पर खतरा टल गया है, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019 (Citizenship (Amendment) Act, 2019), समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) जैसे हाहाकारी, विभेदकारी और गंगा-जमुनी संस्कृति में वैमनस्य फैलाने, नफरती बयान (Hate Speech) की आंधी से मुक्ति मिल सकती है।
‘कांग्रेस मुक्त’ और ‘विपक्ष मुक्त’ एक दलीय सर्वसत्तावादी दलीय राष्ट्र के रूप में भारत को गढ़ने की वैचारिकी खंडित हो गई है। संवैधानिक संस्थाओं के मनमाने इस्तेमाल के दुष्प्रभाव से भारत की संसदीय राजनीति को फिलहाल मुक्ति मिलने की संभावनाएं जग गई हैं। पोसुआ पूंजीवाद (Crony Capitalism) पर कुछ-न-कुछ तो रोक लगेगी। सत्ता का अहंकार टूटने से स्वतंत्र देश के नागरिक की संवैधानिक प्रत्याशा संतुष्ट होती है।
मध्यवर्ग कुछ राहत महसूस कर सकता है। मुख्य रूप से सामाजिक न्याय और संसाधनों के समुचित वितरण में संतुलन की कोशिश की जायेगी। जीत-हार राजनीतिक दलों की होती है, यह स्वाभाविक है। मुश्किल तब होती है जब लोकतंत्र की हार की खतरनाक स्थिति उत्पन्न हो जाया करती है। चुने गये लोग जनप्रतिनिधि होते हैं। जनप्रतिनिधि के अपने को देश का मालिक समझने की गफलत में पड़ जाने से लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरनाक स्थिति में उत्पन्न हो जाती है। सब कुछ को किसी ‘अवतारी हाथ’ में केंद्रित कर देने के अपने खतरे होते हैं। सरकार के साथ जनता सीधा और सुनिश्चित संबंध लोकतंत्र के लिए शुभ होता है।
राजनीतिक विशेषज्ञों और विश्लेषकों को सोचने-समझने के लिए इस चुनाव परिणाम से एक महत्वपूर्ण अवसर मिलेगा। सोचने-समझनेवाले के मन से डर कम होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहाल होगी। कंठ-रुद्धता और संवाद की अवरुद्धता पर लगाम लगेगी। व्यक्ति की गरिमा को सम्मान मिलेगा। लोकतंत्र को दुष्प्रभावित करनेवाला विभिन्न संघर्षशील पक्षों में से किसी पक्ष का पलड़े को अपनी ओर झुकाने के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से संघर्ष से बाहर के किसी अन्य को अपने पक्षपोषण के लिए घुसपैठिया बनाकर संघर्ष में शामिल कर पलड़े को अपनी ओर झुका लेने का इंतजाम करना तिकड़म कहलाता है। तीसरा पक्ष का कुछ-न-कुछ तो निष्क्रिय होगा। किसान आंदोलन के महत्वपूर्ण मुद्दों पर अविलंब विचार किया जायेगा। महिलाओं के प्रति न्याय और सुरक्षा का वातावरण कायम होगा, जीवनयापन कुछ-न-कुछ आसान जरूर होगा।
‘ज्ञान वंचित’ समाज में काल्पनिक सुख से पिंड छुड़ाकर वास्तविक दुख से मुकाबला के लिए तैयार होना और करना सचमुच बहुत मुश्किल होता है। वर्तमान के वास्तविक दुख को काल्पनिक भविष्य के मनोरम उद्यान में टहलाने से मनुष्य की उद्यम शीलता कमजोर पड़ती है। नई परिस्थिति में नागरिक उद्यमशीलता में नई ताजगी आयेगी। निश्चय ही यह काम आसानी से नहीं हो सकता है। दूर-दृष्टि, पक्का इरादा और अपराजेय लगन के बिना तो यह असंभव ही है। पक्का इरादा और कट्टरता में फर्क होता है। पक्का इरादा लक्ष्य और ध्येय को अपरिवर्तनशील रखते हुए प्रक्रिया में परिवर्तन के प्रावधानों की गुंजाइश बनाये रहता है। समझ और समझौता के बीच में विवेक संगत संतुलन निश्चित ही फलदायक होता है।
यह स्व-प्रमाणित हो गया है कि स्वतंत्र नागरिक का कोई अभिभावक नहीं हो सकता है, न कोई अन्य स्वतंत्र सह-नागरिक और न कोई संवैधानिक प्राधिकारी। स्वतंत्र नागरिक के ऊपर सिर्फ संविधान और कानून होता है। संविधान और कानून को लागू करनेवाले स्वतंत्र नागरिक के अधिकृत सहायक हो सकते हैं, शासक नहीं। विचार का प्रशंसक होना मतांध होना नहीं हो सकता है। जो विचार मतांध बनाता है वह विचार के भेष में विष के अलावा कुछ नहीं हो सकता है। जो विचार किसी को गंभीरता से सोचने और अपनी जवाबदेही पर उसे अपने व्यवहार के लिए प्रेरित न करता हो वह विचार के वेश में कुछ अन्यथा ही होता है।
अब यह बिल्कुल साफ-साफ दिख रहा है कि विभिन्न राजनीतिक दलों के नेतृत्व के द्वारा संघात्मकता के संवैधानिक चरित्र को महत्व देना जरूरी है। भाजपा का चाल-चरित्र-चेहरा तो पिछले दस साल के शासन में पूरी तरह से स्पष्ट हो गया है। ‘अति-दक्षिणपंथ’ की राजनीति की खतरनाक स्थिति, गति-मति और चाणक्य नीति के खतरे को भारत ने देख लिया है। कहना न होगा कि चाणक्य नीति के अनुसार युद्धों के लिये सक्षम रहने के लिए शिकार करने का अभ्यास निरंतर करना होता है। शिकार में गरीब जनता का शोषण शामिल रहता है। अर्थशास्त्र का टपकौआ (Trickle-down Economics) सिद्धांत विषमता की विषैली खाई से निकलने का सहारा बन सकता है। बनेगा! कहना मुश्किल है। कहना मुश्किल भले हो, लेकिन ऐसा होने का इंतजार तो रहेगा।
रोजी-रोजगार के कुछ अवसर तो जरूर उपलब्ध होंगे। महंगाई पर कुछ-न-कुछ काबू हो सकता है। दस साल में नागरिक जीवन और नागरिक अधिकार को जिस तरह रौंदा गया है, उसके दुष्प्रभाव अतिदक्षिण-पंथी लोकलुभावन राजनीति के फांस से बाहर निकलना बहुत आसान तो नहीं है, लेकिन इस समय वापस खुले मन से आती उम्मीद का स्वागत और नागरिक अभिनंदन तो जरूरी है।
जीवन रक्षा सब का अधिकार है और सह-अस्तित्व की भावना मनुष्य की मूल भावना है। भारत के संविधान में मनुष्य की गरिमा के कानूनी प्रसंग का समुचित प्रावधान है, जिसकी भरपूर अनदेखी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की वह भयानक और खतरनाक स्थिति रही है। कहना न होगा कि इलेक्टोरल बांड, कोविड-19 महामारी के समय प्रधानमंत्री नागरिक सहायता और आपातकालीन स्थिति निधि (PM_CARES_FUND), राफेल, पेगासस जैसे कई मुद्दों को भी न्याय का इंतजार होगा।
अभी तो भारत के लोग विपक्षी गठबंधन (इंडिया अलायंस) और गैर-भाजपा दल के नेताओं के आत्म-संयम, राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर लगाम, लोकतांत्रिक मूल्यों एवं संवैधानिक प्रावधानों और मान्यताओं से लगावों और अपनी हालत के सुधरने के उपायों पर विचार कर रही है। विचार करते हुए मतदान केंद्र पर लगी तरजनी में लगी स्याही से रोशनी के लिए इंतजार कर रहे हैं। चुनाव परिणाम का प्रभाव और नागरिक सद्भाव का आभास तो मिल रहा है, लेकिन अभी आगे बची लड़ाई है। फिलहाल तो भारत के आम मतदाताओं के विवेक को सलाम और तानाशाही की ओर बढ़ते कदमों में सफलतापूर्वक पैजनिया डालने के लिए बधाई।