शशिकांत गुप्ते
आज सीतारामजी साठ के दशक उत्तरार्ध और सत्तर के दशक का स्मरण सुना रहे हैं। तात्कालिक दिनों में हम भारतवासियों को आयातित वस्तुओं मतलब बोलचाल की भाषा में समझने के लिए Imported वस्तुओं के प्रति बहुत दिवानगी (Craze) थी।
इस दिवानगी का लाभ कुछ अति निपुण लोगों ने उठाया और अपने देश में निर्मित वस्तुओ पर विदेश की मोहर लगा कर impored के प्रति आकर्षित भारतीयों के उत्साह को बरकरार रखा।
विदेश का प्रभाव दिन-ब-दिन हमारी मानसिकता में पैठ करता गया।
कहने को हम पूरब वालें हैं,लेकिन हम पश्चिमी (western) “अ”संभ्यता को अंगीकृत करने में गौरव का अनुभव करतें हैं।
पश्चिमी “अ” असभ्यता का प्रभाव हमारे रहन सहन के साथ कला के क्षेत्र गायन वादन पर भी हावी हो रहा है।
तुलसीबाबा ने भगवान हनुमानजी की स्तुति में लिखा हनुमान चालीसा को पाश्चित्य धुन और संगीत के साथ गाया है।
अपने देश में यह लोकोक्ति प्रचलित है। *घर का जोगी जोगड़ा आन गाँव का सिद्ध*
हमें इस लोकोक्ति को चरितार्थ करने में कोई किसी प्रकार का संकोच नहीं होता है।
हमारे देश के नोनीहाल,विदेश में शिक्षा ग्रहण करने के लिए इतने लालायित रहते हैं कि, विद्यार्थी जीवन में ऋण का बोझ अपने कांधे पर लाद कर, देशी बैंको के ऋणी हो जाते है।
जिसतरह हम सिर्फ विदेश ही में भारतीय होते हैं,ठीक इसी तरह विदेश ही में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का समर्थन करने के लिए हमें बाध्य होना पड़ता है।
अपने देश में हम लोगों के परिधान से उनके मजहब की पहचान कर अपने संकीर्ण सोच को निःसंकोच प्रकट करते हैं।
देश की ज्वलंत समस्याओं के साथ अपने देश की जनता अंग्रेजी का suffer करें, हमें विदेशों में तफरी करने में कोई संकोच नहीं होता है।
हम भारतवासी मोक्ष प्राप्ति जतन में मगन रहते हैं।
तीर्थ क्षेत्र के दर्शन,चारोधाम की यात्राएं, मन्नत पूरी करने वाले धार्मिक स्थलों के साथ कथा प्रवचन सुनते हैं। नदियों में पाप धो ही लेते हैं। एनकेनप्रकरेण हमें मोक्ष प्राप्त करना ही हमारा लक्ष्य है।
सैद्धांतिक मान्यता के अनुसार हमें अपनी सभी जावाबदारी स्वेच्छा से पूर्ण करनी चाहिए।
यह सिद्धांत तो नास्तिक लोगों के लिए है।
हम आस्थावान लोग हैं।
हमारा भारत महान है
शशिकांत गुप्ते इंदौर