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नमन है उनको जिनके कारण समाजवादी साहित्‍य उपलब्‍ध है

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प्रोफ़ेसर राजकुमार जैन


सोशलिस्‍ट तहरीक विशेषकर डॉ॰ राममनोहर लोहिया का विपुल साहित्‍य अगर आज उपलब्‍ध है तो इसका श्रेय हैदराबाद के बदरी विशाल पित्ती जी, डॉ॰ हरिदेव शर्मा, डॉ॰ मस्‍तराम कपूर को जाता है।
1955 में बनी आल इण्डिया सोशलिस्‍ट पार्टी का केंद्रीय कार्यालय हैदराबाद में बना था उसकी एक बड़ी वजह यह थी कि बदरी विशाल जी जैसे समर्पित नेता वहाँ थे। पित्ती जी का परिवार हैदराबाद के निजाम प्रशासन का विश्‍वसनीय साहूकार था। ‘राजा बहादुर’ की पदवी से नवाजें गए, प्रपितामय के दादा “राय बहादुर” ‘सर नाइट हुड’ से अलंकृत किए गए दादा। राजा के खिताब से जाने गए पिता के घर में जन्‍म लेने वाले बदरी विशाल पित्ती सोशलिस्‍ट बनकर गरीबों, किसानों, मजलूमों, मज़दूरों, लोकतंत्र के सवाल पर सत्‍याग्रह करते हुए जेल गए। यह इसलिए हुआ क्‍योंकि लड़्कपन में ही बदरीविशाल जी लोहिया के लाड़ले बन गए।


*डॉ॰ लोहिया यायावर थे उनका कोई एक ठिकाना नहीं था। समय-समय पर अनेकों स्‍थानों पर उनके व्‍याख्‍यानों, शिक्षण शिविरों, वक्‍तव्‍यों, लेखों का संग्रह करने में बदरी विशाल जी ने अपने आपको पूर्णकालिक खपा दिया था।*
*डॉ॰ साहब की कोई सभा होती तो बदरी विशाल जी टेपरिकार्डर लेकर वहाँ उपस्थित रहते। उन दिनों अच्‍छी टेप की मशीनें भारी और बड़े बक्‍से के आकार की होती थी। डॉ॰ साहब का जहाँ भी व्‍याख्‍यान होता बदरी विशाल जी स्‍वयं उपस्थित रहकर रिकार्ड करते।*
मुझे याद है कि मई 1967 में दिल्‍ली पुलिस कर्मियों की हड़ताल हुई। पुलिस यूनियन के नेता ओम्‍प्रकाश आर्य ने जो सोशलिस्‍ट नेता मनिराम बागड़ी के जानकार थे। दिल्‍ली के सप्रू हाउस हाल में डॉ॰ साहब की पुलिस कर्मियों के समर्थन में एक सभा करवाई। मैं भी उस सभा में मौज़ूद था, बदरी विशाल जी वहाँ आए हुए थे, उनके एक सहायक डॉ॰ साहब का भाषण टेप कर रहे थे। बीच में दो बार उठकर बदरी जी टेपिंग मशीन पर कार्य करने वाले कार्यकर्ता को समझाने गए।
डॉ॰ साहब का काफी साहित्‍य उनके भाषणों से इकट्ठा किया गया। उस समय भाषणों के टेप होने, फिर लिपिबद्ध करने, संपादित करने के इस मुश्किल तथा समय लगाऊ, उसको छपवाने, छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ बनवाकर वितरित करने का कार्य कोई मिश्‍नरी ही कर सकता था। उस समय आज की तरह की तकनीकी सुविधा भी उपलब्‍ध नहीं थी। संग्रह में कोई कमी न रह जाये इसके लिए अतिरिक्‍त सावधानी, एकाग्रता एकत्रित की गई सारी सामग्री का विषयवार संयोजन करके इनकी किताबें बनाने और प्राय: इन किताबों का अंतिम प्रूफ भी बदरी जी ने खुद देखा तथा अपने ही पैसे से छपवाया। लोकसभा में लोहिया जी के भाषण को बदरी विशाल जी ने सुसंपादित किया। मुझे याद है कि छात्र जीवन में लोहिया साहित्‍य नवहिंद प्रकाशन, हैदराबाद से प्रकाशित होकर छोटी-छोटी पुस्तिका में 3-4 रुपये मूल्‍य में पढ़ने को मिलता था।
हैदराबाद के हमारे पुराने समावजादी साथी तथा न्‍यायाधीश के पद पर रह चुके गोपाल सिंह ठाकुर ने हाल ही में खबर दी है कि 55 वर्ष पूर्व बदरी विशाल पित्ती जी ने डॉ॰ लोहिया के समय-समय पर जो भाषण रिकार्ड किये थे, वे अभी तक ‘लोहिया वाणी’ कैसेट के रूप में उपलब्‍ध थे, परंतु अब इनको सी॰डी॰ में परिवर्तित करके वितरित किया जा रहा है। साथी गोपाल सिंह बहुत ही शिद्दत के साथ इस कार्य में लगे रहते है। अभी हाल ही में ही इन्‍होंने  स्‍वतंत्रता सेनानी, समाजवादी चिंतक मधुलिमये की एक अत्‍यंत महत्त्वपूर्ण चचित पुस्‍तक “कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी फैक्‍टस एण्‍ड फिक्‍शन” जो मेरे अथक प्रयास के बावजूद भी नहीं मिल पा रही थी, उसको ढूंढ़कर मुझको भिजवायी।
आज नौ भागों में हिंदी-अंग्रेज़ी में जो ‘राममनोहर लोहिया रचनावली’ मौज़ूद है, उसका सारा साहित्‍य जो अलग-अलग पुस्तिकाओं, किताबों, पर्चों, अख़बारों में छपा हुआ था, उसको करीने से परवान चढ़ाने का कार्य डॉ॰ हरिदेव शर्मा जी, (भू.प. उप-डायरेक्‍टर नेहरू स्‍मारक संग्रहालय व पुस्‍तकालय, नई दिल्‍ली)  ने किया। मैं अक्‍सर हरिदेव जी से मिलने त्रिमूर्ति जाता था। चाय पिलाने के बाद, हरिदेव जी अपने बेश्‍कीमती दौलत को जो मोटी सुतली में चार बंडलों में बंधी होती थी। उसको बड़े फ्रर्ख के साथ दिखलाते थे। वो बतलाते थे कि उन्‍हें केरल, बंगाल, मणिपुर इत्‍यादि जाना है। वहाँ पर डॉक्‍टर साहब ने फलाने सन में जो भाषण दिया था उसकी अमुक सोशलिस्‍ट के पास कापी है या सोशलिस्‍ट पार्टी के स्‍थानीय सम्‍मेलन में जो रपट छपी है, उसको लाना है। वे बनजारे दीवाने की तरह पूरे मुल्‍क में जाकर, खतो किताबत करके ढूंढ़कर लाते थे।


*नौ भागों में छपा लोहिया रचनावली का पूरा साहित्‍य, डॉ॰ हरिदेव शर्मा ने सालों-साल लगाकर इकट्ठा किया था, उनकी तनख्‍वाह का काफी बड़ा हिस्‍सा इसमें ख़र्च हो जाता था। उनकी योजना थी कि लायब्रेरी से रिटायर्ड होकर वसंत कुंज के डॉ॰ राममनोहर लोहिया समता भवन में बैठकर रचनावली बनाने की।*
उनके पास लगभग 60 हज़ार निजी किताबों का संग्रह था। मैं जब उनके घर वसंत कुंज में जाता था, तो उनके घर बामुश्किल कोई जगह खाली होती थी, जहाँ किताबें अटी-पटी न हो, डूप्‍लैक्‍स के इस फ्लैट में सीढ़ी पर किताबें रखी हुई होती थी। बालकनी में उनके लोहे के दो बड़े ट्रंक रखे हुए थे, जिसमें उन्‍होंने सुतली में बंधी इस संपत्ति  को बहुत ही हिफाजत से रखा हुआ था।
डॉ॰ लोहिया के समस्‍त साहित्‍य तथा कागज़ पत्रों के संग्रह-संपादन का कार्य भी उन्‍होंने अपने हाथ में ले रखा था। लगभग तीन हज़ार पृष्‍ठों का साहित्‍य उन्‍होंने इकट्ठा किया था। 1939 तक के लेखन को इकट्ठा कर कम्‍प्‍यूटर में रखवा भी दिया था। उसका पहला खंड तैयार कर समता ट्रस्‍ट हैदराबाद में बदरी विशाल पित्ती जी को प्रकाशनार्थ भेज भी दिया था।
*आचार्य नरेन्‍द्र देव की जन्‍मशती पर आचार्य जी पर एक पुस्‍तक एक अंग्रेज़ी में और एक हिंदी में प्रकाशित करने की योजना बनी। मधुजी के निर्देशन और हरिदेव जी के अथक परिश्रम से दोनों पुस्‍तकें प्रकाशित हुई। बाद में आचार्य नरेन्‍द्र देव जी के अंग्रेज़ी लेखन को चार खंडों ‘कलेक्‍टेड वर्क्‍स ऑफ आचार्य नरेन्‍द्र देव’ का संपादन हरिदेव जी ने संपन्‍न किया।*
उनकी विद्वता एवं अचूक दृष्टि  का उदाहरण है कि वे न केवल शब्‍दों और नामों की वर्तनी की शुद्धता के प्रति अत्‍यधिक संवदेनशील थे बल्कि अल्‍पविराम, पूर्ण विराम, हाइफन आदि विराम चिह्नों के प्रति भी जागरूक थे।
*राजमोहन गांधी ने लिखा है कि “मैं उन सैकड़ों शोधार्थियों में हूँ जो उनके सुझावों से लाभान्वित हुए, कभी किसी उपयोगी पुस्‍तक के संबंध में या किसी समाचार पत्र में छपी सूचना अथवा पुस्तिका के संबंध में। ऐसा लगता है कि बीसवीं सदी की भारतीय राजनीति का कोई ऐसा दस्‍तावेज़ नहीं है जिसकी उन्‍हें जानकारी नहीं है। निस्‍संदेह बहुभाषा ज्ञान ने उनकी इस मामले में मदद की। हिंदी, पंजाबी और अंग्रेज़ी में महारथ के अलावा उन्‍हें उर्दू, मराठी और बंगाली की भी जानकारी थी …. हरिदेव जी ने मुझे बताया था कि जब वे बालक थे वे 1946-47 में कई बार मंदिर मार्ग स्थित भंगी कॉलोनी (अब वाल्‍मीकि कॉलोनी) में गांधी जी की प्रार्थना सभाओं में गए थे। यह बताते हुए उनकी आँखें भर आई कि बापू ने सिर पर हाथ रखकर उन्‍हें आशीर्वाद दिया था।* 
*मुझे भी एक बार हरिदेव जी अपने पिताजी की दुकान जो कि भंगी कॉलोनी के निकट गोल मार्केट में स्‍पोर्टस के सामान की थी, वहाँ लेकर गए थे।*
समाजवादी आंदोलन के दस्‍तावेज़ों के दो ग्रंथ (संपादक प्रो॰ विनोद प्रसाद सिंह एवं डॉ॰ सुनीलम) का कार्य मधुजी तथा हरिदेव जी के कारण संपन्‍न हो सका।भारत सरकार ने जयप्रकाश नारायण के समग्र साहित्‍य के संपादन और प्रकाशन का एक प्रोजेक्‍ट स्‍वीकार कर वह कार्य नेहरू मैमोरियल म्‍यूजियम लायब्रेरी को प्रो॰ विमलाप्रसाद के संपादन में सौंपा। प्रो॰ विमला प्रसाद ने हरिदेव जी से आग्रह किया कि वे संयुक्‍त संपादक बनें, उसके लिए प्रो॰ विमला प्रसाद ने हरिदेव जी को दस हज़ार रुपये हर महीने देने की पेशकश भी की, परंतु हरिदेव जी ने लेने से इंकार कर दिया। हरिदेव जी ने उसमें पूरी सहायता करी। उसका एक खंड तैयार हुआ।
नेहरू स्‍मारक संग्रहालय व पुस्‍तकालय का मौखिक इतिहास विभाग उन्‍हीं की देन है जिसमें लगभग 700 व्‍यक्तियों के दुर्लभ संस्‍मरण संकलित है। उन्‍होंने सैकड़ों स्‍वतंत्रता सेनानियों, समाजवादियों और अन्‍य दलों के नेताओं के साक्षात्‍कार लिए। अनेकों समाजवादी नेताओं के कागज़-पत्रों को इकट्ठा किया तथा माइक्रोफिल्मिंग तथा दीमक आदि से बचाकर रखने की व्‍यवस्‍था की।
*आज समाजवादी आंदोलन के नेताओं की पुस्‍तकों, रचनाओं, दस्‍तावेजों, पाण्‍डुलिपियां ऐतिहासिक चित्र जवाहरलाल नेहरू म्‍यूजियम एण्‍ड लायब्रेरी में माइक्रो फिल्‍म इत्‍यदि के रूप में सुरक्षित है, वह सब हरिदेव जी के कारण संभव हुआ है। जीवन संध्‍याकाल में हर नेता अपने दस्‍तावेज हरिदेव जी को सौंप देता था। समाजवादी आंदोलन से संबंधित जितनी पुस्‍तकें, साहित्‍य बना है, उसमें हरिदेव जी का धन्‍यवाद, आभार पढ़ने को मिलेगा।*
*डॉ॰ हरिदेव जी तो छात्र जीवन से ही सोशलिस्‍ट थे। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय से इतिहास में पीएच.डी. की सनद मिलने से पहले ही डॉ॰ लोहिया द्वारा संपादित पत्रिका ‘जन’ ‘मैनकाइड’ से जुड़ चुके थे तथा  डॉ॰ लोहिया के सचिव भी रह चुके थे। परंतु उनका स्‍वभाव, रुझान, राजनारायण जी की तरफ़ ज्‍़यादा था। अक्‍खड़ स्‍वभाव होने के कारण, हरिदवे जी की मधु जी  से कोई निकटता नहीं थी। जैसा कि मधुजी की पत्‍नी चम्‍पा लिमये ने भी लिखा है कि “हरिदेव जी पहले मधुजी को एक रुखा, कडूवाहट से भरा, अहंकारी इंसान समझते थे।”*राजनारायण जी के 95 साउथ एवेन्‍यू वाले घर में मेरी हरिदेवजी से पहचान हो गयी थी। मैं और हरिदेव जी दोनों दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में इतिहास के छात्र होने के कारण प्रो॰ रमा मित्रा के अलग-अलग समय में छात्र भी रह चुके थे। उनसे बातें करने में बड़ा मज़ा आता था।
मधुजी की दिल्‍ली में पहली पुस्‍तक ‘पोलिटिक्‍स ऑफटर फ्रीडम’ तैयार हो रही थी मैं मधु जी को लेकर जवाहरलाल नेहरू म्‍यूजियम लायब्रेरी गया था। मैंने हरिदेव जी के कमरे में जाकर कहा कि नीचे लायब्रेरी में मधुजी है, तो वो तुरंत नीचे लायब्रेरी में आए तथा उनसे इसरार किया कि आप मेरे कमरे में एक कप चाय पीले तथा जो भी पुस्‍तक आपको चाहिए मैं आपको लाकर दे दूँगा। मधुजी, हरिदेव जी के कमरे में गये, वहाँ उन्‍होंने कहा कि मुझे फलां-फलां किताब चाहिए, हरिदेव जी ने कहा कि मैं इंतज़ाम करके अपने नाम ईशू करवाकर आपको भिजवा दूँगा। इसके बाद मधुजी जब भी लायब्रेरी जाते तो हरिदेव जी खुद उनके लिए किताबें अथवा फोटोकापी करवा देते। किताब तैयार हो गई। उसका विमोचन, विट्ठल भाई, पटेल भवन के हाल में ज्ञानपीठ पुरस्‍कार  विजेता असमिया लेखक डॉ॰ वीरेन्‍द्र कुमार भट्टाचार्य के द्वारा तय हुआ । चौधरी चरणसिंह तथा कई अन्‍य गणमान्‍य लोगों के साथ-साथ, अनेक बुद्धिजीवी, पत्रकार, लेखक उसमें आए थे, उस भीड़ में हरिदेव जी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। मधुजी ने मुझसे पूछा कि हरिदेव जी नहीं दिख रहे क्‍या बात है? मैंने कहा कि मैं खुद जाकर त्रिमूर्ति में निमंत्रण पत्र देकर आया था। अगले दिन मधु जी ने कहा कि हरिदेव जी से मिलने चलना है। मैं और मधु जी दोनों, हरिदेव जी के कमरे में पहुँचे, मधुजी ने हरिदवे जी से पूछा कि कल आप दिखाई नहीं दिये क्‍या बात थी, हरिदेव जी ने बड़े रुखेपन से कहा कि जब मुझे निमंत्रण ही नहीं था, तो मैं कैसे आता? मधुजी ने तेज आवाज़ में मुझसे पूछा कि क्‍या तुमने निमंत्रण नहीं दिया, मैंने कहा मैं निमंत्रण पत्र देने आया था परंतु हरिदेव जी सीट पर नहीं थे, मैंने उसको उनकी निजी सचिव मैडम उषाप्रसाद को देकर कहा था कि आप याद से इसे डॉ॰ साहब को दे दें। हरिदेव जी ने तुरंत मैडम उषा प्रसाद को बुलवाया, जानकारी लेने पर मैडम उषा प्रसाद ने कहा कि निमंत्रण पत्र तो ये दे गए थे, परंतु वह फाइलों के बीच दबा रह गया, मैं डॉ॰ साहब को सूचित नहीं कर पायी। हरिदेव जी ने शर्मिन्‍दगी महसूस की। मुझे अलग से कहा कि कल शाम को तुम मुझे मधु जी के घर लेकर चलना अगले दिन मैं हरिदेव जी को मधु जी के घर पर लेकर गया। मधुजी की सादगी, प्रेम भरे व्‍यवहार को देखकर हरिदेव जी सदा के लिए मधुजी के होकर रह गए। मधुजी की अनेकों पुस्‍तकों, लेखों के संग्रह में डॉ॰ हरिदेव शर्मा जी तथा डॉ॰ मस्‍तराम कपूर ने सहायक के रूप में अपने को लगा दिया।
डॉ॰ मस्‍तकुमार कपूर, दिल्‍ली विधानसभा के सचिवालय में पी॰आर॰ओ॰ के पद पर कार्यरत थे। मैं उस समय मुख्‍य सचेतक था, दिल्‍ली सरकार की ओर से एक पत्रिका ‘दिल्‍ली’ के नाम से प्रकाशित होती थी। उसमें कपूर साहब का एक लेख डॉ॰ लोहिया पर प्रकाशित हुआ। उसको पढ़कर मेरा गरूर जाग उठा कि दिल्‍ली में यह कौन व्‍यक्ति है, जिसे मैं नहीं जानता। पता लगाने पर मालूम हुआ कि ये हमारे ही सचिवालय में पी॰आर॰ओ॰ है। मैंने इंटरकाम से संपर्क साधा तथा कहा कि मैं आपके पास आ रहा हूँ, उन्‍होंने कहा नहीं मैं ही मैं आपके दफ्तर आ रहा हूँ। बातचीत करने पर पता चला कि कपूर साहब तो लोहिया के दीवाने है, परंतु उनका, पार्टी या किसी नेता से कोई संपर्क नहीं था।
काल के क्रूर पंजे ने 14 अगस्‍त 2000 को हरिदेव जी को हमसे छीन लिया। डॉ॰ हरिदेव जी की असामयिक मृत्‍यु के बाद डॉ॰ मस्‍तराम कपूर डॉ॰ लोहिया का समस्‍त साहित्‍य हरिदेव जी के घर से ले आए।

डॉ॰ हरिदेव शर्मा जी से कपूर साहब का परिचय मैंने करवाया, संयोग से दोनों ही हिमाचली थे। डॉ॰ हरिदेव जी अनौपचारिक रूप से पंजाबी में गप-शप करते थे।
मधु जी (मधुलिमये) को एक सक्षम हिंदी टाइपिस्‍ट की बेहद ज़रूरत थी मैंने कपूर साहब से कहा कि किसी हिंदी टाइपिस्‍ट का इंतज़ाम करना है, उन्‍होंने कहा कि सचिवालय में एक बहुत ही एक्‍सपर्ट टाइपिस्‍ट है, वह पार्टटाइम भी काम करता है, मैं कल बात करके आपको बतलाऊंगा। अगले दिन उन्‍होंने बताया कि आज शाम को आप उसे, मधुजी के पास ले जाना, मैंने कहा कि कपूर साहब आपको भी चलना है, मधुजी से भेंट करवाऊंगा। शाम को मैं कपूर साहब, टाइपिस्‍ट तीनों मधु जी के पंडारा रोड़ के घर पहुँच गए। मधु जी ने तभी कुछ टाइप करने के लिए दिया और खुश होकर कहा कि आज से ही तुम्‍हें कार्य करना है।
कपूर साहब के साथ मधु जी की ऐसी ताल बैठी कि कपूर साहब मधु जी के होकर रह गए।
मधुजी की किताबों, लेखों में कपूर साहब, पूरी शिद्दत के साथ कार्य करने लगे। ऐसे संबंध बने कि मधु जी कई बार आग्रह करके हरिदेव जी, डॉ॰ मस्‍तराम कपूर उनकी पत्नियों को हुक्‍म देकर किसी दक्षिण भारतीय रेस्‍टोरेंट में ले जाकर जलपान करवाते थे।
डॉ॰ मस्‍तराम कपूर जो अपने आप में एक बड़े साहित्‍यकार थे, उनकी अनेक पुस्‍तकें बाल साहित्‍य, कविता, कहानी, उपन्‍यास के रूप में छप चुकी थी, हिंदी-अंग्रेज़ी भाषा में उनको महारथ हासिल थी। मिजाज और रहन-सहन में वो बेहद सादगी पसंद तथा बाहरी दिखावे से परहेज रखने वाले मृदुभाषी इंसान थे। दिल्‍ली सरकार में एक गजेटिड आफिसर के रूप में उनको लक्ष्‍मी नगर दक्षिण दिल्‍ली में एक बड़ा सरकारी घर मिला हुआ था। उनके रिटायर्डमेंट के दो बाल बचे थे, एक दिन उन्‍होंने मुझे सूचना दी कि मैंने डी॰डी॰ए॰ से एक क्‍वार्टर ख़रीद लिया है। मैंने उनसे जब पूछा कि कि किस जगह तो उन्‍होंने बतलाया त्रिलोकपुरी डी॰डी ए॰ स्‍कीम में। डी॰डी॰ए॰को इस स्‍कीम में कोई खरीदार नहीं आ रहा था क्‍योंकि एक तो वह यमुनापार की (झुग्‍गी झोंपड़ी) पुनर्वास बस्‍ती के बीच थी, दूसरे वहाँ जाने के लिए कई घंटों में, दो-तीन बसे बदलकर पहुँचा जा सकता था। डी॰डी幜॰ए॰ ने एक इश्तिहार निकाला, कि पैसा जमा करवाओ हाथ के हाथ चाभी ले जाओ। कपूर साहब ने बिना यह पता लगाए कि वह कहाँ पर है अपने रिटायर्डमेंट के फंड से शायद 25 हज़ार रुपये डी॰डी॰ए॰ में जमा करवाए और चाभी लेकर आए। कुछ ही दिनों के बाद उन्‍होंने मुझसे कहा कि राजकुमार जी मैं सरकारी घर छोड़कर त्रिलोकपुरी जाकर रहने वाला हूँ, मैंने कहा कि अभी आपकी दो साल की सर्विस है, उसके बाद भी छह माह तक आप उसमें रह सकते है, जहाँ आप  जा रहे है वहाँ कोई सुविधा नहीं है, क्‍वार्टर भी खाली पड़े है। परंतु कपूर साहब सरकारी बड़े मकान को छोड़कर अपने घर में रहने चले आए।  
जमना नदी पर पुल बनने तथा सोसायटी के हज़ारों की तादाद में फ्लैट बनने तथा त्रिलोकपुरी स्‍कीम की जगह मयूर विहार नामकरण होने मैट्रो के पहुँचने के कारण अब वह एक संभ्रांत इलाका बन गया है।
हरिदेव जी के घर से लोहिया साहित्‍य को लाकर कपूर साहब ने अपने घर के एक छोटे कमरे में अपने आपको कै़द कर खपा दिया, सारे साहित्‍य को पढ़कर विषयानुसार वर्गीकरण,उनके शीर्षक तथा संपादकीय टिप्‍पणी के साथ डॉ॰ लोहिया की अनेकों अंग्रेज़ी में लिखित लेखों, पुस्तिकाओं का हिंदी में अनुवाद कर, विषय के जानकारों से सलाह-मश्‍वरहा कर नौ भागों में हिंदी तथा अंग्रेज़ी में राममनोहर  लोहिया रचनावली का निर्माण कर छपवाने का कार्य कर दिया।
कपूर साहब को समाजवादी साहित्‍य के प्रचार-प्रसार की बेहद लगन लगी रहती थी। इसके लिए उन्‍होंने ‘समाजवादी साहित्‍य न्‍यास ट्रस्‍ट’ बनाया जिसका अध्‍यक्ष मरहूम कमल मौरारका तथा सचिव मुझे, कोषाध्‍यक्ष रविन्‍द्र मनचंदा, प्रो॰ आनन्‍द कुमार, मदनलाल हिंद, डॉ॰ हरीश खन्‍ना  इत्‍यादि ट्रस्‍टी बनाए गए।
मुझे ऐसा लगता है कि बदरी विशाल पित्ती जी, डॉ॰ हरिदेव शर्मा तथा डॉ॰ मस्‍तराम कपूर की लोहिया के प्रति जो दिवानगी थी, उस गुरु भक्ति को चुकाने का काम इन तीनों ने हर प्रकार की दुश्‍वारियों को झेलते हुए निभाया।
कई बार मैं मधुजी से मज़ाक में कहता था कि आप मुझे नंबर दो या नहीं, परंतु इन दोनों हीरों को मैंने ही आपके पास पहुँचाया है।

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