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आजादी की लड़ाई के मूल्यों से संघ-भाजपा का विश्वासघात

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लाल बहादुर सिंह 

वैसे तो हमारी आजादी मूलतः बीसवीं सदी में चले स्वतंत्रता आंदोलन का परिणाम थी। लेकिन 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हमारी आजादी की लड़ाई के इतिहास में महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसने जहां भविष्य के संग्राम के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता के महत्व को स्थापित किया, वहीं किसी बड़े बदलाव में भारत के किसानों की मुख्य भूमिका को रेखांकित किया।

परवर्ती काल में अंग्रेजों ने हिंदू मुस्लिम एकता को तोड़ने और हमारी गंगा-जमनी तहजीब को तबाह करने में पूरी ताकत लगा दी, जिसमें उन्हें हर तरह की सांप्रदायिक ताकतों का भरपूर सहयोग मिला।

1857 से देशभक्तों और अंग्रेजों ने जो अलग-अलग सबक लिए, उन्हीं दो धाराओं के संघर्ष से हमारी आजादी की लड़ाई का गतिपथ तय हुआ। अंततः विभाजन के साथ एक रक्तरंजित आजादी 15अगस्त 1947 को हमें हासिल हुई।

आज़ाद भारत ने धर्म आधारित इस्लामिक राष्ट्र पाकिस्तान के बरक्स एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में अपनी यात्रा शुरू की। हालांकि इस संकल्प की कीमत देश ने एक सांप्रदायिक कट्टरपंथी तत्व के हाथों अपने सर्वोच्च नेता की जान देकर चुकाई।

बहरहाल, आजादी की लड़ाई के महान मूल्यों को मूर्त रूप देते हुए आजाद भारत का संविधान अंगीकार किया गया, जिसके प्रस्तावना (Preamble) में उसका सारतत्व निहित है। बीच-बीच में कुछ अस्थाई उतार चढ़ावों (जिनमें आपातकाल शामिल है) के बावजूद देश मोटे तौर पर संवैधानिक लोकतंत्र के रास्ते पर चलता रहा।

लेकिन पिछले दस वर्ष से देश में एक ऐसी सरकार राज कर रही है, जिसने बुनियादी संवैधानिक मूल्यों को व्यवहारतः पलटने की हर मुमकिन कोशिश की है। दरअसल यह वही धारा है, जिसने कभी आजादी की लड़ाई में भाग नहीं लिया, बल्कि अंग्रेजों और अन्य सांप्रदायिक तत्वों के साथ मिलकर उसे भटकाने की कोशिश करती रही। वे लोग आज सत्ता में आने के बाद आजादी की लड़ाई के महान मूल्यों से विश्वासघात पर आमादा हैं।

खबरें आ रही हैं कि संविधान की प्रस्तावना स्कूलों में अब नहीं पढ़ाया जाएगा। जाहिर है यह कोशिश है कि आजादी की लड़ाई के मूल्य जो सार रूप में संविधान के प्रस्तावना में दिए गए हैं, उनसे नई पीढ़ी परिचित ही नहीं होने पाए। इतिहास की किताबें बदली जा रही हैं। आने वाली पीढ़ियां न आजादी का इतिहास जान पाएंगी न उसके महान मूल्यों से परिचित हो पाएंगी।

मोदी राज में आजादी की लड़ाई के सारे मूल्य-राष्ट्रीय एकता, संप्रभुता, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय-आज तार-तार हो चुके हैं। मोदी सरकार ने राष्ट्रीय एकता को खंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दरअसल राष्ट्रीय एकता की जो बुनियाद है, बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों के साथ इंसाफ-वह ही मोदी राज में गायब है।

धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के लिए देश आज एक यातनागृह बन गया है। संविधान बदले बिना ही व्यवहार में उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। CAA जैसे कानून के माध्यम से नागरिकता को धर्म से जोड़कर, सिद्धांतत: भी इसका रास्ता खोल दिया गया है।

हिंदुत्व की विभाजनकारी विचारधारा आज राष्ट्रीय विखंडन का सबसे बड़ा स्रोत है। मणिपुर के साथ मोदी सरकार ने ऐसा बर्ताव किया जैसे वह देश का हिस्सा ही न हो। भाजपा सरकार की नीतियों और कदमों से पैदा एथनिक हिंसा की आग में मणिपुर जलता रहा। सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों बे-घरबार होकर शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हो गए, लेकिन मोदी ने उसके मुख्य खलनायक मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को पद से हटाया तक नहीं।

पीड़ितों के जख्म पर मरहम लगाने के लिए मोदी ने एक बार भी वहां का दौरा तक नहीं किया। इससे कितनी गहरी अलगाव की भावना उस संवेदनशील सीमावर्ती राज्य में जन्म ले रही होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है। यह राष्ट्रीय एकता के साथ खिलवाड़ नहीं तो क्या है?

ठीक इसी तरह जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा ही खत्म कर दिया गया। वहां की जनता और चुने प्रतिनिधियों की राय लिए बिना न सिर्फ धारा 370 हटा ली गई, बल्कि राज्य का दर्जा छीनकर और राज्य को तोड़कर दो केंद्रशासित प्रदेश बना दिए गए। यह कहना कि धारा 370 के कारण कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं बन पाया था, असत्य और अनैतिहासिक है और घोड़े के आगे गाड़ी लगाने जैसी उलटबांसी है।

सच्चाई यह है कि धारा 370 ही भारतीय राज्य और कश्मीर के बीच पुल थी। बहरहाल धारा 370 हटाकर जिस आतंकवाद को खत्म करने का दावा किया गया, वह आज हमारे न जाने कितने सैनिकों और नागरिकों की आए दिन जान ले रहा है। जाहिरा तौर पर मोदी सरकार की नीतियों ने राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को गंभीर क्षति पहुंचाई है।

दलगत आधार पर राज्य सरकारों के साथ भेदभाव करते हुए कोऑपरेटिव फेडरलिज्म के नाम पर कोअर्सिव यूनिटरी शासन उन्होंने देश पर थोप दिया है। ताजा बजट में मोदी सरकार की बैसाखी बने राज्यों के लिए विशेष कृपा और अन्य राज्यों की घोर उपेक्षा इसका ताजा उदाहरण है। पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों को मनरेगा तक का पैसा नहीं दिया जा रहा है।

बहुसंख्यकवादी सामाजिक-सांस्कृतिक तथा राजनीतिक वर्चस्व कायम करके धर्मनिरपेक्षता को तो राष्ट्रीय विमर्श से ही बाहर कर दिया गया है। समाजवाद की तरह ही धर्मनिरपेक्षता शब्द को ही अछूत बना दिया गया है। नई संसद में प्रवेश करते समय सांसदों को संविधान की जो प्रति दी गई, उसमें ये दोनों शब्द गायब थे!

कहा गया कि 1950 वाले मूल संविधान की यह प्रति थी। जनता पार्टी सरकार, जिसमें भाजपा का पुराना अवतार जनसंघ भी शामिल था, जब केंद्र में बनी, तो आपातकाल में किए गए तमाम बदलाव वापस लिए गए थे। लेकिन इन दोनों शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में बदस्तूर कायम रखा गया था।

आज तक कोई सरकार इन शब्दों को संविधान से खारिज करने का साहस नहीं कर सकी। इसकी सीधी वजह यह है कि देश में व्यापक जनमत तथा सामाजिक संतुलन इन बुनियादी अवधारणाओं पर कायम रहने के पक्ष में है। संविधान की रक्षा का सवाल मौजूदा चुनाव में भी बेहद संवेदनशील मुद्दा बनकर उभरा, जिसने भाजपा को बहुमत के नीचे ला दिया।

सवाल यह है कि संघ भाजपा अगर संविधान में बदलाव करना चाहते हैं तो खुलकर जनता के बीच इसे कहने का साहस दिखाएं। लेकिन चोरी से यह करना राजनीतिक बेईमानी और संविधान के खिलाफ अपराध है। उससे बढ़कर यह कि सिद्धांततः बदले बिना ही वे व्यवहार में संविधान की मूल आत्मा की हत्या कर रहे है!

जहां तक समता के लक्ष्य की बात है, तो मोदी के दस साल के शासन का नतीजा यह है कि भारत आज बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में दुनियां में सर्वाधिक गैर बराबरी वाला समाज बन गया है। आज हालत यह है कि देश के 1% सुपररिच तबकों का देश की 22.5% आय तथा 40.1% संपत्ति पर कब्जा है।

भारत, ब्राजील, द अफ्रीका, अमेरिका से भी ज्यादा गैर बराबरी वाला समाज बन गया है। हालात अंग्रेजों के राज से भी बदतर हैं। हमारी राष्ट्रीय संपदा और संसाधनों को जिस पैमाने पर पिछले दस सालों में चहेते कारपोरेट घरानों को सौंपा गया है, वह अकल्पनीय है।

हमे थामस पिकेटी की इस चेतावनी को ध्यान में रखना चाहिए, “यह देखने की बात है कि इतनी भयावह गैर बराबरी भारत किसी सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल के बिना कब तक बर्दाश्त कर सकता है।” इस असाधारण गैर बराबरी के बावजूद सरकार कॉरपोरेट घरानों और सुपररिच तबकों पर संपत्ति कर तथा उत्तराधिकार कर लगाने को तैयार नहीं है, जिसके लिए पिकेटी से लेकर प्रो. प्रभात पटनायक तक बारंबार सुझाव दे रहे हैं।

सामाजिक अन्याय और विषमता का ही दूसरा आयाम यह है कि देश में नीति निर्णय के तमाम पदों, ज्यूडिशियरी, मीडिया, निजी क्षेत्र के उच्च पदों से हाशिए के तबकों के लोग गायब हैं। लेकिन मोदी सरकार जाति जनगणना तक करवाने को तैयार नहीं है जिससे सच्चाई सामने आ सके।

वैश्विक वित्तीय पूंजी के इशारे पर देशी-विदेशी कॉरपोरेट घरानों के हित में आर्थिक नीतियों को तय करते हुए मोदी सरकार ने भारतीय राष्ट्र-राज्य की आर्थिक संप्रभुता को तिलांजलि दे दिया है। उन्हीं धन कुबेरों के हित में सरकार तीन किसान विरोधी कानून ले आई थी, जिसे किसानों ने अकूत बलिदान देकर अपने ऐतिहासिक आंदोलन के बल पर वापस लेने को मजबूर कर दिया।

प्रोफेसर प्रभात पटनायक ने भारत में बेरोजगारी की गंभीर समस्या के समाधान के लिए सरकार को सुझाव दिया कि बड़े पैमाने पर सरकारी खर्च/ सार्वजनिक निवेश बढ़ाये और ऐसा करने में हमारी संप्रभु सरकार को वैश्विक वित्तीय पूंजी और देशी कारपोरेट घरानों द्वारा वित्तीय घाटे पर लगाई बंदिश की बिल्कुल परवाह नहीं करनी चाहिए और ऐसे किसी डिक्टेट को मानने से इंकार कर देना चाहिए।

लेकिन वैश्विक वित्तीय पूंजी के आगे अपनी आर्थिक संप्रभुता को गिरवी रख चुकी मोदी सरकार के पास ऐसा कदम उठाने का साहस नहीं है।

लोकतंत्र की जो न्यूनतम शर्त है बोलने की आजादी, उसे ही मोदी राज में कुचल दिया गया है। तमाम असहमत एक्टिविस्ट और बुद्धिजीवी, कलाकार, पत्रकार, राजनेता जेलों में हैं या बेल पर हैं। नए सिरे से राहुल गांधी, तेजस्वी यादव समेत तमाम नेताओं तथा अरुंधती राय जैसे सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी बुद्धिजीवियों के सर पर गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है।

हर तरह के लोकतांत्रिक आंदोलन पर बर्बर दमन जारी है। सारी संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता का अपहरण कर लिया गया है और सत्ता के लिए उनका दुरुपयोग किया जा रहा है, यहां तक कि संसद में निर्वाचित प्रतिनिधियों तक की आवाज को भी बहुमत के बल पर दबाया जा रहा है। हिंडनबर्ग रिपोर्ट के खुलासे से साफ है कि कैसे सेबी जो शेयर मार्केट की रेगुलेटर और अंपायर है, उसकी प्रमुख खुद ही अडानी के घोटाले में शामिल थीं।

समग्रता में आज हमारी आजादी की लड़ाई के सारे मूल्य दांव पर हैं। संघ-भाजपा ने आजादी की लड़ाई के महान मूल्यों के साथ विश्वासघात किया है।

इस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हर देशभक्त को इन मूल्यों की रक्षा का संकल्प लेना होगा। यही स्वतंत्रता आंदोलन के वीर शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सच्ची श्रद्धांजलि होगी!

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