अग्नि आलोक

इमरजेंसी मे माफीनामे लिखते-लिखते घिस गयी थी संघियों की कलम

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महेंद्र मिश्र

(बीजेपी ने इमरजेंसी को बड़ा मुद्दा बनाया हुआ है। नवगठित लोकसभा में स्पीकर ओम बिड़ला ने पहला काम जो किया वह इमरजेंसी के खिलाफ प्रस्ताव पढ़ने का था। और इसमें उन्होंने 25 जून के दिन को काला दिवस घोषित करने तक की बात कही। सदन के नेता पीएम मोदी ने भी उनकी इस बात का समर्थन किया। दिलचस्प बात यह है कि इस इमरजेंसी के दौरान इन दोनों नेताओं के अपने संगठन आरएसएस और उसके तबके मुखिया बाला साहेब देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कई पत्र लिखे थे। जिनमें कुछ पीएम गांधी को सीधे लिखे गए थे। और कुछ उस समय अनुशासन पर्व का नाम देकर इमरजेंसी का समर्थन करने वाले विनोबा भावे के नाम थे। आपको बता दें कि स्पीकर बिड़ला और मोदी दोनों गणवेशधारी हैं।

यानि संघ की शाखा से निकले हैं। मोदी तो बाकायदा संघ के प्रचारक रहे हैं। इमरजेंसी के खिलाफ लड़ाई लड़ने की जिन दिनों की ये बातें कर रहे हैं उसकी सच्चाई यह है कि इनका पितृ संगठन आरएसएस लगातार इंदिरा गांधी को खत लिख रहा था और संगठन पर लगे प्रतिबंध को हटाने की पूर्व शर्त के बतौर माफी मांग रहा था। जनचौक को ये सारे पत्र बाला साहेब देवरस की “हिंदू संगठन और सत्तावादी राजनीति” के शीर्षक के नाम से नोएडा स्थित जागृति प्रकाशन से प्रकाशित एक किताब के जरिये मिले हैं। 1997 में प्रकाशित इस किताब की परिशिष्ट में इन सारे पत्रों को हूबहू प्रकाशित किया गया है। लिहाजा जनचौक इन पत्रों पर आधारित लेखों की एक श्रृंखला शुरू कर रहा है जिसमें नियमित पर तौर पर एक लेख दिए जाएंगे। पेश है श्रृंखला का पहला लेख-संपादक)

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन मुखिया बाला साहेब देवरस की इमरजेंसी के दौरान गिरफ्तारी के अभी दो महीने भी नहीं बीते थे कि उन्होंने तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी को पत्र लिखना शुरू कर दिया था। उन्होंने पहला पत्र पुणे की यरवदा जेल से 22 अगस्त, 1975 को लिखा था। जिसमें उन्होंने इंदिरा गांधी को पंत प्रधान के नाम से संबोधित किया है। अपने पहले वाक्य की शुरुआत ही उन्होंने इंदिरा गांधी की तारीफ से की है। जिसमें उन्होंने लिखा है कि “दि० १५ अगस्त, १९७५ को दिल्ली के लाल किले से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए जो भाषण आपने किया, उसे मैंने आकाशवाणी से, वहीं कारागृह में गौर से सुना। आपका भाषण समयोचित एवं संतुलित हुआ और इसलिये यह पत्र लिखने को मैं प्रवृत्त हुआ हूं”

पत्र में आगे अपनी गिरफ्तारी और फिर जेल जाने से लेकर 4 जुलाई, 75 को संघ पर लगाए गए प्रतिबंध का जिक्र है। पूरे पत्र में संघ पर लगाए गए प्रतिबंध को लेकर चिंता जताई गयी है। और हर तरीके से उसको लेकर सफाई पेश करने की कोशिश की गयी है।
इसकी एक शुरुआती बानगी देखिए, “संघ पर प्रतिबन्ध लगाने का निश्चित कौन-सा कारण है, इसका ठीक से आकलन प्रतिबन्ध के आदेश में नहीं होता। देश की आन्तरिक सुरक्षा, सार्वजनिक शान्तता एवं व्यवस्था को खतरा पहुँचे, ऐसा कोई भी काम कभी भी रा० स्व० संघ ने नहीं किया है।

अखिल हिन्दू समाज को एकरस, स्वत्वपूर्ण एवं संगठित करना, यह संघ का हेतु है। समाज में अनुशासन का निर्माण हो, ऐसा भी संघ का प्रयत्न है। उसी के अनुरूप वैचारिक मार्गदर्शन संघ में किया जाता है। साथ ही उसी के लिये उपयुक्त ऐसी कार्यपद्धति का अवलम्ब किया गया है। अतः सार्वजनिक शान्तता, व्यवस्था व अंतर्गत सुरक्षा को बाधा पहुँचाने जैसी कोई बात संघ में नहीं है”।

इस दौर में जबकि संघ हिंसा का पर्याय बन गया है। अनगिनत दंगों से लेकर लिंचिंग तक के दाग उसके दामन पर हैं। और इसी तरह के आरोप उस समय भी संघ पर लगते रहे थे। लेकिन देवरस कितने साफ तरीके से उससे बचने की कोशिश कर रहे हैं। पत्र को पढ़कर बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। पत्र में एक जगह वह लिखते हैं, “संघ पर कुछ लोग, कभी-कभी आरोप करते हैं। उन सभी आरोपों का खण्डन करना इस पत्र में सम्भव नहीं। फिर भी यह स्पष्ट करना तो आवश्यक है कि संघ ने कभी भी हिंसाचार (वायलेन्स) किया नहीं। न ही वैसी सीख संघ ने कभी किसी को दी है। संघ ऐसी बातों में विश्वास नहीं करता।

संघ के स्वयंसेवकों ने तोड़-फोड़, हिंसा एवं अत्याचारपूर्ण काम किए, ऐसा पिछले ५० वर्षों में एक भी उदाहरण देखने को नहीं मिला। देश में दंगा-फसाद, इसकी अनेक घटनायें हुई। किन्तु उनमें स्वयंसेवकों का हाथ था, ऐसा किसी भी न्यायालय के निर्णय से अथवा सरकार द्वारा नियुक्त किसी आयोग की रिपोर्ट से प्रतीत नहीं होता। कारण स्पष्ट है कि संघ ने कभी ऐसा कृत्य नहीं किया। इस प्रकार की संघ की भूमिका या सीख नहीं है।” 

इसको और ठोस करते हुए उन्होंने बिहार में ललित नारायण मिश्र और दिल्ली में महात्मा गांधी की हत्या का हवाला दिया। गांधी जी की हत्या गोडसे ने की थी और गोडसे को संघ के लोग किस तरह से पूजते हैं यह बात किसी से छुपी नहीं है। यहां तक कि जिस सरदार पटेल को संघ-बीजेपी के लोग अपने करीब समझते हैं खुद उन्होंने कहा था कि गांधी जी की हत्या संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों द्वारा देश में फैलाए गए सांप्रदायिक घृणा और नफरत का नतीजा था। 

लेकिन देवरस संघ को इससे बरी करते दिखते हैं, “फिर भी संघ के सम्बन्ध में दूषित पूर्वाग्रह होने से कुछ लोग संघ पर मिथ्या आरोप लगाते हैं। उदाहरणरूप स्व० तलितनारायण मिश्र जी की हत्या में संघ का सम्बन्ध बताने का प्रयास कुछ लोगों ने जल्दबाजी में किया। अब तो जाँच-पड़ताल के बाद वह स्पष्ट हो गया है कि, इस घटना से संघ का कतई सम्वन्ध नहीं है। गाँधी जी की हत्या से भी संघ का सम्बन्ध जोड़ने का मिव्या प्रयत्न, अभी भी कुछ लोग करते हैं। वस्तुतः इस घटना से संघ का किचित्मात्र भी सम्बन्ध नहीं था, यह साबित हो चुका है। इसलिये उसके सम्बन्ध में इस पत्र में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है।”

और हद तो तब हो गयी जब उन्होंने इस पत्र के जरिये दामन पर लगे सांप्रदायिकता के आरोपों से भी खुद को मुक्त कर लेने की कोशिश की। जबकि मौजूदा दौर की सच्चाई यह है कि संघ-बीजेपी के लोग इसे अपने तमगे के तौर पर देखते हैं। उन्होंने पत्र में लिखा कि “संघ के सभी पदाधिकारी समाज के प्रतिष्ठाप्राप्त नागरिक हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर सांप्रदायिकता का आरोप करने वाले भी कुछ लोग हैं। पर उनका यह आरोप भी निराधार है”।

उनके द्वारा बोला गया यह सफेद झूठ उस समय और पुख्ता हो जाता है जब देवरस साहब खुद को केवल हिंदुओं का संगठन बताते हैं और दूसरे धर्मों का सम्मान करने की बात करते हैं। इस देश में मुस्लिम विरोधी घृणा अभियान का नेतृत्व करने वाला संगठन अगर खुद को उनका हितैषी बताने लगे तो समझा जा सकता है कि श्रृंगाल ने रंग की कितनी मोटी परत ओढ़ रखी है। और उसका दोहरापन इतना गहरा है कि वह जमीन और आसमान के बीच की दूरी को भी बेमानी कर दे।

पत्र में वह कहते हैं कि “युद्यपि संघ का कार्यक्षेत्र संप्रति केवल हिन्दू समाज तक ही सीमित है, फिर भी किसी अहिन्दू के खिलाफ कुछ भी, संघ में सिखाया नहीं जाता। संघ में मुसलमानों का द्वेष करना सिखाया जाता है, यह कहना भी सर्वथा असत्य है। इस्लाम धर्म, मोहम्मद पैगम्बर, कुरान तथा ईसाई धर्म, ईसा मसीह, बाइबिल इनके सम्बन्ध में संघ में अनुचित शब्द का भी प्रयोग नहीं होता। इतना ही नहीं बल्कि ‘सर्वधर्मसमभाव’ याने ‘एकं सदूविप्राः बहुधा बदन्ति’ यह जो हिन्दुओं की विशेषता है, इसी को संघ सर्वोपरि मानता है। मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अन्यान्य धर्मी लोगों से संघ के अनेक स्वयंसेवकों के अच्छे, आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध हैं”।

अपनी तमाम सफाइयां पेश करने के बाद फिर वह तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी की तारीफों में लग जाते हैं। वह कहते हैं कि “वनवासियों, पददलितों एवं गरीबों सहित सारे समाज की स्थिति सुधारने का कार्य तुरन्त होने जैसा नहीं है। यह मार्ग प्रदीर्घ, त्यागपूर्ण एवं कंटकाकीर्ण है। इस कार्य को करने के लिये अनेक के सहयोग की आवश्यकता है। “समाज की सच्ची शक्तियों अपने-अपने क्षेत्र में, इस कार्य में नेकी से लग जानी चाहिए ऐसा जो आपने अपने १५ अगस्त के भाषण में सारे समाज को आह्वान किया वह समयोचित ही था”।

और फिर वह अपने असली मकसद पर आते हैं जिसके लिए उन्होंने यह पत्र लिखा है। पत्र के आखिर में इशारे में ही सही वह संघ का इन कार्यों में उपयोग करने का उनको प्रस्ताव देते हैं। जिसमें वह कहते हैं कि  “रा० स्व० संघ का कार्य समूचे भारत में सब दूर फैला हुआ है, उसमें समाज के सभी वर्गों, स्तरों के लोग हैं। अनेक त्यागी कार्यकर्ता संघ में हैं। संघ का सारा कार्य निस्वार्थ भावना पर आधारित है। संघ की ऐसी शक्ति का योजनापूर्वक उपयोग देश के उत्थान के लिए होना जरूरी है”।

और फिर आखिर में इस पत्र के लिखे जाने के मकसद का खुलासा होता है। जिसमें वह अपनी मंशा को छुपाने की भी कोशिश नहीं करते हैं। वह खुले तौर पर संघ से प्रतिबंध हटाने की मांग करते हैं। और इसके जरिये सभी स्वयंसेवकों की वह रिहाई चाहते हैं। और इस कड़ी में इंदिरा गांधी से मिलने तक का प्रस्ताव करते हैं। पत्र के आखिर में उन्होंने लिखा है कि “संघ के सम्बन्ध में पूर्वाग्रह छोड़कर आप विचार करें, ऐसी प्रार्थना है। प्रजातंत्रीय देशों में संगठन स्वातंत्र्य का जो मूलभूत अधिकार होता है, उनको ध्यान में लेकर रा. स्व. संघ पर जो प्रतिबंध है, उसे हटाएं, ऐसा मेरा आपसे निवेदन है। आपको उचित जान पड़े, तो आपसे मिलने में मुझे आनंद ही होगा”।

(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)जनचौक से साभार

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