श्याम मीरा सिंह
क्या आपने कभी सुना है एक पुलिस अधिकारी के ट्रांसफर के लिए जेल के कैदी भूख हड़ताल रख रहे हों, 6-6 दिन भूखे रह रहे हों! अपनी नसें काट लीं हों?
बहुत कम लोग जानते होंगे कि 2002 से 2003 के बीच संजीव भट्ट साबरमती जेल में तैनात थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी से अनबन के कारण साबरमती जेल से संजीव भट्ट का तबादला कर दिया गया। सरकार के इस फैसले के विरोध में जेल के लगभग 2000 कैदियों ने अगले 6 दिनों तक भूख हड़ताल की। उनमें से 6 कैदियों ने तो अपनी नसें भी काट लीं थीं।
ये सीन प्रेम कहानियों का तो हो सकता है लेकिन एक पुलिस अधिकारी के लिए कैदियों द्वारा नसें काटना ? कोई थ्रिलर मूवी जैसा लगता है न!!
संजीव भट्ट उन कैदियों के प्रेमी तो लगते नहीं थे? न ही उनके संगी-संबंधी। फिर साबरमती जेल के कैदियों को पुलिस अधिकारी संजीव भट्ट से इतना लगाव क्यों था?
इसके पीछे का कारण भी सुन लीजिए..संजीव भट्ट के समय जेल में प्रशासन व्यवस्था, खान-पान, साफ-सफाई,कानून व्यवस्था एकदम दुरस्त थी। संजीव भट्ट का व्यवहार इतना मानवीय था कि कैदी उन्हें वहां से जाने ही नहीं देना चाहते थे।
अब सोचने वाली बात है कि उसी ईमानदार पुलिस अफसर को एक कैदी को टॉर्चर करने के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाई जा रही है!
क्या इसे पचाना थोड़ा मुश्किल नहीं है ?
इसे समझने के लिए वक्त के पुराने पर्दे गिराने होंगे। दरअसल जिस केस में 30 साल बाद संजीव भट्ट को सजा सुनाई गई है उस केस में 25 साल पहले यानी 1995 में सीआईडी की जांच में संजीव निर्दोष पाए गए थे। जिसके बाद इस मुकदमें में आगे की सुनवाई पर गुजरात हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। 1995 से 2011 तक ये केस नेपथ्य में ही पड़ा हुआ था।
लेकिन 2011 में जैसे ही आईपीएस संजीव भट्ट ने गुजरात दंगों से संबंधित मामलों में नरेंद्र मोदी की भूमिका पर अदालत में हलफनामा सौंपा, उसी शाम संजीव को सबक सिखाने के लिए गुजरात सरकार ने 21 साल पुराने इस केस को दोबारा से बाहर निकाल लिया। हलफनामें के अनुसार गोधरा कांड के बाद नरेंद्र मोदी के आवास पर एक बैठक हुई थी जिसमें संजीव भट्ट भी शामिल थे। नरेन्द्र मोदी ने हिंदुओं को मुसलमानों को सबक सिखाने के लिए छूट देने की बात कही थी। साफ है गुजरात दंगों में नरेंद्र मोदी का हाथ होने की बात संजीवभट्ट ने अदालत में कही। इसके बाद ही संजीव भट्ट नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नजरों में चढ़ गए।
नतीजा आपके सामने है। उसी मीटिंग में गुजरात के तत्कालीन गृहमंत्री तुलसीराम प्रजापति भी मौजूद थे उन्होंने भी नरेंद्र मोदी द्वारा “मुसलमानों से बदला लेने के लिए हिंदुओं को छूट देने की बात स्वीकार की थी। हम सबको पता है उसके बाद तुलसीदास प्रजापति की हत्या कर दी गई थी।
इससे पहले गुजरात दंगों के मामलों जांच करने वाले जस्टिस लोया, सहाबुद्दीन की हत्या हो ही चुकी है।
केवल एक बात पर गौर करिए कि जिस एक ईमानदार पुलिस अधिकारी के लिए जेल के हजारों कैदी भूखहड़ताल पर चले जा रहे हों उसे एक कैदी को टॉर्चर करने के लिए उम्रकैद की सजा दी जा रही है। आपको बता दूं कि गुजरात में 1995 से लेकर 2012 तक पुलिस कस्टडी में 180 कैदियों की मौत हो चुकी है। लेकिन संजीवभट्ट पहले ऐसे पुलिस अधिकारी हैं जिन्हें सजा दी जा रही है वह भी छोटी मोटी नहीं उम्रकैद की..
बाकी का खेल आप समझते रहिए। गुत्थियों को सुलझाते रहिए। ज्यादा नहीं लिख सकता.. सरकार कभी भी उठा सकती है।
गुजरात दंगों में CM नरेंद्र मोदी पर उठाए थे सवाल
संजीव भट्ट एक जमाने में गुजरात कैडर के तेजतर्रार और चर्चित आईपीएस अधिकारी थे. पिछले साल नवंबर में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था. तब से वो जेल में बताए जा रहे हैं. असल में वो तब ज्यादा सुर्खियों में आए थे जबकि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में हलफ़नामा दायर किया था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस गलत पाया था.
आईआईटी मुंबई से पोस्ट ग्रेजुएट संजीव भट्ट वर्ष 1988 में भारतीय पुलिस सेवा में आए. उन्होंने आईआईटी मुंबई से एम टेक किया था. उसके बाद संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में बैठे और सफल हुए. आईपीएस बनने के बाद उन्हें गुजरात काडर मिला.
इसके बाद करीब ढाई दशकों तक उन्होंने गुजरात के ज़िलों, पुलिस आयुक्त के कार्यालय और अन्य पुलिस इकाइयों में काम किया. बाद में 2015 में गुजरात सरकार ने उन्हें बर्खास्त कर दिया था. पिछले साल सितंबर में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया गया. तब से वो जेल में ही थे. भट्ट को 2011 में बिना अनुमति के ड्यूटी से नदारद रहने और सरकारी गाड़ियों का दुरुपयोग करने के आरोप में निलंबित किया गया था. बाद में अगस्त 2015 में इसी आधार पर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया.
अपनी कार्यशैली को लेकर हमेशा चर्चाओं में रहे
दरअसल वो गुजरात में 90 के दशक में जहां जहां तैनात रहे, वहां अपने काम करने के तरीकों को लेकर भी चर्चांओं में रहे. 1990 के दशक में वो जामनगर में अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक थे. उसी समय जाम जोधपुर में दंगा हुआ और पुलिस ने 100 से कहीं ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया.
संजीब भट्ट हमेशा अपने काम करने के तौरतरीकों के चर्चित और विवादास्पद दोनों रहे
इसमें कुछ लोगों को पुलिस हिरासत में यातनाएं देने का आरोप लगा. इन्हीं में एक थे प्रभुदास वैष्णवी, जिन्हें काफी खराब हालत में पुलिस ने रिहा किया. फिर अस्पताल में उनकी मौत हो गई. उनके परिवारजनों मे जामनगर अदालत में गुहार लगाई कि पुलिस यातना से उनकी मौत हुई है. उसी मुकदमे में अदालत ने आईपीएस संजीव भट्ट को आजीवन कैद की सजा सुनाई है.
हालांकि, ऐसा ही एक आरोप बाद में भी संजीव भट्ट पर 1998 में लगा. उन पर पुलिस लाकअप में टार्चर देने का आरोप लगा.
गुजरात में कई अहम पदों पर काम किया
संजीव भट्ट दिसंबर 1999 से सितंबर 2002 तक वे राज्य ख़ुफ़िया ब्यूरो में ख़ुफ़िया उपायुक्त के रूप में कार्यरत थे. गुजरात के आंतरिक सुरक्षा से जुड़े सभी मामले उनके अधीन थे. इनमें सीमा सुरक्षा और तटीय सुरक्षा के अलावा अति विशिष्ट जनों की सुरक्षा भी शामिल थे. वो नोडल ऑफ़िसर भी थे, जो कई केंद्रीय एजेंसियों और सेना के साथ ख़ुफ़िया जानकारियों का आदान-प्रदान भी करते थे.
मुंबई से आईआईटी करने के बाद वो पुलिस सेवा में आए थे
2011 में निलंबन और फिर बर्खास्तगी
संजीव भट्ट को 2011 में गुजरात सरकार ने नौकरी से निलंबित कर दिया था. बाद में हटा दिया गया था. कुछ महीने पहले उनकी पत्नी ने ये आरोप लगाया था कि उनके पति की जान खतरे में है. उन्होंने अपनी फेसबुक पोस्ट में ये भी लिखा था कि एक तेज गति से आते ट्रक से उन्हें और बेटे को मारने की कोशिश की गई.
पत्नी ने लड़ा था मोदी के खिलाफ चुनाव
संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट ने 2012 में कांग्रेस के टिकट पर अहमदाबाद की मणिनगर विधानसभा सीट से तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था, जिसमें उन्हें हार मिली थी.
मादक पदार्थों की खेती में गिरफ्तार हो चुके हैं
1998 के मादक पदार्थ से जुडे़ एक मामले में भी भट्ट गिरफ्तार हुए थे. तब संजीव भट्ट को पालनपुर में मादक पदार्थों की खेती के एक मामले में छह अन्य लोगों केसाथ अरेस्ट किया गया था. 1998 में संजीव भट्ट बनासकांठा के डीसीपी थे.
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