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व्यंग्य:बतंगड़

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-विवेक मेहता

         भाई लोग बतंगड़ बनाने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने देते। जोड़-तोड़ से बनी, 40% कमीशन वाली सरकार के नाम से ख्यात राज्य की सरकारी पार्टी के विधायक के बेटे को भ्रष्टाचार विरोधी दल ने उनके ऑफिस में 40 लाख रुपए की रिश्वत के साथ झड़पा। बाद में उस बेचारे ने सफाई दी कि उसकी ऑफिस में कोई रुपए रख कर गया तो यह रिश्वत कैसे हुई! फिर हिम्मत तो देखो, विधायक बाप के घर पर भी छापा डाल दिया। कहते हैं कि वहां से भी करोड़ों रुपए जप्त कर लिए।

          विधायकजी ‘न खाऊंगा,न खाने दूंगा’- वाली पार्टी से जुड़े हुए थे इसलिए बदनाम होने का तो सवाल ही नहीं था। फिर भी लोकल टीवी वालों का क्या भरोसा। पैसे कमाने के लिए ‘सो काल्ड इज्जत’ का जनजा निकाल दें। तो कोर्ट से उनके मुंह पर भी टेप लगवा दी। इसी को तो कहते हैं दूर दृष्टि! 

          विधायकजी का कहना था कि उनका क्षेत्र कृषि प्रधान है। वहां के लोगों के घरों में 2-4 करोड़ तो यूं ही पड़े रहते है। इस हिसाब से उनके क्षेत्र की खेती ही पूरे देश के किसानों की मेहनत का रस निचोड़ लेती है। बेचारे दूसरे क्षेत्र के किसान आत्महत्या नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? इसमें विधायकजी की तो कोई गलती नहीं। और फिर ‘अच्छे दिन ‘ लाने का वादा भी तो था! चलो कहीं से तो शुरुआत हुई।

           विधायकजी के राज्य में चुनाव का मौसम आने वाला है। टिकट तो उसे ही मिलेगी जो खर्चा कर पायेगा। खर्चा वही करता है जिसके पास पैसे हो। पैसा उसी के पास होता है जो पैसा बनाना जानता हो। क्या करता बेचारा विधायक। कमीज पर लगे दाग छुड़वाने के लिए पहुंच गया कोर्ट में। अग्रिम जमानत ले आया। गाजे-बाजे, ढोल-धमाके के साथ जुलूस निकालकर सिस्टम और विरोधियों को ठेंगा बता दिया। जिसकी लाठी होती है भैंस उसी की होती है। यही तो न्याय का सिद्धांत है।

       अब भाई लोग बतंगड़ बना रहे हैं कि कोर्ट में हमारे केस की सालों साल सुनवाई नहीं होती। इनकी इतनी जल्दी कैसे हो गई? एक भाई तो बतलाने लगे कि सेवानिवृत्ति के लाभ न मिलने पर उन्होंने हाईकोर्ट में केस दर्ज किया। डेढ़ महीना वकील ने लिया। 2 महीने रजिस्ट्री ने लिए। डेढ़ महीने बाद की तारीख मिली। तारीख पर वकील लीव नोट दे कर चला गया। 5 सप्ताह बाद सुनवाई के लिए केस लिस्ट हुआ। 3 महीने बाद की तारीख दे दी। फिर तारीख पर सुनवाई के लिए लिस्ट हुआ तो जज बदल गया, सामने वाले वकील ने समय मांग लिया। डेढ़ महीने बाद की सुनवाई की तारीख मिली। सुनवाई पर फिर जज बदल गया, लिस्टिंग 200 नंबर से ऊपर हुई। नंबर आते-आते जज की नौकरी का समय समाप्त हो गया। फिर तारीख पड़ गई। आम लोगों के केस में तो तारीख पर तारीख। तारीख पर तारीख और बड़े लोगों की इतनी जल्दी सुनवाई! 

            अरे भाई, समझा करो। जज भी नौकरी ही करता है। उसका भी पेट होता है। बाल बच्चों का भविष्य सामने खड़ा होता है। जमानत के केसों में छोटी अदालतों के जजों का भविष्य सुधर जाता है। बड़े जजों का भविष्य सुधारने के लिए के लिए बड़ी अदालत और बड़े मामले होते है। जिनका निपटारा कर सितारा होटलओ में पार्टी-शार्टी कर सकते हैं, नहीं तो राज्यसभा या राज्यपाल भवन तक पहुंच सकते है। ‘भ्रष्टाचार करते हुए पकड़े जाओ तो भ्रष्टाचार कर छूट जाओ’- यह ब्रह्मा वाक्य जीवन में जो उतारेगा वही तो जीवन नैया पार कर पाएगा। भाई इस वाक्य को समझता तो अपने कार्यालय में ही ले देकर मामला निपटा लेता। कोर्ट का चक्कर तो नहीं खाता। भूखे मरने, बातों का बतंगड़ बनाने के बजाय कहीं पैसा बना रहा होता। अपना अपना भाग्य।

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