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 बहुजन महिलाओं के विद्रोह का प्रतीक हैं सती स्थान

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सागर

बागमती नदी के किनारे बिहार के उत्तर में दरभंगा जिले में स्थित है एक सती स्थान. स्थान का मतलब किसी भौगोलिक जगह से होता है. जबकि सती को देवी माना जाता है. जगह के नाम पर यह करीब 100-150 वर्ग फीट का एक चबूतरा है जिसके चारों तरफ लगभग तीन फीट की मुंडेर है. बीच जमीन पर एक पत्थर रखा जिसे लोग देवी मानते हैं और चढ़ावे पर नारियल, अंकुरित चना, पान का पत्ता, मिठाई और गेरुआ चढ़ाते हैं. वैसे तो यह बीसवीं सदी के मध्य में बने दरभंगा किले से कुछेक किलोमीटर दूर ही पश्चिम में स्थित है और शहर के लगभग बीचो-बीच है मगर सती स्थान के आसपास की आबादी ग्रामीण हैं. एक पतली सी सड़क स्थान को मुख्य शहर से जोड़ती है. 

पिछले दिन तपती दोपहर में जब मैं वहां गया तो सती देवी के दर्शनार्थियों में शादी का एक नया जोड़ा था जो चढ़ावा चढ़ाने के बाद चबूतरे की परिक्रमा कर रहा था. चबूतरे के बगल में ही एक दुधमुंहे बच्चे का मुंडन कराया जा रहा था. एक स्थानीय बाल काटने वाला बच्चे का मुंडन करा रहे आदमी से झगड़ा कर रहा था कि उसने बाहर से आकर उसका काम कैसे ले लिया जबकि सती स्थान पर बाल काटने वाले 5000 से 10000 रुपए तक मेहनताना लेते है. बाल काटने वाले दोनों व्यक्ति नाई जाति के थे. दर्शन करने वालों में ज्यादातर औरतें थीं. कई लोग यहां मन्नतें मांगने भी आते हैं और मन्नत पूरी होने पर प्रतिज्ञा किया हुआ चढ़ावा चढ़ाते हैं. 

यहां का परिवेश वैसे तो देखने में आम हिंदू मंदिरों जैसा ही है मगर फिर भी यह देवी स्थान हिंदू मंदिरों से बहुत अलग था. यहां ईश्वर एक खुरदुरा पत्थर था जिसमें कोई मानवी स्वरूप नहीं था. स्थान की देख रेख के लिए और चढ़ावे का मालिक कोई ब्राह्मण पुजारी नहीं था बल्कि एक मालन जाति की महिला थी, जो अति पिछड़े होते हैं. 

ब्राह्मणवादी साहित्यों के अनुसार सिर्फ ब्राह्मण ही पुजारी हो सकता है. हर रोज सैकड़ों लोगों के दर्शन और पुराने समय का होने के बाबजूद यहां कोई मंदिर नहीं था और न कोई मूर्ति. चबूतरे की मुंडेरों पर आगे की तरफ लगे एक द्वार को भी एक माली जाति का आदमी खोलता और बंद करता था. यहां आने वाले लोग भी ज्यादातर बहुजन समाज के ही होते हैं. एक तरह से ये स्थान बहुजनों के जमवाड़े का स्थल है. 

बिहार में ऐसा देवी स्थान लगभग हर जिले और उसके अंदर स्थित कई गांवों में हैं. बिहार में सती स्थानों को देवी स्थान, शक्ति स्थान, शक्ति चौरा या शक्ति पीठ भी कहा जाता है. ज्यादातर सती स्थान यूं ही छोटी जगहों में एक पत्थर के रूप में होते हैं जिसकी देख-रेख या तो ब्राह्मणवादी व्यवस्था में स्थापित नीची जातियां करती हैं या तो ये जगहें किसी मजार की तरह बिना किसी पुजारी के होती हैं. लेकिन कुछ बड़े शक्ति पीठ भी बिहार में है, जिनका स्वरूप, देख-रेख और पूजा पद्धति ब्राह्मणवादी रिवाजों के अनुसार ही होता है. ऐसे बड़े शक्ति पीठ बिहार ही नहीं पुरे दक्षिण एशिया महाद्वीप में फैले हैं जिनकी मुख्य संख्या, मिथकों के मुताबिक, 52 बताई जाती है. मगर कुल कितने सती स्थान या शक्ति पीठ हैं इस पर इतिहासकारों में मतभेद है. सती स्थान और शक्ति पीठ में क्या अंतर है इस पर भी प्रामाणिक तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि दोनों एक ही मिथक से जुड़े हुए हैं. कम से कम बिहार में इसे पर्यायवाची की तरह इस्तेमाल किया जाता है. 

अभी पिछले ही महीने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशवाशियों से अपील की थी कि वे गुजरात के अंबाजी शक्ति पीठ घूम कर आएं. उन्होंने यह भी जानकारी दी की वहां लाइट-शो भी दिखाया जाएग.  मोदी सरकार ने गुजरात की शक्ति पीठ में अन्य सभी 51 शक्तिपीठों की प्रतिकृति बनवाई है. मोदी अपने कार्यकाल में मुख्य शक्ति पीठों के विकास में जनता के करोड़ों रुपए लगाएं हैं. 

शक्ति पीठ के बीजेपी सरकार द्वारा इस राजनितिक विनियोजन (अप्रोप्रिएशन) को समझने की जरुरत है. बीजेपी की मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत माता की कल्पना भी सती स्थान के इतिहास से ही उपजती है. बहुजनों को सती स्थान का इतिहास समझने की ज्यादा जरूरत है ताकि वे अपनी सती देवी को ब्राह्मणवादी मिथकों और राष्ट्रवादी राजनीति से अलग करके उन्हें अपने सही रूप में अपना सकें और प्रेरणा ले सकें. वर्तमान में देवी स्थान को बहुजन उन्ही उद्देश्यों के लिए दर्शन करते हैं जिसके लिए वे ब्रहामणवादी पूजा स्थलों को जाते हैं. और बहुजनों की सती स्थानों को लेकर भी वही मान्यताएं हैं जो बीजेपी उनसे मनवाना चाहती है यानी कि सती स्थानों को हिंदू धर्म का एक हिस्सा समझा जाए जबकि बहुजनों के लिए उनका महत्व इन स्थानों के इतिहास से जुड़ा है.     

मैंने सती स्थान और शक्ति पीठ का इतिहास समझने के लिए अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त शोध पत्रों को पढ़ा और इतिहासकारों से बात की. एक विचार के अनुसार बिहार के सती स्थान निचली जाति की औरतों के ब्राह्मणवादी कुरीतियों के खिलाफ विद्रोह का प्रतिक है तो दूसरा विचार इन्हें गैर वैदिक आदिवासियों का भगवान मानता है जिनका अस्तित्व ब्राह्मणवादी मिथकों के गढ़ने से पहले भी था. दोनों ही विचारधारा इस पर सहमत है कि सती स्थानों या शक्ति पीठों का ब्राह्मणवादी ईश्वर, मिथकों, वैदिक काल या राष्ट्रवादी राजनीती से कोई लेना देना नहीं है. ब्राह्मणवादी रिवाज और मिथक पूर्व मध्यकाल या 10वीं सदी के बाद ब्राह्मण लेखकों ने सती स्थानों पर थोपा था. 

ये मिथक क्या हैं और ब्राह्मणवादी इन मिथकों को सती स्थानों से क्यों जोड़ते हैं? पहले हमे यह समझने की जरुरत है. एमा रामोस ब्रिटिश संग्रहालय में दक्षिण एशिया और हिमालयन संग्रह की संग्रहाध्यक्ष है. अंतराष्ट्रीय प्रकाशक रॉटलेज के एक शोध पत्र, पिल्ग्रिमेज एंड पॉलिटिक्स इन कोलोनियल बंगाल: द मिथ ऑफ गॉडेस सती, में वह लिखती हैं कि ब्राह्मणवादी साहित्यों “कालिका और देवीभागवत पुराण” के अनुसार, “सती के पिता राजा दक्ष ने शिव को यज्ञ, जो एक बलिदान समारोह होता है और जिसमें आहुतियां दी जाती है, में निमंत्रित नहीं किया था. अपने पिता के इस व्यवहार से अपमानित होकर सती ने खुद को जला लिया था. नाराज शिव ने उनके शरीर को आग से निकला और उनको अपने कंधे पर रखकर गुस्से में तांडव करने लगे. उनका दुख दुनिया की समाप्ति का कारण बन रहा था. इसलिए विष्णु, दुनिया को पालनेवाला भगवान, ने अपना सुदर्शन चक्र फेंका और सती के कई टुकड़े कर दिए जो पुरे महाद्वीप में फैल गए. हर जगह जहां उनके शरीर का हिस्सा गिरा उसे पवित्र माना गया, जिसे शक्ति पीठ या शक्ति का सिंहासन माना गया और ऐसी सभी जगहों पर मंदिर बना दिए गएं”. रामोस लिखती हैं कि कालिका और देवीभागवत पुराण “क्रमश दसवीं और ग्यारहवीं सदी” में लिखी गई थीं जबकि शक्ति स्थानों का अस्तित्व सातवीं सदी में भी पाया जाता है. शोधपत्र यह भी उल्लेख करता है कि शक्ति पीठ का मौलिक रूप से “गैर वैदिक, आदिवासी देवियों” के साथ संबंध है. 

रामोस लिखती हैं, “ऐसा माना जाता है कि 41 पीठ भारत में, चार बांग्लादेश में, तीन नेपाल में, एक पाकिस्तान में और एक-एक श्री लंका और तिब्बत में हैं.” वह आगे लिखती हैं कि, “पीठों के नाम और संख्या के बारे में विसंगतियां हमेशा से रही हैं. आज सारे पीठ निश्चित तौर पर पहचान नहीं किए जा सकते हैं और उनके सही ठिकाने पर भी असहमतियां हैं : कोई उन्हें नदी से जानता है तो कोई क्षेत्र से. कुछ ऐसे भी मंदिर हैं जो अब नहीं रहे या उनकी महत्ता घट गई है.” रामोस लिखती हैं कि लगभग 45 प्रतिशत शक्ति पीठ भारतीय महाद्वीप के पूर्वी क्षेत्र में है, उसकी एक वजह यह है कि इस क्षेत्र में देवी पूजा का चलन शुरू से रहा है. रामोस शक्ति पीठों के आदिवासी भगवान होने के दो उदहारण देती हैं : “ऐसा माना जाता है कि सती (मिथक) के साथ संबंध होने से पहले कामख्या पीठ में मातृ देविओं की पूजा वहां रहने वालीं खासी और गारो जनजातियां करती थीं.” 

रामोस के शोध का केस स्टडीज बंगाल का कालीघाट और तारापीठ (दोनों शक्ति पीठ) रहा हैं. हालांकि उनकी खोज सभी शक्ति पीठों के इतिहास से पर्दा उठती हैं. शक्ति पीठों के आदिवासी भगवान होने के एक और प्रमाण रामोस प्रस्तुत करती हैं. वह लिखती हैं, “मिथकों के अनुसार सती की लाश को टुकड़ों में बांट दिया गया था लेकिन शक्ति पीठों में जोर उन अवशेषों की पूजा के बजाए जिंदा देवियों, जिन्हें शक्ति के कई रूप माना जाता है, की पूजा पर दिया जाता है. क्योंकि सती के अवशेषों को अक्सर लोगों की नजर से छुपा कर रखा जाता है या इन्हें एक खुरदुरा, बिना तराशा हुआ पत्थर का स्वरूप दिया जाता है, दर्शनार्थी की भक्ति का केंद्र मूर्तियां ही होती है.” रामोस का मतलब है कि मिथक में उल्लेखित बातें शक्ति पीठों के पूजा स्थल के स्वरूप से वास्तविकता में मैच नहीं करते मगर लोग इसपे सवाल नहीं करते क्योंकि उनका ध्यान मूर्तियों पर होता है. 

हालांकि बिहार के सती स्थान, खासकर छोटे सती स्थान, आज भी बिना किसी मूर्ति, पुजारी और मंदिर के होते हैं लेकिन उनको मानाने वाले उन्हीं मिथकों (शिव और सती) से बंधे हैं जो इनके निर्माण के लगभग 400 साल बाद गढ़े गए थे. 

रामोस शक्ति पीठों का गैर वैदिक भगवान होने का एक और उदहारण देती हैं. वह लिखती हैं, “पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हिंगलाज पीठ मंदिर धार्मिक समंवयता की मिसाल है जहां हिंदू और मुस्लिम दोनों हिंगलाज माता की पूजा करते हैं और हर अप्रैल इस जगह चार दिन के उत्सव का आयोजन किया जाता है. मौलिक रूप से बहुत सारे पीठों का संबंध गैर वैदिक देवियों से रहा है. ऐसा बहुत बाद में हुआ की हिंदू पुराण की कथाओं ने उन्हें एकात्म ब्राह्मणवादी देवी से जोड़ दिया.” 

रामोस लिखती हैं, “पीठ की कल्पना मौलिक रूप से बहुत सारे आदिवासी, ग्रामीण और गैर वैदिक देवियों को समर्पित मंदिर और दरगाह को ब्राह्मणवादी समूह में एकीकरण और वैधता प्राप्त करवाने के मकसद से किया गया था.” रामोस अपने इस निष्कर्ष के लिए कुणाल चक्रबर्ती द्वारा लिखित, रिलीजियस प्रोसेसेज : दि पुराण एंड मेकिंग ऑफ ए रीजनल ट्रेडिशन, जिसे ऑक्सफोर्ड ने 2001 में प्रकाशित किया था, पर निर्भर करती है. कुणाल अपनी किताब के पांचवे अध्याय, अप्रोप्रिएशन एस ए हिस्टोरिकल प्रोसेस : दि कल्ट ऑफ दि गॉडेस, में लिखते हैं, “बंगाल के पुराणों का मुख्य केंद्र अलग-अलग देवियों के पंथ (कल्ट) रहे हैं. बंगाल में सामाजिक वर्चस्व की अभिव्यक्ति ब्राह्मणवादी कोशिशों- जैसे स्थानीय देवियों के विनियोजन और उनके परिवर्तन- द्वारा प्राप्त की गई थी.” क्योंकि ये पुराण जिनमें शक्ति पीठ के मिथकों का वर्णन है दसवीं और ग्यारहवीं सदी में लिखे गए थे, यह कहा जा सकता है कि सती स्थानों का ब्राह्मणीकरण पूर्व मध्य काल में हुआ होगा. 

रामोस के शोध से पता चलता है कि शुरुआत में सती स्थानों को मिथकों से जोड़ने का मकसद स्थानीय भगवान और स्थानीय रिवाजों को हिंदू फोल्ड में लाने के लिए जरूर किया गया था मगर इस कल्पना का इस्तेमाल एक हथियार के रूप में विधवाओं के जलाने की प्रथा को गौरवांवित करने के लिए 19वीं सदी में बंगाली ऊंची जातियों के लेखकों ने किया. 

इस बात पर हम बाद में आएंगे मगर उससे पहले यह भी समझें कि कुछ सती स्थान बड़ी जातियों के द्वारा नजरअंदाज क्यों किए गए, जबकि कुछ को राजनितिक और सामाजिक सरंक्षण भी दिया जाता रहा है. यह भी समझने की जरूरत है कि क्या सभी इतिहासकार इन्हें आदिवासी भगवान मानते हैं या देवी स्थानों का कोई और भी इतिहास है. रामोस का शोध क्षेत्र बंगाल रहा है इसलिए इसमें बिहार के शक्ति पीठों का वर्णन नहीं मिलता. 

बिहार सती स्थानों को समझने के लिए मैंने राजेंद्र प्रसाद सिंह से बात की. सिंह वर्तमान में बिहार के सासाराम में वीर कुंवर सिंह विश्विद्यालय में हिंदी भाषा के प्रोफेसर हैं. सिंह एक भाषाविद भी हैं जिनका शोध पाली भाषा रहा है. सिंह ने विश्व की कई भाषाओं में पाली शब्दकोश तैयार किए हैं. 

सिंह ने मुझे बताया कि सती स्थान का पहला पुरातात्विक प्रमाण मध्य प्रदेश के सागर जिले के एरण शहर के शिलालेख से मिलता है. उन्होंने कहा, “वहां गुप्त वंश के किसी भानुगुप्त का शिलालेख मिलता है जिसे किसी महिला के सती होने का पहला सबूत माना जाता है. भानुगुप्त एक सामंत थे. उनकी पत्नी सती हुई थी और उसी की स्मृति में वह शिलालेख लगाया गया है.”  

सिंह मानते हैं कि इन शक्ति स्थानों का सती प्रथा से ही संबंध है. सती प्रथा सदियों से चली आ रही एक ऐसी कुप्रथा थी जिसमें विधवाओं को उनके पुरुष परिजन, पुरोहित और स्थानीय समाज जिंदा जला देते थे. इस प्रथा को 1929 में ब्रिटिश सरकार ने कानून बना कर खत्म कर दिया था. सिंह बताते हैं कि हालांति औरतों के सती होने का पहले प्रमाण 5वीं सदी में गुप्त वंश के शाशनकाल में मिला था मगर उसके बारे में ज्यादा विवरण नहीं है : जैसे क्यों जलाया गया आदि. “बस इतना ही उसमें लिखा है कि युद्ध में उसके पति मर गए और पत्नी यहां सती हुईं”, सिंह ने कहा. सिंह बताते हैं की इसके बाद से ही एक “परंपरा”- महिलाओं को सती करने की- शुरू हुई. 

सिंह आगे बताते हैं कि महिलाएं कभी भी स्वेच्छा से सती नहीं होती थीं. “उनको एक सिस्टम के अंतर्गत जला दिया जाता था. अंग्रेजों ने इसका बड़ा बीभत्स वर्णन किया है कि किस तरह सती की जाने वाली महिला को टांगों से उठा कर, उसकी इच्छा नहीं रहते हुए भी आग में फेंक दिया जाता है और उसके गहने आदि पुरोहित ले लेते हैं और चिता में घी डाल कर तेज अग्नि में प्राण लिए जाते थे. ब्रिटिश हुकूमत और मध्यकाल के बहुत सारे रिकार्ड इस पर हैं,” सिंह ने मुझे बताया. सिंह ने कहा कि क्योंकि महिलाएं स्वेच्छा से सती नहीं होती थीं, उनके विरोध को सामाजिक कुरितियों के खिलाफ एक विद्रोह और साहस के काम की तरह देखा जाने लगा. उन्होंने कहा की उनकी हत्या के बाद उनके परिजन और स्थानीय समाज उनको कुल देवी के रूप में पूजने लगे. सिंह के अनुसार सती स्थान आम औरतों के विद्रोह का प्रतिक है. 

सिंह ऐसे दो उदहारण देते हैं जहां सती देविओं को साहस और विद्रोह का प्रतिक माना जाता है. सिंह ने कहा कि “मध्य काल में कई महिलाओं ने डोला प्रथा का विरोध किया था जो सती हुई थीं. डोला प्रथा के तहत जब गांव में किसी औरत की शादी होते थी वह महिला पहली रात जमींदार के यहां जाती थी. इसके बाद ही दूल्हे के पास आती थी. एक थीं महथिन देवी. जब उनको जमींदार के यहां ले जाया जाने लगा तो उन्होंने विद्रोह कर दिया, लड़ाई लड़ी कि डोला प्रथा का अंत होना चाहिए. हालांकि वह मार दी गईं, सती कर दी गईं. उनकी स्मृति में सती स्थान बने हैं.” 

महथिन देवी का सती स्थान बिहार के भोजपुर जिले में है. महथिन माई की कहानी इलाके के जनमानस के बीच हमेशा से रही है. सिंह ने जौहर माई का भी उदहारण दिया जिनके बारे में माना जाता है कि उसी इलाके में डोला प्रथा के खिलाफ लड़ते-लड़ते उन्हें सती कर दिया गया. डोला प्रथा पर विदेशों के विश्विविद्यालयों में कई शोध हुए हैं मगर भारत में लोगों को बहुत कम जानकारी है. डोला प्रथा मध्यकाल से पहले भी थी इसका प्रमाण नहीं है. मगर 2012 में जॉर्ज जे. कुन्नथ, जो लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के सामाजिक मानवविज्ञानी हैं, के रॉटलेज से प्रकाशित शोध में भी डोला प्रथा का जिक्र मिलता है. कुन्नथ का शोध 1980 और 1990 के दशक में बिहार के दलितों का जमींदारों के खिलाफ माओवादी विद्रोह पर केंद्रित है. कुन्नथ ने लिखा है कि दलितों के विद्रोह का एक सबसे बड़ा कारण उनकी महिलाओं का जमींदारों के द्वारा यौन शोषण था. इन यौन शोषणों में डोला प्रथा भी शामिल थी. इससे समझ आता है कि डोला प्रथा 1990 के दशक तक बिहार में पनप रही थी. 

कुछ सती स्थान राजनितिक तौर पर नजरअंदाज किए हुए, छोटे, बिना सुविधा के हैं जबकि कुछ काफी बड़े और आर्थिक रूप से सम्पंन क्यों हैं? इस पर सिंह बताते हैं कि, “महिलाओं में भेद रहा है (उनकी सामाजिक स्थिति में अंतर होने से). कुछ महिलाओं का स्टेटस छोटा रहा, जो निम्न जाति की थीं, उनके स्मारक छोटे बने. जिन महिलाओं की सामाजिक स्थिति बड़ी थी, उनके स्मारक बड़े बने.” सिंह मानते हैं कि जो गांव में छोटे सती स्थान हैं, वे सामान्य औरतों के हैं. “वे जन साधारण के बीच की महिला हैं, जो साहसी थीं, जिन्होंने मध्यकाल में डोला प्रथा जैसे रिवाजों का विरोध किया,” सिंह ने बताया. 

रामोस की तरह सिंह भी मानते हैं कि शिव और सती के मिथक को बाद में जोड़ा गया. सिंह का मानना है कि ऐसा मध्यकाल या उत्तर मध्यकाल में ही हुआ होगा. हालांकि रामोस मानती हैं कि औरतों को जलाने की प्रथा को शक्ति पीठ से 19वीं सदी के शुरुआत में जोड़ा गया जब बंगाल के ऊंची जातियों के बौद्धिक वर्ग के लोगों ने सती प्रथा को गौरवांवित करना शुरू किया ताकि लोगों में राष्ट्रवाद जागे. रामोस का मानना है कि बंगाली लेखकों, चित्रकार, कलाकार ने जलती हुई सती की कहानी को देश से जोड़ दिया. वे इस तरह देश को एक औरत की तरह प्रस्तुत कर सकते थे जिसको भारत के लोगों को शिव बन कर बचाना था. रामोस के हिसाब से इसमें ऊंची जाती के पुरुषों की औरतों के शरीर और उनकी यौन आजादी को कंट्रोल करने की इच्छा छुपी थी. 

रामोस लिखती हैं कि बीजेपी सरकार भारत की भूमि को नारी के रूप में चित्रित कर और स्त्री के शरीर को राष्ट्रवाद से जोड़ने का वही काम कर रही है जो 19वीं सदी के शुरुआत में बंगाल के ऊंची जाति के पुरुष लेखकों ने किया था. वह लिखती हैं कि शक्ति पीठों को सती और शिव के मिथक से जोड़ने से इसके भगवाकरण और समरूपीकरण का खतरा है. रामोस मानती हैं कि शक्ति पीठ एक विविध संस्कृति का हिस्सा है और कई स्थानीय देवी-देवताओं का समूह है जिसको होमोजिनाइज अथवा समरूपीकरण करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए.

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