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हास्यव्यंग्य पूर्ण विज्ञापन?

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शशिकांत गुप्ते

धारावाहिक,फ़िल्म, डांस,धार्मिक या कोई अन्य मनोरंजन के कार्यक्रम और समाचारों के बीच विज्ञापनों देख सहज ही हास्यव्यंग्य पैदा हो जाता है।
जब किसी धार्मिक व्यक्ति को अत्याधुनिक तकनीक से सजे बेशकीमती मंच पर विराजित होकर, भारतीय संस्कार और संस्कृति पर उपदेश देतें हुए देखते सुनते है,तब किसी नहाने के साबुन का विज्ञापन को देखकर भजन की ये पंक्तियां याद आती है
मन मैला और तन को धोए,
फूल को चाहे, कांटे बो
ये
भारतीय संस्कार और संस्कृति पर प्रवचन सुनने के बाद किसी सामाजिक कहलाने वाले धारावाहिक को देखतें है,जिसमें विवाहपूर्व या विवाहोत्तर स्त्री पुरुष के “ऐसे वैसे” सम्बंध देखकर खेद प्रकट करते हुए आश्चर्य होता है।
कुपोषण से पीड़ित देश के नोनिहलों के समाचार देखने के तुरतं बाद कोई संभ्रात माँ अपने लालडे को शक्तिवर्धक पेय पिलाते ही बालक हर क्षेत्र में अव्वल आता दिखाई देता है,तब
हास्य गायब होकर सिर्फ व्यंग्य प्रकट होता है।
जब कोई रसूखदार का “कु”पुत्र सत्ता के नशे में चूर अपने वाहन में भी अमानवीय ईंधन भर कर आमजन को कुचलता है,
तब वाहन के पहियों में लगने वाले टायर के मजबूती का विज्ञापन मानस को झकोझोर के रख देता है।
चुनावी प्रचार और रैलियों के व्यय को देखकर ही देश की गरीबी तो पूर्ण रूप से गायब ही हो जाती है।
दिव्यभव्य मंदिरों के निर्मिति पर हो चुके,हो रहे और होने वाले खर्च को देख,सुन कर देश की आर्थिक स्थिति को कमजोर बताने वालों की मानसिकता ही कमजोर प्रतीत होती है?
यह पढ़कर सीतारामजी ने सलाह दी इतना ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं है।
यह विनोद लिखना ही पर्याप्त है।
“एक सर्कस में एक पहलवान ने दर्शकों के समक्ष लोहे के बने हजारों किलो वजन को उठा उठा कर दिखाया।
पहलवान का करतब समाप्त होने पर, जो वजन पहलवान ने उठा उठा कर जमीन पर पटके थे, वे सारे वजन सर्कस का जोकर अपने एक ही हाथ में सारे वजन समेट कर ले जाता है।
जो जैसा दिखता है,वैसा होता नहीं है।”
लंबी फेरहिस्त को यहीं विराम।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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