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*सत्य(झूठ)नारायण व्रतकथा और लीलावती-कलावती*

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       ~ रीता चौधरी

भारतीय लोकतंत्र की गौरवगाथा में
लोकतंत्र की बात वैसे ही नहीं होती
जैसे अदालतों में न्याय नहीं होता,
और कोई नहीं जानता कि हमारे संविधान में
ऐसा क्या है जो उसे पवित्र बनाता है।
कोई नहीं जानता कि आततायियों से
पुरस्कृत-प्रशंसित जनता के कवि
अपने हृदय किसी चील के घोंसले में
छुपाकर रखते हैं
या रहस्यमय समुद्री कछुओं को दे देते हैं
बालू में गाड़कर सुरक्षित कर देने के लिए।
और यह तो शायद कभी न पता चले कि
क्या है वह मनुष्यता, न्याय, प्यार और
जीवन-सौन्दर्य हमारे जीवन में ठोस रूप में,
और अगर कोई सपना ही है तो दरअसल है क्या
जिसके बारे में महान कवियों की कविताएंँ
सुन्दर-सम्मोहक आख्यान रच लेती हैं
बर्बरता के घटाटोप में भी!

इन्हीं सवालों से बेचैन-परेशान
एक दिन सुबह मैं अचानक उस कवि के
डेरे पर जा पहुँची जो जीवित ही एक मिथक
बन जाने के अनवरत प्रयासों में
डूबा रहता है।
तब कवि दुनिया के सामने
अपने को पेश करने के लिए
अभी तैयार नहीं हुआ था
अपनी टोपी, छड़ी, नाटकीय दयनीयता,
चमत्कारी भाषा, लुभावनी अदाओं और
विचित्र वेषभूषा के साथ।
कुछ देर अकबकाया सा रहा वह
मामूली सा दिखने वाला बूढ़ा आदमी
और फिर बोला, “पूरी सत्यनारायण व्रत-कथा में
कथावाचक सिर्फ़ यह बताता है कि
कथा सुनने से लीलावती-कलावती और
किस-किस की कौन सी मनोकामना पूरी हुई
और क्या-क्या पुण्य लाभ हुआ।
कोई नहीं जानता कि वह सत्यनारायण की
कथा थी आख़िर क्या!
इसी तरह श्रेष्ठ कविता मनुष्यता, प्यार, करुणा
और दुनिया की तमाम अच्छी चीज़ों की महिमा
दुनिया के सुन्दरतम शब्दों में बताती है।
उनकी ठोस जानकारी देना
या उन्हें हासिल करने की चिन्ता करना
कविता का काम नहीं।
यूँ कहें कि ऐसा करना कविता की हत्या होगी।
और मेरा तो मानना है कि स्त्रियांँ
कविता के प्राणतत्व को जान सकती हैं
सबसे बेहतर ढंग से
बशर्ते कि वे लीलावती-कलावती भाव में आ जायें।
अजी, प्रेम और कविता के एकांत में
जब बज उठती है असाध्य वीणा
तो बहुतेरी दुर्दान्त फेमिनिस्ट भी
लीलावती-कलावती हो जाती हैं।

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