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सावरकर वीर या कायर?

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अजय असुर

27 मई को नेहरू का पुण्यदिवस था तो अगले ही दिन सावरकर का जन्मदिन तो निश्चित ही सोशल मीडिया पर वबाल मचना था, और मचा भी। और ये घमासान हर वर्ष होता है। सावरकर का पुरा नाम विनायक दामोदर सावरकर है। जेल जाने से पहले और जेल से वापस आने के बाद सावरकर में काफी परिवर्तन आ गया था। जेल जाने से पहले सावरकर अंग्रेजों के विरुद्ध थे पर जेल में यातनाएं सह ना पाने के कारण अंग्रेजों का ही आदमी हो गया और उन गोरों का आदमी सिद्ध करने के लिए ही अंग्रेजों से माफीनामा देकर खुद को महारानी विक्टोरिया का भटका हुआ बेटा तक बताने वाली तमाम माफियां मांगी और उसके बाद 1921 में 60 रूपया महीना पेंशन के साथ रिहा किया अंग्रेजों ने वीर सावरकर को। 
सावरकर एक पैदाइशी नायक हैं। वह ऐसे लोगों से नफ़रत करते हैं जो भय के कारण अपने कर्तव्यपथ से पीछे हट जाएँ। अगर वह एक बार सही या ग़लत, यह तय कर लें कि सरकार की कोई नीति ग़ैरबराबरी वाली है तो उस बुराई को ख़त्म करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ते।- लाइफ ऑफ़ बैरिस्टर सावरकर  नाम की चित्रगुप्त की लिखी किताब छपी 1926 में (यानी जब सावरकर माफ़ी मांगकर अंडमान से छूटकर रतनगिरी में हाउस अरेस्ट में रह रहे थे) सावरकर पर लिखी इस किताब के लेखक चित्रगुप्त को उनके जीवनकाल में कोई नहीं जानता था और उनके मरने के बाद प्रकाशक ने बताया कि चित्रगुप्त के नाम से दरअसल सावरकर ने ख़ुद अपनी जीवनी लिखी थी! अब जब सावरकर खुद ही दूसरे नाम से पुस्तक लिखेंगे तो अपनी बड़ाई तो करेंगे ही और खुद को कायर की जगहं वीर और हीरो तो सिद्ध ही करेंगे।
सावरकर ने अंग्रेज़ों को तमाम माफ़ीनामे लिखे, अपने अपराधों के लिए क्षमा माँगी, वफ़ादारी का भरोसा दिलाया और कहा कि सरकार उनका ‘जैसा चाहे वैसा उपयोग ‘कर सकती है। वे नौजवानों को विद्रोह के रास्ते से अलग करके अंग्रेज सरकार के पक्ष में लाएँगे। हुआ भी। उन्हें आज़ाद कर दिया गया और वे जीवन भर हिंदुओं और मुसलमानों को में जुटे रहे जैसा कि अंग्रेज चाहते थे। वंही दूसरी तरफ़ भगत सिंह थे जिन्हें फाँसी दी गई तो उन्होंने अंग्रेजों को लिखित प्रतिवेदन दिया कि उन्हें गोली से उड़ाया जाए क्योंकि वे युद्धबंदी हैं। 
मुख्य सवाल यह है कि लड़ाई से पीठ दिखाने वाले को वीर कैसे कह सकते हैं? हमें सावरकर का मूल्यांकन करते हुवे यह नहीं भूलना चाहिए कि जस्टिस जीवनलाल कपूर कमीशन ने गाँधी जी की हत्या का मुख्य षड़यंत्रकारी सावरकर को ही सिद्ध किया था। इसके पहले वायदामाफ़ गवाह की गवाही के बावजूद उसे सिद्ध करने वाले दूसरी गवाही न मिलने की वजह से सावरकर को संदेह का लाभ देकर अदालत ने छोड़ दिया था। सावरकर ने पहली माफ़ी अंडमान सेलुलर जेल माने काला पानी पहुँचने के एक माह के भीतर 30 अगस्त 1911 को ही मांग ली थी। लगातार पांच बार माफीनामा देकर अंग्रेजों से माफी मांगी और पांचवी माफी के बाद सावरकर को रिहा कर दिया गया। जेल से छूटकर सावरकर ने किया क्या? अगर माफ़ी रणनीति थी तो छूटने का उद्देश्य क्या था? अगर वह देश की आज़ादी थी तो छूटने के बाद उस आज़ादी के लिए क्या किया गया? इसका जवाब किसी के पास नहीं और यदि आपके पास है तो जरूर दें। आसान है यह कहना कि ख़िलाफ़त आन्दोलन से नाराज़ थे, मुश्किल है इस तर्क का जवाब कि मुक्त होने के बाद मुस्लिम विरोध का आन्दोलन चलाकर और 1937 में अहमदाबाद की हिन्दू महासभा की बैठक में अध्यक्षीय भाषण देते हुए यह कहकर कि हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं, कौन से अखंड भारत की स्थापना की कोशिश की जा रही थी? डा. अम्बेडकर का इस पर कहते हैं कि जिन्ना और सावरकर दोनों ही दो राष्ट्रों के सिद्धांत के समर्थक हैं।
पहली माफी अर्जी खारिज होने के बाद दूसरी मांगी 14 नवम्बर 1913 को पुनः मांगी और इस माफीनामे में ही भटका हुआ बेटा बताया था, और वादा किया था कि छूट गए तो और भटके हुओं को लौटाएंगे पर ये दूसरी अर्जी भी ख़ारिज हुई तब तीसरी मांगी 1917 में वो भी खारिज हुई। तपस्चात चौथी बार माफ़ी मांगी, अबकी बार माहौल जरा ठीक था उनके लिए- दिसंबर 1919 में सम्राट जॉर्ज पांचवे ने एक शाही घोषणा की थी- जिसमें भारत को घरेलू मामलों पर हक़ देने के साथ साथ रिश्ते बेहतर बनाने और राजनैतिक चेतना का स्वीकार भी था- सावरकर ने मौक़ा देखा और फिर माफ़ी मांग ली! अंग्रेजों ने सावरकर के भाई गणेश सावरकर को रिहा करने का विचार किया पर सावरकर को नहीं। कमाल यह कि इससे पहले गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने दोनों भाइयों की बिना शर्त रिहाई की मांग की जो अंग्रेजों ने ख़ारिज कर दी थी। फिर सावरकर ने पांचवीं माफ़ी मांगी- अपने मुकदमे, सजा और ब्रिटिश कानून को सही मानते हुए और हमेशा के लिए हिंसा छोड़ देने का वादा करते हुए। इस बार अंग्रेजों ने पहले उन्हें काला पानी से रत्नागिरी जेल में भेजा फिर सशस्त्र माफीनामा जो पहले मांग चुके थे उन्ही माफी के शर्तो के बाद ही 60 रुपये की पेंशन के साथ रिहा कर दिया। 
रिहाई के बाद सावरकर मुंबई में बसे और महाराष्ट्र का दौरा शुरू किया। पूना में इसी दौरान सावरकर ने ख़ुद को तिलकपंथी कहने वाले सनातनियों के संगठन डेमोक्रेटिक स्वराज पार्टी का साथ देना तय किया पहले और फिर उसके बाद हिन्दू महासभा का। मज़ेदार बात यह है कि इसके ठीक पहले वह रतनगिरी में छुआछूत और सामाजिक सुधार के आन्दोलन चला रहे थे जबकि सनातनी और हिन्दू महासभाई इसके ख़िलाफ़ थे। उसी समय गाँधी भी अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन चला रहे थे और कुछ समय पहले पूना में उन्हें जान से मारने की कोशिश भी हुई थी। लेकिन सावरकर सनातनियों के साथ गए। धनन्जय कीर ने अपनी पुस्तक वीर सावरकर में इसका सिर्फ़ एक कारण बताया है – सावरकर और सनातनियों में गाँधी के प्रति साझा नफ़रत।
यही नफ़रत सावरकर ने अपने शिष्य नाथूराम गोडसे और गोडसे के चेलों में भी ट्रांसफर कर दी। गोडसे की उनसे मुलाक़ात रतनगिरी में हुई थी जहाँ नाथूराम अपने पिता के स्थानान्तरण के बाद दो साल से रहा था। इस दौर में वह सावरकर के पर्सनल सेक्रेट्री (निजी सचिव) की तरह काम करता था। सावरकर ने गोडसे को अंग्रेज़ी भी सिखाई और साथ में उसके साथ कुंठा तथा हिंसा की अपनी विचारधारा भी तोहफे में दिया। एक अंधविश्वास के कारण लड़की की तरह सोलह की उम्र तक पला चुप्पा नाथूराम गोडसे, सावरकर के लिए एकदम योग्य शिष्य था। अपनी तरह की कुंठा से भरा, आदर्शवादी, राष्ट्रवादी और अन्दर से खोखला। जब गोडसे ने पूना से अखबार निकालने का निश्चय किया तो सावरकर ने पंद्रह हज़ार रूपये दिए। शिष्य गोडसे ने साम्प्रदायिक ज़हर से भरा अखबार अग्रणी निकाला तो उसके हर अंक में सावरकर की फोटो छपती थी। अग्रणी पर प्रतिबन्ध लगा तो हिन्दू राष्ट्र निकला, लेकिन सावरकर की तस्वीर वहीँ रही।
सावरकर ने अंडमान की जेल में रहते हुवे द इंडियन वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस – 1857 (1857 का प्रथम स्वतंत्रता) किताब लिखी नाखून, कील और कोयले से! यह सरासर शुद्ध झूठ है। निश्चित ही यह किताब उसके पहले लिखी जा चुकी थी क्योंकि नाखून, कोयला और कील से दीवार पर नारे लिखे जा सकते हैं, चार सौ पेज की किताब लिखने के लिए चार किलोमीटर लम्बी और इतनी ही चौड़ी जेल की कोठरी चाहिए। और एक फ्लेक्सिबल सीढी भी। लेकिन इस झूठ का ख़ूब प्रचार किया गया है। सरस्वती शिशु मंदिर स्कूल में यह क़िस्सा सुनाया जाता है। सिक्स ग्लोरियस एपो ऑफ़ इन्डियन हिस्ट्री आख़िरी किताब सावरकर की है जो कि मरने के बाद 1971 में छपी। 
महात्मा गाँधी हत्या केस में सरकारी गवाह बने दिगंबर बडगे ही नहीं बल्कि एक फिल्म अभिनेत्री ने भी इस बात की गवाही दी थी हत्या से ठीक पहले आप्टे और गोडसे सावरकर से मिलने गए थे। लेकिन जज साहब ने इसे पर्याप्त सबूत नहीं माना और भी कई घटनाएँ थीं जिन्हें पढ़ के लगता है कि शायद था कोई सरकार में, जो नहीं चाहता था कि सावरकर को सज़ा हो। फ़ैसले के ख़िलाफ़ दोषी पाए गए सबने अपील की लेकिन सरकार ने सावरकर को सज़ा देने के लिए कोई अपील नहीं की जबकि जांच अधिकारी नागरवाला का कहना था कि मैं आख़िरी साँस तक यही मानूंगा कि यह षड्यंत्र सावरकर का है। बाक़ी विस्तार से अपनी किताब में लिखूंगा ही।
गोपाल गोडसे छूटा तो उसके सम्मान में हुई जनसभा में लोकमान्य तिलक के नाती केतकर साहब बोल गए कि नाथूराम ने उन्हें बताया था पहले ही गाँधी हत्या के बारे में। तमाशा मचा तो सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज़ जस्टिस कपूर की अध्यक्षता में एक कमिटी बनाई। इस कमिटी ने बहुत विस्तार से जांच की और सावरकर के अंगरक्षकों सहित अनेक लोगों ने गवाही दी की हत्या के लिए निकलने से पहले नाथूराम और आप्टे सावरकर मिले थे। जो निकल के आया उसके आधार पर कपूर कमिटी ने सावरकर को गाँधी हत्या के षड्यंत्र  का दोषी पाया। लेकिन तब तक सावरकर एक गुमनाम ज़िन्दगी जीकर दुनिया से जा चुके थे। रिपोर्ट भी इतिहास में शामिल हो गई। वर्षों रिपोर्ट और सावरकर, दोनों गुमनामी में ही रहे और गुमनामी में ही रहेंगे।
एक उत्साही क्रांतिकारी की कायरता ने उसे जिस कुंठा में धकेल दिया था शायद गाँधी की हत्या ने उस कुंठा से निजात माने में मदद की होगी, लेकिन दुर्भाग्य सावरकर का कि जीते जी वह पराजित रहे। गुमनाम और अप्रासंगिक! अब जो लौटे हैं तो चमकाने की जितनी भी कोशिशें हों, यह दाग़ उनके साथ रहेगा ही। वीर लिखा करे कोई इतिहास में वह एक ग़द्दार षड्यंत्रकारी की तरह दर्ज हो चुके हैं और कायर और अंग्रेजों के तलवे चाटने वाले वीर सावरकर ही रहेंगे क्योंकि अंग्रेज उन्हे यूं ही पेंशन नहीं देते थे। और उन भक्तों के मन से जब भी उफान उतरेगा तो यही सच रह जाएगा।
जिस कायरता के साथ अंडमान से छूटने के लिए यह तक वादा कर आए थे कि मैं अपने युवा समर्थकों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने से रोकूंगा, वह काटती होगी भीतर-भीतर। कर्जन वायली की हत्या करने मदनलाल धींगरा को भेजने वाला सावरकर याद आता होगा और ख़ुद से घिन आती होगी ख़ुद उस घिन को दूर करने की कोशिश करते होंगे…. रिहाई के बाद 1921 से 1947 तक सावरकर ने कुछ भी ऐसा करने की हिम्मत नहीं की कि जिससे अंग्रेजों को उन्हें फिर गिरफ्तार करना पड़े। ये वीरता है या कायरता? खासतौर पर यह और याद करें तो कि इस स्तर के और किसी स्वतन्त्रता सेनानी के माफ़ी मांगने का इतिहास नहीं मिलता! वह छोड़ भी दें तो गांधी हत्या में सबूतों के आभाव में बच निकलने के बाद सावरकर लंबा जिए 26 फरवरी 1966 तक। रिहाई के बाद फरवरी 1966 तक सावरकर ने क्या किया? अगर कांग्रेस/सरकार जिसमें संघ के मुताबिक़ भी महान माने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री जी की भी सरकार थी, गलत थी तो उन्हें संघर्ष करना चाहिए थे। आखिर कम से कम काला पानी तो ख़त्म ही हो गया था! तो काला-पानी की सजा तो नहिए मिलती। नहीं किया तो क्यों? वीर थे या कायर? ये आप ही डिसाइड करें।
*अजय असुर**राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा उ. प्र

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