शशिकांत गुप्ते
मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगल।
सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये।
प्रख्यार कवि सुमित्रनन्दन पंतजी की उक्त कविता बचपन ही पढ़ी थी।यह कविता पाठ्य पुस्तक में थी।
कवि, बाल कल्पना को शब्दों में संजो कर कविता के रूप में प्रस्तुत करता है।कविता की उक्त पंक्तियां मर्म को छूने वाली है।
वर्तमान विचारहीनता के माहौल में कुछ धूर्त लोग मीठेझूठ की फसल लहलहाने की जुगत में है।
मीठेझूठ को ही कड़वा सत्य बताकर आमजन के समक्ष परोसा जा रहा है।
मीठेझूठ को भ्रष्ट्र आचरण के साथ मिलाकर मिलावटी सत्य निर्मित कर धड़ल्ले से लोगों को बेंचा जा रहा है।
बाजारवाद के तमाम हथकंडे अपनाते हुए विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को भरमाया जा रहा है।”पहले इस्तेमाल करों,फिर विश्वास करों।” ऐसे स्लोगन का उपयोग करतें हुए बार बार मिलावटी सत्य लोगों को इस्तेमाल करने के लिए सम्मोहित किया जा रहा है। सम्मोहन का असर खत्म होने पर लोग ठगा सा महसूस करतें हैं।
मिलावटी सत्य की पैकिंग चमकीले पीतल जैसी ही की जाती है।मीठेझूठ की फसल खनकाने वाले यह भूल जातें हैं। ऊपरी नकली पॉलिश की परत एक न एक दिन उतर ही जाती है।मिलावटखोरों के यहाँ छापा पड़ता ही है।
कुछ आदतन मिलावय खोर कितने बार भी पकड़े जाएं बार बार मिलावट का धंधा करने से बाज नहीं आतें हैं।
सत्य के साथ झूठ की मिलावट करने की कल्पना करना ही बुद्धिहीनता का प्रमाण है। यह जानतें हुए भी मिलावट करते ही रहतें हैं।
काठ की हांडी बार बार नहीं चढ़ती है। एक झूठ की छिपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़तें हैं।
मिलावट खोर इस भ्रम में हो सकतें हैं कि, दूध का दूध और पानी का पानी वाली कहावत को इसलिए झुठला सकता है कि, मिलावट खोर जानतें हैं इनदिनों दूध भी खालिस नहीं मिलता है? मिलावटखोरों का यह भ्रम अंतः भ्रम ही रहेगा।ऐसे लोगों को यह अच्छे से जान लेना चाहिए कि,झूठ के पाँव नहीं होतें हैं।झूठ लंबी दूरी तक चल नहीं सकता है।
झूठ को जल्दी ही लड़खडाके एक दिन गिरना ही पड़ता है।
मीठेझुठ की फसल उगाने वालें लोग भ्रष्ट्र आचरण के खाद का बहुतायत में उपयोग करतें हैं।इस कारण अच्छी खासी उपजाऊ जमीन भी बंजर हो सकती है।
इमानदारी की उपजाऊ जमीन को बंजर होने से बचाने के लिए मीठझूठ की फसल से सावधान रहना चाहिए।
सत्य कितना भी कडुवा हो सत्य अंतः सत्य ही रहता है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर