विघटित समाज कभी एक देश का निर्माण नहीं करता. सत्ता के अतिकेंद्रीकरण और धर्म के मिश्रण से औरंगजेब ने 150 साल से जमे मुगलिया सलतनत की जड़ें खोद दी थी. हमें तो अभी 75 नहीं हुए. ख़ैर, देश का जो होगा, सो होगा. वो राजनैतिक लड़ाई हारी जा चुकी है. 10 वर्ष की लगातार सत्ता किसी भी विचारधारा को गहरा आधार देने के लिए पर्याप्त है. इससे मोहभंग किसी बड़ी राष्ट्रीय क्षति के बाद ही होगा. आप इसका इंतजार ही कर सकते है, और इसके टलने की प्रार्थना कर सकते है.मगर सक्रिय लड़ाई अब घर पर है. अपने बच्चों को इस जॉम्बी वाद से बचाने की. उनको टीवी से बचाना है, मोबाइल से बचाना है, उंसके दोस्तों से बचाना है, सिनेमा हाल से बचाना है, किसी दल, संगठन से जुड़ने से बचाना है. नहीं बचाया, किसी दिन अपने या किसी और के खून से लथपथ होकर घर आएगा. हम उसकी लाश से बातें कर रहे होंगे, या वो हमें किसी और लाश का जस्टिफिकेशन दे रहा होगा.
मनीष सिंह
1757 में प्लासी की लड़ाई के पचास साल बाद तक अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को छुआ नहीं. पर जब यकीन होने लगा कि यहां उनको लम्बा टिकना है, तब अपने सेवक तैयार करने की जरूरत महसूस हुई. कम्पनी सरकार को स्किल डेवलपमेंट करना था ताकि सस्ते पीए, मुंशी, स्टोरकीपर, अर्दली, मुंसिफ और डिप्टी कलेक्टर मिल सकें. 1813 में कम्पनी के बजट में एक लाख रुपए शिक्षा के लिए रखे गए.
कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में यूनिवर्सिटी खुली. कलकत्ता यूनिवर्सिटी की जो पहली बैच के ग्रेजुएट निकले, उनमें बंकिम चन्द्र चटर्जी थे. वही सुजलाम सुफलाम, मलयज शीतलाम वाले … ! अंग्रेजी पढ़े छात्र ‘आनन्दमठ’ लिखने लगे, तो खेल कम्पनी सरकार के हाथ से फिसलने लगा.
दरअसल इंडियन्स ने अंग्रेजी पढ़ी तो वैश्विक ज्ञान के दरवाजे खुले. नए नवेले पढ़े-लिखों ने योरोपियन सोसायटी को देखा, उनके विचारकों की किताबें पढ़ी. लिबर्टी, सिविल राइट, डेमोक्रेसी, होमरूल .. जाने क्या क्या.
कुछ तो लन्दन तक गए, बैरिस्टरी छान डाली और अंग्रेजों को कानून सिखाने लगे. कुछ सिविल सर्विस में आ गए, कुछ ने अखबार खोल लिया. दादा भाई नोरोजी ब्रिटिश संसद में पहुंच गए ‘अधिकार’ मांगने लगे.
सरकारों को जब जनता की समझ और ज्ञान से डर लगे तो लोगों को लड़वाना शुरू करती हैं. कुछ समुदायों को विशेष फेवर और कुछ को डिसफेवर इसके औजार होते हैं. चूंकि 1857 की क्रांति के लिए अंग्रेजों ने मुस्लिम शासकों को दोषी माना, और मुसलमानों को इग्नोर करना शुरू किया. हिन्दू राजे और धार्मिक समाजिक लीडर्स पर सरकार का प्यार बरस रहा था.
लेकिन अब एक पढ़ी लिखी जमात पैदा हो रही थी. वह बहस करती थी तो उसने पढ़े लिखों की एक सभा बनवा दी, जिसमें देश भर के सभी ज्ञानी ध्यानी आते, बहस करते. अपनी मांग रखते, तो सरकार दो चार बातें मान लेती.
सभा को इंग्लिश में ‘कांग्रेस’ कहते हैं. सालाना बैठक को कांग्रेस का अधिवेशन कहा जाता. इस कांग्रेस में भी हिन्दू ज्यादा संख्या में थे. आबादी के हिसाब से तो यह स्वाभाविक था, पर जो अब तक राज में थे, याने मुस्लिम एलीट कुंठा बढ़ी. सत्ता में घुसपैठ का दूसरा रास्ता खोजना था, रास्ता शिक्षा थी. सैयद अहमद खान ने कौम को समझाया- अंग्रेज़ी पढ़ो, ब्यूरोक्रेसी में घुसो. वरना जो अपर हैंड पांच सात सौ सालों से है, खत्म हो जाएगा.
आज के लीडरान की तरह उनकी बात सिर्फ ज़ुबानी नहीं थी. खुद एक कॉलेज खोला, शानदार … जो अपने वक्त से काफी आगे का था. मुस्लिम जनता ने मदद की, मगर ज्यादा मदद नवाबों से आई. इस कॉलेज के चक्कर में उच्चवर्गीय मुस्लिम और नवाब एक साथ आये.
नवाबों को इसका एक अनएक्सपेक्टेड फायदा मिला. कांग्रेस तो पब्लिक फोरम था, वो अपनी कई मांगें जनता के फायदे की रखते थे लेकिन जेब रजवाड़ों की कटती थी. सैय्यद साहब और उनके सम्भ्रांत साथी, नवाबों के हित-अहित से जुड़ी मांगों, नवाबों के हक में रियायत का दबाव बनाते थे. यह एक पॉलिटकल फोरम के रूप में शेप में आने लगी. 1906 आते-आते यह मुस्लिम लीग में ढली.
ढाका नवाब चेयरमैन हुए, भोपाल नवाब सचिव. बंगाल विभाजन हुआ था. कांग्रेस बंग-भंग के विरोध में थी, लीग ने समर्थन किया. इस मास्टर स्ट्रोक मुस्लिम अब अंग्रेजो के प्यारे हो चले थे. उधर कांग्रेस नरम-गरम दो फाड़ हो गयी.
मुसलमान नवाबों को अपना पॉलिटकल कुशन मिल गया था. रह गए हिन्दू राजे रजवाडे. कांग्रेस का फेवर पाते नहीं थे, अंग्रेज सुनते नहीं थे. अपना कोई जनसंगठन न था. कुछ करने की उनकी बारी थी. तो देश भर में कई छोटे-छोटे संगठन थे, जो हिन्दू पुनर्जागरण और सामाजिक सुधार कर रहे थे. बहुतेरी हिन्दू सभाएं-संस्थायें थी. लाजपत राय जैसे कांग्रेसी भी इन्हीं से खाद पानी पाते थे, पर इन सबको जोड़ने वाला कोई चाहिए था. मिला- पण्डित मदन मोहन मालवीय. अवर वर्जन ऑफ सय्यद अहमद …!
पंडितजी ने अलीगढ़ से बड़ा, बेहतर, हिन्दू विश्वविद्यालय का बीड़ा उठाया था. जनता के बीच जा रहे थे. राजाओं ने खुलकर दान दिया, सभाएं करवायी. मालवीय साहब पूरे देश में घूमे, हिन्दू संगठनों को एक छतरी तले लेकर आये. काशी हिन्दू विश्विविद्यालय बना और लगे हाथ, अखिल भारतीय हिन्दू महासभा भी बन गयी. यह 1915 का वर्ष था. अब तीन संगठन अस्तित्व में आ चुके थे.
पहला- कामन पीपुल की बात करने वाली कांग्रेस, जो सिविल लिबर्टी, इक्वलिटी, सेकुलरिज्म की बात करती थी. इसको ताकत जनता से मिलती थी, धन मध्यवर्ग के साथ नए जमाने के उद्योगपति व्यापारी पूंजीपतियों से मिलता था. इसके नेता भारत के भविष्य को ब्रिटेन के बर-अक्स देखते थे.
दूसरी- मुस्लिम समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार मुस्लिम लीग, जिसकी ताकत मुस्लिम कौम थी, और फंडिग नवाबों, निज़ामों की थी. ये भारत का सपना उस मुगलकाल के बर-अक्स देखते थे, जिसमें सारी ताकत उनके हाथ में थी.
तीसरी- हिन्दू समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार और हिन्दू रजवाड़ों के हितों को ध्यान रखने करने वाली महासभा थी, जिसके लिए भारत का भविष्य मौर्य काल से लेकर शिवाजी की हिन्दू पादशाही के बीच झूलता था. इनकी फंडिंग तमाम किंग्स और संरक्षण सिंधिया जैसे राजाओं की थी, जो प्रिवीपर्स के खात्मे तक बदस्तूर जारी रही.
आगे चलकर अंग्रेज चुनावी सुधार करते हैं. सत्ता में भागीदारी खुलनी शुरू हो जाती है. मार्ले मिंटो सुधार और 1935 के इंडिया गवर्नेस एक्ट के आने के साथ, तीनों सेमी पॉलिटकल एनजीओ, चुनावी पार्टियों में तब्दील हो जाते हैं.
समय के साथ नए नेता इन संगठनों की लीडरशीप लेते हैं. ये गांधी, जिन्ना और सावरकर की धाराएं हो जाती हैं. इनमें दो धाराएं देश की घड़ी को, अपने-अपने प्रभुत्व वाले इतिहास के दौर तक, पीछे चलाना चाहती थी. एक धारा देश में आधुनिक लोकतंत्र बनाने का विचार रखती थी.
पीछे ले जाने वाली धाराएं आपस में खींचतान के बावजूद, जब जब कमजोर पड़ती हैं, मिल जाती हैं. वे विधानसभाओं में मिलकर सरकारें बनाती हैं, और सड़कों पर अपने समर्थकों से दंगे भी करवाती हैं. सत्ता की गंध से संघर्ष में खून का रंग मिल जाता है. 1947 में इस रंग ने भारत का इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, सब बदल दिया.
एक धारा पाकिस्तान चली गयी, मगर अवशेष बाकी है. दूसरी सत्ता में बैठे-बैठे सड़ गयी, उसके भी अवशेष ही बाकी हैं. तीसरी पर गांधी के लहू के छींटे थे. बैन लगा, तो चोला बदल लिया, नाम बदल लिया. अब ताकत में हैं, तो इतिहास की किताबें बदल रहे है. शिक्षा की तासीर बदल रहे हैं.
अजी हां, स्किल डेवलमेंट पर फिर फोकस है. उन्हें भी सोचने वाले दिमाग नहीं, आदेश सफाई से पूरा करने वाले हाथ चाहिये. नाई, धोबी, सुरक्षा गार्ड चाहिए. उधर कलकत्ता, अलीगढ़ और बनारस की यूनिवर्सिटीज आज भी खड़ी हैं लेकिन हिंदुस्तान का मुस्तकबिल बनाने वाले छात्र नदारद हैं. वे अपने अपने दल की सीटें गिन रहे हैं. धर्म की रक्षा के लिए व्हस्ट्सप यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रहे हैं.
एक पीढ़ी की उम्र 30 साल होती है. आजादी दौरान की पीढ़ी का समय आप 1960 तक मान सकते हैं. उस पीढ़ी ने आजादी की लड़ाई, बंटवारा और हिंसा का नंगा नाच देखा. वो पीढ़ी इस उथल पुथल के दौर से दग्ध थी. अपने बच्चों को भाईचारे, एकता और धर्मनिरपेक्षता का संदेश दिया. विज्ञान, नए दौर और सहिष्णुता की घुट्टी दी. उसने गरीबी देखी थी, शिक्षा और परिश्रम से गरीबी से उबरने की राहें खोजने की समझ अपने बच्चों को दी.
दूसरी पीढ़ी कोई 1990-95 तक समझिये. इस दौरान शिक्षित, सहिष्णु, परिश्रमी वर्ग में देश को मजबूत बनाने में समय लगाया. खाक से शुरू कर एक सामान्य मध्यम, कंफर्टेबल जीवन अपने बच्चों को दिया. उसे हर तकलीफ़ से बचाया. रिलेटव इज के साथ बढ़ी यह पीढ़ी, गढ़े हुए मन्दिर मस्जिद विवाद, मुम्बई, गोधरा, कश्मीर अहमदाबाद की गवाह हुई. नई सदी में इनका वक्त आया तो दबे छिपे रूप में ही सही, कंम्यूनलिज्म दिमाग के एक हिस्से बैठा हुआ था. निजी बातचीत में ‘उनको’ ठीक करने की बातें करता था. मौका मिले तो निपटा देने की सोच थी. देश की राजनीति में इस भावना का दोहन करने वाले मजबूत हो रहे थे.
आज 2020 के आते-आते अगली पीढ़ी पूरी तरह इस रंग में रंग चुकी है. सत्ता इस भावना को भड़का रही है. इस पीढ़ी ने न युद्ध देखे है, न हिंसा और न उस स्तर की गरीबी. फ्री डेटा और बकने की आजादी इसमें घी का काम कर रही है. नफरती बातों के लिए कोई लोक लाज नहीं है. अगर किसी को कुछ इतिहास बोध हो भी, तो उसे प्रोपगंडा से धवस्त किया जा रहा है. धर्मनिपेक्षता और लिब्रलिज्ज्म गाली है. नेहरू, गांधी मख़ौल के पात्र हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि जिन्ना स्टाईल का डायरेक्ट एक्शन यहां वहां देखने को मिल रहा है. लिंचिंग को स्वीकार्यता मिल चुकी है. जल्द ही ये अनकहा सिविल राइट हो जायेगा.
इसे रिवर्स करने का मौका हम खो चुके हैं. 2019 पुरानी पीढ़ी के बचे लोगों के पास आखरी मौका था. अब तो 30 साल हमें यह सब बढ़ते क्रम में देखना है. कांग्रेस हमारा डीएनए थी. अब भाजपा होगी. और ये गांधीवादी समाजवाद की भाजपा नहीं, ये गोडसे, सावरकर, बाबू बजरंगी की भाजपा है.
इतिहास में ऐसे शासन तबाही के रास्ते पर ले जाते देखे गए हैं. विघटित समाज कभी एक देश का निर्माण नहीं करता. सत्ता के अतिकेंद्रीकरण और धर्म के मिश्रण से औरंगजेब ने 150 साल से जमे मुगलिया सलतनत की जड़ें खोद दी थी. हमें तो अभी 75 नहीं हुए. ख़ैर, देश का जो होगा, सो होगा. वो राजनैतिक लड़ाई हारी जा चुकी है. 10 वर्ष की लगातार सत्ता किसी भी विचारधारा को गहरा आधार देने के लिए पर्याप्त है. इससे मोहभंग किसी बड़ी राष्ट्रीय क्षति के बाद ही होगा. आप इसका इंतजार ही कर सकते है, और इसके टलने की प्रार्थना कर सकते है.
मगर सक्रिय लड़ाई अब घर पर है. अपने बच्चों को इस जॉम्बी वाद से बचाने की. उनको टीवी से बचाना है, मोबाइल से बचाना है, उंसके दोस्तों से बचाना है, सिनेमा हाल से बचाना है, किसी दल, संगठन से जुड़ने से बचाना है. नहीं बचाया, किसी दिन अपने या किसी और के खून से लथपथ होकर घर आएगा. हम उसकी लाश से बातें कर रहे होंगे, या वो हमें किसी और लाश का जस्टिफिकेशन दे रहा होगा.
देश चाहे जिसको सौंप दिया, घर बचा लीजिये. आख़िर बच्चे तो आपके हैं न … !