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ध्यान का विज्ञान : त्रैलोक्य मीमांसा और परा-अपरा प्रकृतियाँ 

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        डॉ. विकास मानव 

   अनन्त ब्रह्माण्ड अनन्त आकाश में, अनन्त शून्य में अन्तहीन कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं। शुद्ध ज्ञानमय, ज्योतिर्मय ब्रह्म-समुद्र में अनन्त ब्रह्माण्ड का तरंगों की तरह उदय और लय हो रहा है तो कहीं पर विनाश का ताण्डव चल रहा है। किसी ब्रह्माण्ड पर तो प्रलय का समय आ गया है। 

     कहीं पर विचित्र सृष्टि देखने में आ रही है। कहीं पर जीव-शून्य भूमि दिखलाई पड़ रही है। उसी प्रकार महाशून्य में अलग-अलग आवरण से अनेक ब्रह्माण्ड अनन्त काल से घूम रहे हैं अनन्त आकाश में। 

     अगर विचार पूर्वक देखा जाय तो दस दिशा-व्यापी अनन्त आकाश किस जगह जाकर अन्तहीन होगा–हम कल्पना भी नहीं कर सकते। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि दसों दिशाओं के आकाश की कहीं कोई परिधि है ? जिस प्रकार से आधाररूपी आकाश की सीमा का न तो किसी दिशा में आदि है और न तो है अन्त, उसी प्रकार दृश्यमान ग्रह-उपग्रह, सूर्य द्वारा परिव्याप्त ब्रह्माण्ड समूह भी अनन्त होंगे–इसमें कोई सन्देह नहीं।

      लेकिन उस विराट पुरुष अथवा परब्रह्म के जो रचयिता हैं–उसके स्वरुप का ध्यान कर हमारा मन आश्चर्यचकित हो जाता है और हो जाता है मस्तिष्क शून्य। सोचने की क्षमता ही ख़त्म हो जाती है एकबारगी उस विराट ब्रह्माण्ड की कल्पना करके। ईश्वर की चित् सत्ता और सत् सत्ता के आश्रय से महाप्रकृति के स्वाभाविक, त्रिगुण तरंगमय, आध्यात्मिक सृष्टि का अनन्त विस्तार है और निरन्तर हो रहा है जिसका न तो आदि है और न है अन्त ही। 

     इसलिए आध्यात्मिक सृष्टि को ‘नित्य सृष्टि’ कहा गया है। परब्रह्म अनादि, अनन्त होने से महाप्रकृति, सृष्टि, स्थिति, प्रलय का क्रम भी अनन्त है।

      सृष्टि-क्रम प्रकृति में चार प्रकार की सृष्टि होती है। पहली सृष्टि ‘अदृष्ट’ से उत्पन्न होती है और दूसरी सृष्टि ‘विवर्तभाव’ से होती है उत्पन्न। तीसरी सृष्टि ‘परिणात्मिका’ है और चौथी सृष्टि ‘प्रारम्भ सृष्टि’ कहलाती है।इनमें से ‘अदृष्ट सृष्टि’ और ‘प्रारम्भ सृष्टि’  जीव-पिण्ड से सम्बन्ध रखती है। ‘अदृष्ट सृष्टि’ जीव के पूर्ण कर्मों द्वारा होती है जिससे जीव का शरीर उत्पन्न होता है और जिसके लिए जीव पराधीन है।

      ‘प्रारम्भ सृष्टि’ जीव के कर्म द्वारा होती है। दूसरी ओर ‘विवर्त’ और ‘परिणामी’ सृष्टि प्रकृति से सम्बन्ध रखती है। जीव सृष्टि का प्रवाह ब्रह्माण्ड में चलता रहता है, वही ‘परिणामी’ सृष्टि कहलाती है।

सृष्टि के जो चार भेद हैं, जब पिण्ड और ब्रह्माण्ड के साथ मिलाकर देखें, तो सृष्टि का स्वरुप स्पष्ट हो जाता है।

       ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार स्थूल ब्रह्माण्ड का वर्णन मिलता है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड की केंद्रशक्ति सूर्य ही है। तदनुसार यह ब्रह्मण्डवर्ती सूर्य ही इस ब्रह्माण्ड का केंद्र है। समस्त ग्रह-उपग्रह उसीके आकर्षण और विकर्षण शक्ति के प्रभाव से उसी के चारों ओर प्रदीक्षिणा करते हैं। 

      समस्त ब्रह्माण्ड में ज्योतिष्मान कोई भी वस्तु नहीं है। समस्त ज्योति का आधार रूप सूर्य है। ब्रह्माण्ड के अंतर्गत समस्त ग्रह-उपग्रह में सूर्य रूपी ज्योति का संचार है। हमारे सौर मण्डल में अब तक 268 ग्रह-उपग्रहों का पता चला है जो सूर्य के प्रकाश से ज्योतिष्मान होकर सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं।

      ग्रह सूर्य की प्रदक्षिणा करते हैं और उपग्रह ग्रहों की। इन सब ग्रहों और उपग्रहों को लेकर सूर्य भी किसी अज्ञात ‘ध्रुव-केंद्र’ की प्रदक्षिणा करता रहता है।

      सभी ग्रह-उपग्रह का स्थूल रूप पञ्चभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) से बना है। किसी में एक तत्व प्रधान है तो किसी में दो तत्व प्रधान हैं। जहां तक पृथ्वी का सवाल है, इसमें पांचों तत्वों की प्रधानता है। सभी ग्रह-उपग्रहों में सूक्ष्म जीवों का वास होता है।

      कोई भी ग्रह-उपग्रह जीव-शून्य नहीं है। 268 ग्रह-उपग्रहों में आठ ग्रह मुख्य हैं। क्षुद्र ग्रह 240 हैं और उपग्रह या चंद्रग्रह 20 हैं। इसके अनुसार पृथ्वी का 1 चन्द्रमा है और मंगल के 2, गुरु के 4, शनि के 8, यूरेनस के 4 और नेप्च्यून के 1 चन्द्रमा का प्रमाण मिलता है। आपको ज्ञात होना चाहिए कि हमारी पृथ्वी 365 दिनों में सूर्य की एक बार परिक्रमा लगाती है। इसी प्रकार अन्य ग्रह भी अपनी गति से सूर्य की प्रदक्षिणा कर रहे हैं।

       नेप्च्यून के बाद अभी तक किसी भी ग्रह का पता नहीं चला है। इसलिए सूर्य को सौर परिवार का अन्तिम ग्रह (नक्षत्र) माना जाय तो इसका व्यास और इसकी परिधि कितनी होगी–हम-आप कल्पना भी नहीं कर सकते। 

     यही अनन्त आकाश में अविराम भ्रमणशील हमारे ब्रह्माण्ड आनुमानिक परिणाम हैं जिसकी केंद्रशक्ति तथा प्रकाश का एकमात्र आधाररूप सूर्य ही है। अपने समस्त सौर परिवार सहित यह तीव्र गति से महासूर्य रुपी ध्रुव के चारों ओर प्रदक्षिणा कर रहा है। 

     यही पंचमहाभूतमय स्थूल ब्रह्माण्ड है। ऐसे अनन्त ब्रह्माण्डों द्वारा ब्रह्म का विराट स्वरुप शुशोभित है। यही अनादि और अनन्त आध्यात्मिक चमत्कार है समस्त चराचर जगत की मानसिक सृष्टि की थी। ब्रह्माण्ड की सभी सृष्टियों में आदिदेव ब्रह्मा की ही मानस सृष्टि है।

      इस समस्त सृष्टि को दस भागों में विभक्त किया गया है। आदि ग्रन्थों में यही प्रमाण मिलता है। प्रकृति के गुण-स्वभाव से पहली सृष्टि ‘महत्तत्व’ है और दूसरी सृष्टि है ‘अहमतत्व’ की जो द्रव्यात्मक, क्रियात्मक और ज्ञानात्मक सृष्टि उत्पन्न करने वाला है।

      तीसरी सृष्टि सूक्ष्मतत्व अथवा सूक्ष्म तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) की है जिनमें स्थूल पंचमहाभूत उत्पन्न करने की शक्ति निहित है। चौथी सृष्टि ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेंद्रिय की है। पांचवीं सृष्टि इन्द्रिय अधिष्ठातृ देवों की है और छठी सृष्टि है मन की।.

      तम, मोह, महामोह, तमिश्र और अन्धतमिश्र नामक अविद्या की है जो अबुद्धिपूर्वक स्वतः उत्पन्न होती है। यह छः प्रकार की सृष्टि प्राकृतिक है। इसके बाद सातवीं, आठवीं और नवमी सृष्टि जिसमें उद्भिज, स्वेदज, अंडज, जरायुज, पशु जरायुज और मनुष्य है। ये सब ‘वैकृत’ सृष्टि है। दैवी सृष्टि दसवीं सृष्टि है।

     ब्रह्माण्डीय गति का प्रवाह चक्रावर्त होने के कारण व्यष्टि सृष्टि का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर होता है अर्थात् तमोगुण से सत्वगुण की ओर चलता है। परन्तु समष्टि सृष्टि का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर चलता है। इसलिए ब्रह्माण्ड प्रकृति-सृष्टि के समय सत्वगुण (सतयुग) पहले आता है और रजोगुण तथा तमोगुण की अभिव्यक्ति होकर सतयुग के सत्-रज प्रधान (त्रेतायुग), रज-तम प्रधान (द्वापरयुग) और तमप्रधान (कलियुग) का उदय होता है।

       यही ब्रह्माण्ड प्रकृति की चक्रावर्त गति है। लेकिन देव-जगत में ब्रह्माण्डीय प्राकृतिक गति अधोमुख है जिसके कारण तामसिक शक्ति पहले उत्पन्न होती है। मानव में यही कारण देखा गया है। पौराणिक ग्रंथों में आसुरी शक्ति जब प्रबल होती है तो उसके बाद दैवीय शक्ति का प्रादुर्भाव होता है।

      सृष्टि के विस्तार के लिए ब्रह्माजी ने सात्विक मन से निराकार ब्रह्म के ध्यान की अवस्था में ही मनन किया। मनन करते ही प्रथम मानस सृष्टि हुई जिससे चार पुत्र हुए–सनक, सनन्दन, सनातन और सनत कुमार। ब्रह्माण्ड प्रकृति की ये प्रथम अभिव्यक्ति होने से ये चारों पुत्र ऊर्ध्वरेता और कर्ममार्ग से पूर्ण अनासक्त थे। 

    जब ब्रह्माजी ने प्रजा सृष्टि चाही तो उन्होंने अस्वीकार कर मोक्षधर्म परायण होकर वे परब्रह्म में रम गए।

        देखा जाय तो यह प्रथम सृष्टि है ब्रह्माण्ड प्रकृति की। इसका वर्णन भागवत में विस्तार से मिलता है। ब्रह्मा ने पुनः ध्यान किया तो प्रकृति के सञ्चालन हेतु दस मानस पुत्रों की उत्पत्ति हुई जिनके नाम इस प्रकार हैं– मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वशिष्ठ, दक्ष और नारद।

      ब्रह्माण्ड प्रकृति की गति निम्नाभिमुख होने से दस मानस पुत्रों की इच्छा भी हुई सृष्टि का विस्तार करने की।। वे पूर्वोक्त चार पुत्रों की तरह निष्काम नहीं हुए। इसलिए इन्हें प्रजापति कहते हैं। ब्रह्मा की आज्ञा के अनुसार इनके द्वारा मानसी सृष्टि हुई।

उत्पत्ति का रहस्य दस प्रजापतियों में ब्रह्माण्ड प्रकृति के दूसरे स्तर में उत्पन्न होने के कारण पूर्ण सत्वगुण न होकर कुछ रजोगुण का मिश्रण हो गया।

        परन्तु परम तेजस्वी होने के कारण उन्होंने मन की ही शक्ति से प्रलय विलीन जीवों को उनके कर्मानुसार त्रिविध शरीर युक्त करके यथादेश में, यथाकाल में स्थापित कर दिया।

        उनके द्वारा ब्रह्माण्ड प्रकृति के तीसरे स्तर की जो मानवी सृष्टि हुई, उसमें पूर्ण ब्राह्मण की सृष्टि हुई। क्योंकि ब्राह्मण प्रकृति के तीसरे स्तर में सत्वगुण का विशेष और रजोगुण का अल्प प्रभाव रहने के कारण सत्वगुण प्रधान ब्राह्मण के लिए ही ब्रह्माण्ड प्रकृति वह देश-काल अनुकूल था। इसलिए इस सृष्टि में ब्राह्मण ही उत्पन्न हुए। ब्राह्मण का अर्थ वर्ण् या जाति से नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि पूर्ण सात्विक मानव के जन्म के लिए है।  

     हमारे धर्मग्रंथों में कहा गया है कि जन्म के समय बालक ईश्वर का रूप होता है। उस बालक की तुलना ईश्वर से की जाती है क्योंकि उस समय वह पूर्ण सात्विक होता है। फिर अपने कर्मानुसार वह आगे बढ़ता है।

                                                                 परा और अपरा प्रकृतियॉ :

     इस परब्रह्म मे दो प्रकार की प्रकृतियाँ निहित है , परा और अपरा. प्रकृति कहते है  ये दोनो प्रकृतियाँ उससे अभिन्न  तथा अप्रकट रूप मे विधमान रहती है परब्रह्म की इन दोनों प्रकृतियाँ से  ही सृष्टि की रचना होती है तथा परब्रह्म इन दोनो में विलक्षण हैइन प्रकृतियों का विस्तार ही दृश्य जगत है.  इन प्रकृतियों की स्वतन्त्र सत्ता नही है. वह परब्रह्म ही नित्य एवं शाश्वत हैजबकि ये प्रकृतियाँ अनित्य एवं विनाशी है किन्तु ज्ञान के अभाव मे य् नित्य जैसी प्रतीत होती है. यही भ्रम है जिसे माया कहते है.

       प्रकृति को नित्य मानना ही,, माया,, है जो जीव के बन्धनका कारण है सत् का ज्ञान होने पर ये प्रकृतियाँ अपने कारण परब्रह्म मे विलीन हो जाती है इसी को जीव की मुक्तावस्था कहते है.  इस प्रकार जड़ चेतनात्मक जगत का एकमात्र निमित एवं उपादान कारण वह परब्रह्म ही हैजिससे सृष्टि की रचना संचालन एवं प्रलय होता है ।यही मूल तत्त्व है मनुष्य के कई कोष और कई शरीर हैं जिनमें प्रायः स्थूल शरीर, वासना शरीर और सूक्ष्म शरीर तो पूर्ण विकसित रहते हैं और क्रिया करने के योग्य रहते हैं। 

      शेष मनोमय शरीर,विज्ञानमय शरीर और आनंदमय शरीर और उनसे सम्बंधित कोष पूर्णरूप से विकसित नहीं होते हैं और न होते हैं पूर्ण क्रियाशील ही। सच पूछा जाय तो जीवात्मा का पूर्ण अधिकार अभी न स्थूल शरीर पर है और न तो है सूक्ष्म शरीर पर ही। 

     अन्य शरीर और अन्य कोषों की बात करना तो व्यर्थ ही है। पूर्ण अधिकार न होने के कारण तीनों प्रथम, द्वितीय और तृतीय शरीर कभी कभी जीवात्मा के विपरीत भी हो जाते हैं जिसका परिणाम होता है-भयंकर और असाध्य बीमारियों का जन्म।

      सभी प्रकार की शारीरिक और मानसिक बीमारियों के मूल में एकमात्र यही कारण है। हम आप सभी यही समझते हैं कि हमारा शरीर बीमार हो गया। स्थूल शरीर रोगी हो गया। वास्तविकता यह है कि सर्वप्रथम रोग सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर में उत्पन्न होता है। लेकिन प्रकट होता है रोग और कष्ट स्थूल शरीर में। 

      इसी प्रकार जब रोग और कष्ट का उपचार होता है तो वह प्रभाव पड़ता है सर्व प्रथम मनोमय या सूक्ष्म शरीर के ऊपर। आधुनिक एलोपैथिक दवाइयों का प्रभाव ज्यादातर स्थूल शरीर तक ही सीमित रहता है जिससे असाध्य रोग ठीक नहीं हो पाते हैं। होम्योपैथिक और आयुर्वेदिक दवाइयों का प्रभाव सूक्ष्म शरीर और मनोमय शरीर तक होता है जहाँ से बीमारियों का जन्म होता है।

       यही कारण है कि यदि हमें रोग से पूर्णरूप से मुक्ति पानी है तो हमें आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक उपचार लेना पड़ता है। इसका एक मात्र कारण होता है दवाइयों की घर्षण के द्वारा पोटेंसी का बढ़ाया जाना। जितनी पोटेंसी ज्यादा होगी दवाई की उतनी ही सूक्ष्म पहुँच होगी उसकी।

 मन की दो स्थितियां हैं,निम्न स्थिति और उच्च स्थिति।

      निम्न स्थिति से सभी परिचित हैं, इसलिए कि उस स्थिति से स्थूल शरीर, वासना शरीर, सूक्ष्म शरीर और उनसे सम्बंधित तीनों कोषों से है और वे शरीर और वे कोष सक्रिय हैं जिनसे जीवात्मा का सम्बन्ध है। लेकिन सबंध होते हुए भी उन पर जीवात्मा का पूर्ण अधिकार नहीं है।

      इसी प्रकार मन की दूसरी स्थिति से मनोमय शरीर, विज्ञानमय शरीर और आनंदमय शरीर और उनसे सम्बंधित कोषों से है। अध्यात्म के अनुसार साधना के बल पर जब मनुष्य का अधिकार  अपने स्थूल शरीर (अन्नमय कोष), वासना शरीर,वासनामय कोष,सुक्ष्म शरीर,प्राणमय कोष, पर हो जाता है तो पहली स्थिति का मन शुद्ध और निर्मल होकर दूसरी स्थिति के मन में मिल जाता है।

      मन की दोनों स्थितियां मिलकर एक हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में जीवात्मा का देहाभिमान समाप्त हो जाता है और उसका जीवभाव भी नष्ट हो जाता है। वह अपने कारण शरीर को उपलब्ध होकर आत्मतत्व और परमात्मतत्व के निकट पहुँच जाता है।

 कारण शरीर को उपलब्ध जीव आत्मा को अंतरात्मा कहते हैं। 

     परमात्म तत्व के निकट होने पर परमात्मा का प्रभाव आत्मा पर पड़ने लगता है। जब पूर्णरूपेण प्रभाव पड़ने लगता है तो अपार्थिव सत्ता में विद्यमान आध्यात्मिक मंडली के सर्वोच्च पद पर आसीन महापुरुष उस आत्मा को महात्मा पद की दीक्षा प्रदान करते हैं। दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् उस आत्मा का सच्चे अर्थों में विकास संभव होता है।

    उस विकास से साधारण लोग परिचित नहीं हैं। वैराग्य मोक्ष प्राप्त करने की अन्यतम साधन है मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष के का मूल कारण है मन एवं मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो: है जब तक जड़ मजबूत ना हो वृक्ष की स्थिरता नहीं हो सकती इसी प्रकार बिना वैराग्य की परम ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती अतः ज्ञान की सिद्धि के लिए वैराग्य का आवश्यकता है।

       वैराग्य का मतलब यह भी नहीं कि अपना सब कुछ छोड़ कर गेरवें वस्त्र धारण करें  वैराग्य इंद्रियों को विषयों में न जाने देना त्याग और जाने पर भी आसक्ति का न रहना वैराग्य कहलाता है।

      इंद्रियों को विषय में रमण ने कर दे ना त्याग है विषयो से रमण न करना ही वैराग्य है और वैराग्य का फल सन्यास है बिना त्याग वैराग्य की उपलब्धि नहीं अंदर के राग की निवृत्ति न होने पर फिर ज्यों की त्यों हालत हो जाती है।

       जैसे रोग की जड़ न टूटने पर रोगी पुनः रोग ग्रस्त हो जाता है ठीक उसी प्रकार तपस्वी यदि विवेकपूर्ण त्याग न करे केवल किसी सिद्धि आदि पाने के लिए हठमात्र से विषयों से दूर रहे तो मौका आने पर राग की प्राप्ति होकर विषयासक्त हो जाता है।

      मन सर्वथा विषय में जाए ही नहीं यही मुक्ति है मुक्ति में आनंद ही आनंद है विषय और आनंद का साहचार्य नहीं है सुषुप्ति के अंदर आनंद रहता है और विषय कोई नहीं रहता मोक्ष में केवल आनंद ही है विज्ञानं आनंदं ब्रह्मं।

इंद्रियों का विषय की तरफ जाना मृत्यु का कारण है शब्दादि विषयों में सुख नहीं अतः है भूलकर भी इनसे प्रीति ना करें यदि विषयो में सुख होता तो विषय भोगने से तृप्ति होती एक विषय भोगते ही दूसरे की कामना ना होती पर ऐसा नहीं होता विषय भोग से है अतृप्ति ही  होती है अतः सिद्ध होता है कि विषयों में आनंद नहीं है जो थोड़ा बहुत सुकून मिलता सा लगता है। 

      वह भी अत्यंत चंचल होता है स्थाई नहीं होता समाधि में भी भासमान योगानंद भी निश्चित करा देता है कि आनंद विषयों में नहीं हो सकता क्योंकि समाधि तो विषयों से सर्वथा शुन्य स्थिति है साधारण व्यक्ति सुषुप्ति पर विचार करे तो समझ सकता है कि आनंद विषयों पर बिल्कुल भी निर्भर नहीं है बल्कि विषय रहने पर ही भरपूर आनंद उपलब्ध होता है।

       कुल विषयों का सामान्य वर्गीकरण करे तो शब्द स्पर्श रूप रस गंध के पांच वर्ग हैं अतः शबदादि पांच ही विषय कहे जाती हैं इन से एक भी विषय मृत्यु के लिए काफी है अपने अपने स्वभाव के अनुसार शबदादि पांच विषयों में से केवल एक एक से बंधे हुए  हिरण हाथी पतंग मछली और भवरे मृत्यु को प्राप्त होते हैं फिर इन पांचों में जकड़ा हुआ मनुष्य कैसे बच सकता है।

   हरिण- गायन सुनने के वश मृत्यु को प्राप्त होता है(कर्णेन्द्रिय का आसक्ति)

   मातगं(हाथी)- स्पर्शसुख के वशीभूत हुआ पकड़ा जाती है ( स्पर्शेन्द्रियासक्ति)

    पतगं- रूप का मोह बत्ती मे आसक्ति होने पर जल जाता है (रूपासक्ति)साधारण मनुष्य भी रूपासक्ति मे फँस कर अधोगति को प्राप्त होता है ।

  मीन- रसनेन्द्रिय (जीभ)की आसक्ति से मृत्यु को प्राप्त होता है (रसासक्ति).

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