समीक्षक अशोक मधुप
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बिजनौर के रहने वाले गुरूग्राम में जा बसे नवनीत कुमार का कविता संग्रह “बांसती पल” पाकर मैं आश्चर्य चकित रह गया। आश्चर्य इसलिए हुआ कि मैं नवनीत कुमार और उनके परिवार को अच्छी तरह जानता हूं। नवनीत जी के पिता स्वर्गीय चैतन्य स्वरूप गुप्ता जाने−माने शिक्षाविद थे। वे बिजनौर के प्रसिद्ध राजा ज्वाला प्रसाद इंटर काँलेज के लंबे समय तक प्रधानाचार्य रहे। नवनीत विज्ञान के छात्र रहे । रसायन विज्ञान में पीएचडी की।एचआर में एमबीए और डिसालटर मिटीगेशन में एमएससी किया ।एक विज्ञान के विशेषज्ञ का लिखा कविता संग्रह पाकर आश्चर्य हुआ।सोचने लगा एक विज्ञानविद का कविता और साहित्य से क्या वास्ताॽ पर जब बांसती पल खोलकर पढ़नी शुरू की तो पढ़ता चला गया।एक सीटिंग में ही पूरी पुस्तक पढ़ डाली।
पुस्तक में 40 कवितांए हैं और इन्हें लेखक ने तीन भागों में बांटा है।पहले भाग में प्राकृतिक और सांस्कृतिक सौंदर्य दूसरे में व्यंग्यात्मक और तीसरे भाग में सामाजिक एंव अन्य रचनांए हैं। 1955 में जन्में नवनीत का यह कविता लिखने का शौक सेवानिवृति के बाद का है। वह कहतें हैं कि ये सब कवितांए पिछले एक डेढ़ साल की ही लिखी हुई हैं। वे बताते हैं कि मुझे प्रकृति और पेड़ − पौधों से शुरू से लगाव है।घर के अलावा अपने तैनाती वाले स्थान पर भी वे वहां की हरियाली बढ़ाने के प्रयास में लगे रहते।प्रकृति के नजदीक रहने के कारण उन्हें बसंत सबसे ज्यादा भाता।सुमित्रानंदन पंत उनके प्रिय कवि रहे। समय मिलने पर कबीर तथा और अन्य कवियों को भी पढ़ते रहे।पहली कविता भी उन्होंने बसंत पर लिखी।पेड़− पौधों प्रकृति से लगाव था, ते शब्द अपने आप उतरते चले गए। सिलसिला शुरू हुआ तो अब लगातार जारी है।वे पुस्तक में लिखे दो शब्द में कहते भी हैं कि “ बचपन से ही मुझे प्रकृति की शोभा, वनस्पति की हरियाली ऋतुओं का सौंदर्य और पर्यावरण की मोहकता आकर्षित करती रही है। इन सबको देख कर मेरे हृदय में आनन्द का संचार होता था। बड़ी कक्षाओं में पहुंचते-पहुंचते मेरी भावनाओं ने मेरे शब्दों का रूप लेना शुरू कर दिया । इसे कविता ना कहकर तुकबंदी ही कहा जा सकता है। लेखन का वास्तविक तौर प्रारंभ हुआ मेरे सेवानिवृत्ति के पश्चात, जबकि मैं अपना मनचाहा समय निश्चिंत होकर साहित्य साधना में लगाने लगा विभिन्न प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक पर मेरी भावनाएं उड़ान भरतीं और मैं उन्हें शब्दों में ढ़ालता गया। मेरी सहधर्मिणी नीरू कुमार मेरी प्रथम श्रोता और समीक्षक थीं। जो बड़े धैर्य से मेरी रचनाओं को सुनतीं और उचित सुझाव देतीं। मेरे कई साहित्यिक मित्रों ने मेरी रचनाओं को सराहा और मुझे लिखते रहने के लिए प्रोत्साहित किया।”
बासंती पल का प्रिंटिग जितना सुंदर हैं, उतनी ही सुंदर और भावपूर्ण रचनांए भी।
उनकी कुछ रचनांए−
बादल घेरे सूरज को , धरती मांगे बीज।
मन मयूर नाचे गगन, ये हरियाली तीज।
−शनैःशनैः सर्दी बढ़े,कार्तिक दान – स्नान।
गंगातट की रेत पर , खिचड़ी ही पकवान।
n बसंत ऋतु
पीली सरसों का अंबर है,
धरती पर सोना पिघला है।
पीली धरती,पीली चुनरी,
पीली पंतग लहराई है।
फिर बसंत ऋतु आई है।
चांदी के घूंघरू पांवों में,
सोने के कंगन बांहों में ।
जो अभिनय की तरूणाई है,
ये कौन दुल्हन सी आई है।
फिर बसंत ऋतु आई है।।
−−
लो फिर चली पुरूआई है
ज्येष्ठ की अगन, जलता है तन,
सावन की रिमझिम से भीगे है मन,
कहीं से मिट्टी की सोंधी सुगंध आई है,
लो फिर चली पुरूआई है।
−−
कविताओं में अलग तरह के उपमान लिए गए हैं। जो पुस्तक के समाप्त होने तक पाठक को अपने से बांधे रखते हैं। ये अलग से प्रतीक कविताओं में रोचकता बनाए रखते हैं।
गांव का सावन
कच्चे आंगन कच्चे चूल्हे
भीग गए सब फिर भी भूले,
युवा बच्चे सब हैं फूले
गाँव गाँव डालों पर झूले,
पेड़ों पर हरियाली रंगत
भीग गई चिड़ियों की पंगत
घीसू, हलकू, नन्दू भीगे,
भीग गई हामिद की संगत।
हीरा,मोती, माधव भीगे
भीग गई बुधिया की अंगिया
खेत− खेत घुटनों तक पानी
नहीं सड़क की बची निशानी।
कवितांए वर्णात्मक के साथ चित्रात्मक भी हैं। लेखक जो लिखता है, उसे पढ़ते समय ऐसा लगता है कि लेखक पुस्तक के पन्ने पर कविता में चित्र उतार रहा हो।
कविता “सर्दी की धूप ”में कवि कहता है।
सर्दी की इस नरम धूप में ,
छत पर पापड़ दहक रहे हैं
अदरख , मिर्ची, नींबू भी
बरनी में पककर महक रहे हैं।
दादा− दादी मुह को ढ़ककर
धूप सहर की सेक रहे हैं,
चुनमुन खाती गुड़ की पट्टी
बदंर बैठे देख रहे हैं।
धीमी – धीमी दहक रही है
चूल्हे पर लकड़ी की आग
अम्मा सेक रहीं हैं मक्की
मटकी में सरसों का साग।
पापा बैठे लेकर छत पर,
खिचड़ी पापड़, दही अचार
गन्ना चूंसे भैय्या−भाभी
टपक रही दोनो की लार !
नवनीत जी की कवितांए छोटी हैं।लंबी होकर वे बोझिल नही होतीं। कविता के साथ ही कविता से संबंधित चित्र भी पुस्तक में दिये गए हैं, ये पाठ्य विषय का और रूचिकर बनाते हैं।
पुस्तक
बांसती पल लेखक नवनीत कुमार
प्रकाशक जेड प्रिंटर्स 91 प्रसाद नगर,
नई दिल्ली
पुस्तक मूल्य 180 रूपया
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और समीक्षक हैं)