पवन कुमार
(निदेशक : काशीविश्वनाथ वास्तु-ज्योतिष संस्थान, वाराणसी)
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_हमारा देश अपने भीतर सब कुछ संजोए हुए है। इस देश में कला और विज्ञान, अध्यात्म और दर्शन से अलग नहीं हैं। अन्य देशों में कला का जन्म मनोरंजन के लिए हुआ है, लेकिन हमारे देश में नहीं। भारतीय धर्म और दर्शन का वह मतलब नहीं है, वह व्याख्या भी नहीं है जो सामान्यतया की जाती है। इसीलिये हमारे यहां का धर्म और दर्शन अन्य देशों की तुलना में भिन्न है।_
हमारे पूर्वजों (ऋषियों) ने धर्म के अर्थ और उसकी व्याख्या में लिखा है– _”जिससे समस्त मानव जाति का अभ्युदय हो, वही भारतीय धर्म है, वही भरतीय दर्शन है। धर्म के गूढ़ रहस्यों का उद्घाटन और उच्च मानकों को प्राप्त करने के मार्ग की व्याख्या ही दर्शन है। अभ्युदय का अर्थ है–सांसारिक उन्नति के साथ-साथ आत्मिक उन्नति। कोई भी कला और विज्ञान अध्यात्म के बिना शून्य है। वह रसहीन है–शुष्क काष्ठ की तरह जो केवल जलाने के काम आता है। विज्ञान और कला जब अध्यात्म से जुड़ जाते हैं तो वे मानव मात्र के कल्याण की भावना से उत्प्रेरित हो जाते हैं। भारत की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्थापत्य कला में भी परमात्मा को साकार रूप में प्रतिष्ठित किये जाने का सत्प्रयास किया गया है। सागर को बिन्दु में भर दिया गया है और बिन्दु ने अनन्त और अगाध सागर की सत्ता की पूर्ण शक्ति का अवगाहन कर लिया है.”_
भारतीय स्थापत्य कला का मूल है–मन्दिर निर्माण जिसमें प्रत्येक भाग् की स्थापना में साकार परमात्मा की प्रतिष्ठा की जाती है। कहने का मतलब है कि ‘वास्तु पुरुष’ की इसी विचारणा के आधार पर हमारे ऋषियों ने ‘वास्तुब्रह्म’ के सिद्धांत को स्थापत्य से भौतिक विज्ञान में प्रतिष्ठित किया है। ऋषि तत्वदर्शी थे, उनकी कोई भी बात वृथा नही होती थी।
सारांश यह है कि इस देश का विज्ञान ही इस देश का दर्शन है और विज्ञान और दर्शन एक दूसरे का पर्याय है। इसीलिये वास्तु निर्माण एक धार्मिक कर्म माना गया है तथा वास्तु-पूजन से लेकर के गृहप्रवेश तक के प्रत्येक कार्य को धार्मिक भावनाओं से जोड़ा गया है। परन्तु दुःख और खेद का विषय है कि आधुनिकता के ओछे विचारों की धारा में तैरने-उतराने वाली हमारी नई पीढ़ी भारत की उन उदात्त और उच्च भावनाओं को कपोल कल्पना कहकर हवा में उड़ाने का अज्ञानतापूर्ण कार्य करती रहती है।
_मनुष्य जब भवन निर्माण करने चलता है तो सर्वप्रथम भूखंड का चयन करता है। भूखण्ड के चयन के बाद भूमि-शोधन करता है। फिर भवन-निर्माण के लिए वास्तु पुरुष की कल्पना करता है। *वास्तुशास्त्र के अंतर्गत भूखंड को 81 भागों में विभक्त करते हुए विभिन्न देवों को प्रतिष्ठापित करने का विधान है जिसे परमात्मा के साकार स्वरूप से जोड़ा जाता है। तब उस भवन से भवन-स्वामी का एक अपरोक्ष सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।_
यही कारण है कि शुभ मुहूर्त में भवन-निर्माण शुरू किया जाता है, शुभ मुहूर्त में ही गृह-प्रवेश किया जाता है।
वास्तुशास्त्र और स्थापत्य कला का उद्गम अथर्ववेद से माना गया है। मत्स्यपुराण में भी इसका विवरण आया है। इस पुराण में वास्तुशास्त्र का लौकिक स्वरूप प्रतिपादित किया गया है। वास्तुशास्त्र का ज्योतिषशास्त्र से भी गहरा सम्बन्ध है।
_ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सभी दिशाओं के अपने-अपने देव या स्वामी होते हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य के जीवन में प्रतिक्षण ग्रह-नक्षत्रों का अगोचर प्रभाव पड़ता रहता है।_
सभी दिशाओं का अपना महत्व होता है। जैसे ईशान कोण (उत्तर-पूर्व की दिशा) के देव ज्ञान, बुद्धि और सर्वमंगल के परिचायक हैं।
पूर्व में इन्द्र धन, सम्पत्ति और मनोकामना सिद्धि के दाता हैं। आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण दिशा) के देव अग्नि हैं जो स्वाथ्य और शुभता प्रदान करने वाले हैं। दक्षिण दिशा के देव यम हैं। वे जहां एक ओर मृत्युकारक हैं, वहीं दूसरी ओर धर्म के अधिपति भी हैं, इसीलिये उन्हें धर्मराज भी कहा जाता है।
_वे धर्मस्थापना में सजग भूमिका का निर्वहन करते रहते हैं, इसलिए कठोर निर्णय के लिए भी जाने जाते हैं। नैरेत्य कौण (दक्षिण-पश्चिम दिशा) के अधिपति नैऋति देव हैं जो प्राणियों की रोग-शत्रु से रक्षा करते हैं। अभय प्रदान करते हैं। पश्चिम दिशा जल के देव वरुण की है। वे जीवन के उत्ताप में शीतलता प्रदान करते हैं।_
वायव्य कोण(उत्तर-पश्चिम दिशा) के देव वायु हैं जो हमें आयु, स्फूर्ति और जीवनीशक्ति प्रदान करते हैं। उत्तर दिशा के स्वामी कुबेर हैं जो धन-ऐश्वर्य के प्रतीक हैं और सभी प्रकार के भौतिक सुखों के कारक हैं।
_दिशाओं का सीधा संबंध प्रकृति से होता है, इसीलिये वेदों में प्रकृति की पूजा का विधान सर्वोपरि है, क्योंकि सारी बातें प्रकृति के संतुलन पर ही निर्भर है। आज की भौतिकवादी आधुनिक पीढ़ी इन सारी बातों को कपोल कल्पना मानती है और हमारे ऋषियों की बातों को पुराणपन्थी और पिछड़ेपन की निशानी मानकर हवा में उड़ा देती है।_
इसीलिये आज का मानव वास्तुशास्त्र में वर्णित बातों को झूठ का पुलिंदा कह कर नकार देता है। परिणाम यह होता है कि प्रकृति का असन्तुलन होने से वह कुपित होकर कृत्याओं (प्राकृतिक आपदाओं–भूस्खलन, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सामूहिक जन-धन-हानि आदि के रूप में) को जन्म देती है।
ये कृत्याएं मनुष्य के सामूहिक संस्कार, विचार, आचरण के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं जिन्हें जन साधारण न तो जानता है और न ही मानता है।
_सारी वस्तुएं प्रकृति के संतुलन पर निर्भर करती हैं। रोज-रोज के मानव जीवन में आने वाली विपरीत परिस्थितियां और विपत्तियां इन्हीं प्रकृतिरूपी देवी के कुपित होने से, असंतुलन का परिणाम होती हैं। इनसे मुक्ति का एकमात्र उपाय है– वास्तुशास्त्र।_
वास्तुशास्त्र के परम ज्ञाता और देवशिल्पी ‘विश्वकर्मा’ हैं। वे कहते हैं कि इस शास्त्र के ज्ञान से मनुष्यमात्र को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष–चारों पुरुषार्थों की दिशा प्रशस्त होती है। उसका जीवन सार्थक हो जाता है। वह मनुष्य मृत्युलोक में निवास करते हुए भी देवत्व को उपलब्ध् हो जाता है।
_ऐसा मनुष्य स्वयम् अपना तो कल्याण करता ही है, साथ ही दूसरों का कल्याण करने में भी समर्थ होता है।_
*भवन का प्रभामंडल*
भवन का एक प्रभामंडल या आभामंडल भी होता है। भवनस्वामी और भवननिर्माता के संस्कार, विचार और आचरण के आधार पर उसके भवन का प्रभामण्डल बनता है। उस अच्छे प्रभामण्डल का प्रभाव यह होता है कि ग्रह-नक्षत्र, तंत्र-मंत्र की शक्ति का और भूत-प्रेत आदि का प्रभाव भवन पर न के बराबर पड़ता है। तामसिक आत्माओं की कुदृष्टि से भी सुरक्षित रहता है भवन।
भवन की परिभाषा अति व्यापक है। शब्दकोश के अनुसार भुवन और भवन दो शब्द लगभग एक से हैं। एक प्रकार से दोनों का अर्थ भी एक ही है। सामान्यतया भुवन का आशय लोक से किया जाता है और समझा भी जाता है, जैसे तीनों भुवनों में न्यारा। लेकिन वास्तव में यदि देखा जाय तो ‘भुवन’ का अर्थ है–व्यक्ति विशेष् का विस्तार। ‘भवन’ का अर्थ है–व्यक्ति विशेष् के संकल्प का साकार रूप। भवन शब्द के प्रयोग में–राजभवन (राजा का निवास), न्यायभवन (न्यायालय), देवभवन (मन्दिर) के अलावा पाठशाला, यज्ञशाला, पाकशाला, धर्मशाला, अथितिशाला आदि शालायें भी आ जाती हैं। मगर भवन का जो प्रायः समाज में प्रयोग देखने को मिलता है, वह है गृह या घर। गृह वह स्थान है जहां गृहस्थ सपरिवार निवास करता है, गृहस्थ वह व्यक्ति है जिसने अपने लिए और अपने कुटुम्ब-परिवार के लिए गृह का निर्माण किया है।
भुवन हो या भवन, गृह हो शाला–सभी के अपने-अपने प्रभामण्डल होते हैं। यदि प्रभामण्डल नहीं है तो समझ लेना चाहिए कि वास्तुशास्त्र के नियम-सिद्धांतों का पालन उचित रूप से नहीं किया गया है निर्माण-काल में।
प्रभामण्डल के न होने का कारण जहाँ एक ओर वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन न करना होता है, वहीं दूसरी ओर कई अन्य परिणाम भी इनके होते हैं, जैसे–गृहस्वामी का प्रायः अस्वस्थ रहना, घर में धन-सम्पत्ति के आगमन में तरह-तरह के विघ्न, आय से अधिक खर्च, ईर्ष्या, द्वेष, कलह आदि से उत्पन्न अप्रिय वातावरण, चिन्ता, शोक, उदासी, अकालमृत्यु आदि की मनहूस छाया का निरंतर बने रहना। क्या हम-आप ऐसा परिणाम चाहते हैं ? यदि नहीं चाहते हैं तो वास्तुशास्त्र के नियमों और सिद्धांतों का पालन अवश्य करें।
वास्तुशास्त्र पर वर्तमान समय में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और बराबर हो भी रही हैं। इसी प्रकार पत्र-पत्रिकाओं में भी वास्तु पर लेख प्रकाशित होते रहते हैं। लेकिन यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो उन पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों पर पाश्चात्य वास्तु विचारधारा का प्रभाव ही अधिक दिखलाई देता है। प्रायः शहरी आभिजात्य वर्ग के घरों में फेंग्सूई का प्रचलन और महत्व काफी देखने को मिलता है। जबकि फेंग्सूई का अस्तित्व 3-4 दशक पूर्व उन वास्तुशास्त्रियों के मस्तिष्क के किसी कोने में जीवित था जो पश्चिमी ज्योतिष और वास्तु से अधिक प्रभावित थे।
यह बड़ी ही शोचनीय स्थिति है कि जैसे भारत की प्राचीन योगतंत्र की वास्तविक विद्या अब प्रायः भारत से लुप्त होती जा रही है ( जो योगतंत्र का तथाकथिति चलन समाज में देखने को मिलता है, वह योगतंत्र के नाम पर आडम्बर और छलावा है ), वैसे ही ज्योतिषशास्त्र और वास्तुशास्त्र पर भी पश्चिमी ज्योतिष और वास्तु का काला ग्रहण लग गया है। उनके प्रभाव से भारतीय ज्योतिष और वास्तु का वास्तविक स्वरूप लुप्त होता जा रहा है। यहाँ यह जान लेना भी आवश्यक है कि ज्योतिष, वास्तु, औषधि, रत्न–ये चारों वस्तुएँ जिस देश की हैं, उसी देश के लिए लाभप्रद हैं, सबके लिए नहीं।
जिस प्रकार हमारा शरीर पंचतत्वों के मिश्रण से बना है, उसी प्रकार वास्तुशास्त्र में भी पंचतत्वों का अपना महत्व है और है अपनी भूमिका भी। पंचतत्वों में मुख्य तत्व है–पृथ्वीतत्व। वैज्ञानिक दृष्टि से विचार किया जाय तो पृथ्वी एक नारंगी की तरह गोलाकार विशाल चुम्बकीय पिण्ड है। पृथ्वी के अंदर जितने भी पदार्थ हैं, जितनी भी वस्तुएं हैं, उन सबमें चुम्बकीय गुण या प्रभाव विद्यमान होते हैं। पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पृथ्वी के चिम्बकीय तत्व के मुख्य बिन्दु हैं। उन दोनों बिंदुओं से तीव्र एवम् शक्तिशाली उर्जातरंगें निरन्तर एक दूसरे के विपरीत निकलती रहती हैं और प्रवाहित भी होती रहती हैं। पृथ्वी के इसी चुम्बकत्व का प्रभाव संसार के सभी जीव-जंतुओं पर अनवरत रूप से पड़ता रहता है।
पंचतत्वों का मिश्रण केवल हमारा शरीर ही नहीं है, अपितु पूरा ब्रह्मांड है, साथ में है हमारा जगत् भी। पंचतत्वों के सम्मिश्रण का नाम ही वास्तु है, अर्थात्–पंचतत्वों का संतुलन कैसे हो ?–यही जानने की विद्या वास्तुशास्त्र है। पंचतत्वों के संतुलन से मनुष्य को उत्तम स्वास्थ्य, धन-दौलत, ऐश्वर्य आदि की उपलब्धि होती है।
हम जिस तरह से अपने घर में फर्नीचर और अन्य सामान लाते हैं, उन सबका असर हमारे स्वास्थ्य, सुख और धन पर पड़ता है। भारत का प्राचीन ज्ञान जो सभ्यताओं का ज्ञान था और जिसे हमें हमारे पूर्वजों ने दिया था, उसे हम ‘वास्तुशास्त्र’ के नाम से जानते हैं। ‘वास्तु’ का अर्थ रहने का स्थान या निवास-स्थान है तथा ‘शास्त्र’ का अर्थ है–ज्ञान, विद्या या शिक्षा देने वाला संग्रहीत विषय। वास्तु और शास्त्र दोनों मिलकर एक विधान का समावेश करते हैं जिससे एक लय में किसी इमारत के ढांचे कुछ इस तरह व्यवस्थित किये जायें कि इमारत में रहने वाले को अधिकतम लाभ मिल सके। वास्तुशास्त्र का मानना है कि ऊर्जाशक्ति सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त है जिसे प्राण (ईथर) कहते हैं। वास्तु के अनुसार एक सही सिद्धान्त के अनुसार बनाई गई इमारत और उसमें सही क्रम में रखी गयी वस्तुएं वहां रहने वाले लोगों को शांति, सुरक्षा, स्थिरता और निश्चिन्तता प्रदान करती हैं। वास्तु सिद्धान्त से बनी इमारत शारीरिक, मानसिक, पारलौकिक सुख के साथ- साथ आध्यात्मिक उन्नति और सफलता भी प्रदान करती है। वास्तुशास्त्र हमें यह संदेश देता है कि यदि हम सचेत होकर, ज्ञानपूर्वक अपने आसपास की वस्तुओं और वातावरण को ऐसा ढाल सकें जिससे ब्रह्माण्ड की सकारात्मक ऊर्जा और उसका स्पन्दन हमारी आत्मा, मन, प्राण और शरीर में अधिकतम तारतम्य बनाये रख सके और व्यक्ति हर प्रकार से सुखी और समृद्ध हो सके।
अध्यात्म की दृष्टि से देखा जाय तो मनुष्य का प्रारब्ध बदला नही जा सकता। मनुष्य के पूर्वकृत कर्म ही उसके वर्तमान जन्म के प्रारब्ध के कारक बनते हैं। जैसा और जिस प्रकार का जीवन मनुष्य को अगले जन्म में मिलना है, जितना सुख-दुःख उसने अपने कर्म से अर्जित किया है, उसी के आधार पर उसका अगला जन्म, माता-पिता, घर निश्चित होता है। ग्रह-नक्षत्र भी जीवन में सुख-दुःख कारक होते हैं–इन्ही सब बातों को ध्यान में रखकर ग्रह-नक्षत्र भी उसी प्रकार संयोजित हो जाते हैं। इस बात को इस तरह भी समझा जा सकता है कि मनुष्य का जन्म से लेकर मृत्यु तक का समूचा जीवन ग्रह-नक्षत्रों के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव पर ही निर्भर है। मृत्यु के बाद जीवात्मा उन्हीं ग्रह-नक्षत्रों के संयोजन का इंतज़ार करता रहता है और मनुष्य के प्रारब्ध के अनुसार जब ग्रह-नक्षत्र संयोजित हो जाते हैं तो उचित और पूर्व निश्चित पल में ही जीवात्मा जन्म ग्रहण कर् संसार में अपनी पहली सांस लेता है।
हम-आपको ज्ञात होना चाहिए कि ईश्वर् ने मनुष्य को कर्मशील बनाया है और बनाया है मनुष्यलोक को कर्मलोक। केवल अपने कर्म और पुरुषार्थ के द्वारा ही वह अपने भाग्य का निर्माता बन सकता है। इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। कर्म के द्वारा ही वह दुःखों और कष्टों का निवारण कर् सकता है। इसीलिए हमारे ऋषियों, मुनियों ने दैवीय उपासना, आराधना, साधना आदि का विधान निर्मित किया है जिसे भारतीय सत्य सनातन जीवन-दर्शन या सनातन जीवन-शैली का नाम दिया गया है। उसी सत्य सनातन जीवन-दर्शन का एक विधायक और निर्णायक तत्व है–‘वास्तु’ और उसी वास्तु- तत्व का ज्ञान कराने वाला विषय है–‘वास्तुशास्त्र’।
*प्राचीन स्थापत्य कला और वास्तु*
वास्तुशास्त्र प्राचीन स्थापत्य कला है। इसमें ज्योतिष-शास्त्र का गहन समावेश है। जिस प्रकार ग्रहों के कष्ट के निदान ज्योतिष-शास्त्र में है, उसी प्रकार वास्तु- संशोधन भी अत्यंत प्रभावशाली सिद्ध होते हैं। आज के आधुनिक युग में अगर देखा जाय तो मनोनुकूल निवास या भूखण्ड उपलब्ध नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए वास्तु-संशोधन की आवश्यकता अपरिहार्य हो गयी है।
जैसा कि पूर्व में बतलाया गया है कि ज्योतिष का गहरा सम्बन्ध वास्तुशास्त्र से है। केवल ग्रह ही नहीं, नक्षत्र भी पृथ्वी के वास्तु-खण्ड को प्रभावित करते हैं। परन्तु वास्तुशास्त्र में ग्रहों और नक्षत्रों का सीधा-सीधा सम्बन्ध उल्लिखित नहीं मिलता। फिर भी वास्तु-चक्र में स्थित देवताओं, अधिदेवताओं और प्रति-अधिदेवताओं से सम्बंधित पौराणिक प्रमाण मिलते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मांड की समस्त शक्तियां मनुष्य को, उसके निवास को और उसके भूखण्ड को प्रभावित करती रहती हैं।
जिस प्रकार दो मनुष्यों की ऊर्जा का स्तर समान नहीं हो सकता, उसी प्रकार दो निवास-स्थान अथवा भूखण्ड की ऊर्जा का स्तर एक समान नहीं होता। एक समान क्यों हो ? भगवान् श्रीकृष्ण का वचन यहां चरितार्थ होता है। वे कहते हैं–सबकुछ कर्मफल के ही अधीन है और इन सबका सम्बन्ध या अस्तित्व सार्वभौम ऊर्जा और पूर्वजन्मकृत किन्हीं कर्मों से अवश्य जुड़ा है। इस ब्रह्मांड का एक कण भी या कोई वस्तु भी निर्जीव नहीं है। सभी ऊर्जामय हैं, बल्कि कहना यह चाहिए कि ऊर्जामय नहीं, ऊर्जा ही हैं। इसके सिवाय और कुछ भी नहीं हैं। और इसीलिए किसी भी भूखण्ड का छोटे से छोटा भाग् भी अपना परिणाम दिखलाता है। भारतीय दर्शन कण-कण को ऊर्जा मानता है, कण-कण को जीवन मानता है।
वास्तु-देवता की कल्पना एक ऐसे रूप में की गई है जो औंधेमुंह पड़ा हो। उसका मुख ईशान कोण (उत्तर-पूर्व का कोना) व पैर नैरेत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम का कोना) की ओर हैं। उसकी भुजाएं और कन्धे आग्नेय कोण (पूर्व- दक्षिण का कोना) और वायव्य कोण (पश्चिम-उत्तर का कोना) की ओर मुड़े हुए हैं। वास्तु-देवता का आविर्भाव कब हुआ –यह सर्वथा अज्ञात है क्योंकि वैदिक काल से ही यज्ञवेदी का निर्माण पूर्ण विधि-विधान से किया जाता था जिसमें नवग्रह-पूजन, भूमि-पूजन के साथ-साथ वर्णमातृका-पूजन, दिशाशुद्धि-पूजन के अंतर्गत वास्तु-पूजन का विधान शास्त्रों में मिलता है।
*पौराणिक मिथक*
मत्स्य पुराण में एक प्रसंग आया है। कहा जाता है कि अन्धकासुर के आतंक से जब तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मची हुई थी, तब महादेव ने विवश होकर अंधकासुर के वध का निश्चय किया। घोर युद्ध हुआ। अन्त में वध करते समय महादेव के ललाट से एक श्वेद-बिन्दु ( पसीने की बून्द )पृथ्वी पर गिरा। उस श्वेद-बिन्दु के पृथ्वी पर स्पर्श मात्र से भयंकर आकृति वाला एक पुरुष उत्पन्न हुआ और अंधकासुर के गणों का रक्तपान करने लगा। उससे भी जब उसकी तृप्ति नहीं हुई तो वह त्रिलोक का भक्षण करने के लिए उद्यत हो उठा.
तब महादेव सहित सभी देवताओं ने अपने तेज से उसे औंधे मुंह पृथ्वी पर सुला दिया, साथ ही वास्तु-देवता के रूप में प्रतिष्ठित कर उसकी पूजा किये जाने का वरदान दे दिया। महादेव ने कहा–पृथ्वी पर जो तुम्हारे अनुकूल नहीं रहेगा, तुम्हारी पूजा नहीं करेगा, वह रोग-शोक से ग्रस्त रहेगा। उसी समय से गृह-निर्माण के समय, गृह-प्रवेश के समय अन्य पूजन के साथ वास्तु-देवता के पूजन का प्रचलन शुरू हो गया। शीर्ष पंचरात्र, वास्तुराज वल्लभ आदि ग्रन्थों में वास्तु-पूजन का विशेष् विधान व वास्तु के अनुसार दिशाओं का वर्णन आया है।
वास्तुदेवता की प्रतिमा रूपी यन्त्र या वास्तुचक्र आदि को प्रतिष्ठित कर पूजन का विधान किया गया है। जैसे गृह, प्रासाद, यज्ञ-मण्डप, ग्राम, नगर आदि के निर्माण के समय ‘नैरेत्य कोण’ में वासुदेव-पूजन-स्थापना कराना चाहिए। विष्णुयज्ञ, रुद्रयज्ञ या महारुद्रयज्ञ के समय नवग्रह, सर्वतो भद्र मण्डलों की स्थापना के साथ-साथ नैरेत्य कोण में वास्तुपीठ की स्थापना आवश्यक होती है, क्योंकि वैदिक संहिताओं के अनुसार वास्तु-उत्पत्ति साक्षात परमात्मा का ही नामान्तर है।
प्राचीन काल में भारत के ऋषियों द्वारा ग्रहों, नक्षत्रों और निहारिकाओं का अध्ययन कर ज्योतिषशास्त्र का रूप दिया गया था। ग्रहों और नक्षत्रों के आधार पर कोण स्थापित करने हेतु एक मानसी *कालपुरुष* की कल्पना की गयी थी। उस कालपुरुष के सिर को जन्मपत्रिका में लग्न मानकर सप्तम भाव को चरण माना गया। शेष भावों का भी विभाजन कर् कालपुरुष के अंगों के अनुसार माना गया और जातक के जीवन पर क्या असर पड़ेगा– इसका अध्ययन इसी के अंगों के आधार पर किया गया।
वैसे तो ग्रहों और नक्षत्रों का प्रभाव मानव व संसार के अन्य प्राणियों पर जीवनभर पड़ता ही रहता है, लेकिन जब मानव किसी आवास में रहने जाता है या स्वयम् अपना घर बनवाता है तो उस पर वास्तु के अनुसार और भी प्रभाव पड़ना शुरू हो जाता है। प्रायः लोगों को हम-आपने यह कहते हुए सुना होगा कि जब से हमने आवास बदला है या नया गृह-निर्माण कराया है तबसे ही तरह-तरह की आर्थिक व सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होना शुरू हो गयी हैं। दरअसल होता यह है कि मनुष्य व अन्य सभी प्राणियों पर उसके जन्म के समय ग्रह-नक्षत्रों के संयोजन का प्रभाव पड़ना आरम्भ हो जाता है और जीवनभर पड़ता ही रहता है, लेकिन जब वास्तुदोष का भी बुरा असर उसके ऊपर पड़ना शुरू हो जाता है तो फिर तो जीवन ही संकटग्रस्त हो जाता है, समायाएँ-ही-समस्याएं हर समय घेरे रहती हैं और फिर उनका स्वतः कोई निदान होता हुआ नहीं लगता। बस यही वास्तुशास्त्र की महत्ता का आधार बन गया।
ऋषियों के खगोलशास्त्र के अध्ययन और ग्रह-नक्षत्रों की बदलती हुई स्थितियों के ज्ञान के कारण ही सम्भव हुआ। जैसे सूर्य की कक्षाओं के पथ में परिवर्तन होता है तो सुदूर से आती हुई उसकी रश्मियां अपनी दिशा व कोण बदलती हैं तो उनके प्रभाव और परिणामों में अन्तर आ जाता है। पृथ्वी के अक्षांश का विभाजन भौगोलिक रूप से उत्तर से दक्षिण की ओर जाने वाली ऊर्जा के मार्ग के आधार पर किया गया। विद्युत चुम्बकीय मार्ग के समानांतर उर्जाप्रवाह की कल्पना करते हुए अक्षांश और देशान्तर रेखाओं पर आने वाली उर्जाप्रवाह की गणनाएं की गईं और उनका सूक्ष्म अध्ययन भी किया गया–यह जानने के लिए प्रयास किया गया कि मानव, उसके निवास और प्रकृति पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है ?
इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं–वास्तु की उत्पत्ति वेदों से मानी गयी है। वास्तुशास्त्र अथर्ववेद का अंग माना गया और उसकी संरचना सृष्टि के पंचभूतात्मक सिद्धांत पर ही आधारित है। मत्स्य पुराण में अठारह वास्तुशास्त्री ऋषियों का उल्लेख है–भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, मय, नारद, विश्वकर्मा, नग्नजित, ब्रह्मा, पुरन्दर, विशालाक्ष, शौनक, गर्ग, कुमार, नंदिश, वासुदेव, वृहस्पति, शुक्र, अनिरुद्ध जिन्होंने उर्जा-संतुलन व उसके प्रभाव को न सिर्फ भली-भांति समझा, बल्कि उसके वैज्ञानिक नियम-सिद्धांतों को एक शास्त्रीय और धार्मिक रूप देकर जनमानस से जोड़ा भी ताकि उसका व्यक्ति और समाज को अधिकाधिक सकारात्मक लाभ मिल सके।
*वास्तु है संतुलन का विज्ञान*
वास्तु सत्ता सृष्टि में संतुलन स्थापित कर ब्रह्मांडीय ऊर्जा अपने अनुकूल तथा सकारात्मक प्रभाव को निरन्तर बनाये रखती है। इस तथ्य को हम इस प्रकार समझ सकते हैं–जब भी पृथ्वी का पूर्वी भाग् गरम होता है, तब उसका पश्चिमी भाग शीतल होता है। आप कहेंगे कि इसमें कौन-सी नई बात कर दी ? यह तो स्वाभाविक है। सूर्य जब उदय होता है तो सूर्य की रश्मियों के संपर्क में आने वाले भूभाग उष्ण होने लगते हैं, यह सत्य है। सूर्य जब पूर्व से उदय होकर पश्चिम की ओर चलता है तो तापीय ऊर्जा का प्रवाह होने लगता है। खास बात यह है कि उस ऊर्जा-प्रवाह से पृथ्वी की चुम्बकीय ऊर्जा सृजित होने लगती है, परिणामस्वरूप यह ऊर्जा भूमि में प्रवाहित होने लगती है और अपने दो ध्रुवीय केंद्रों के माध्यम से सम व्यवहार करने लगती है जिसका सीधा प्रभाव मानव व अन्य प्राणियों के शरीर पर पड़ने लगता है।
चूंकि रक्त में आयरन ( लोहे ) की मात्रा पर्याप्त होती है, अतः वह इस भूगर्भीय चुम्बकीय ऊर्जा से प्रभावित होती रहती है।
चूंकि हमारा सिर उत्तरी ध्रुवीय ऊर्जा से प्रभावित होता है और पैर दक्षिण ध्रुवीय उर्जा से, यही कारण है कि दक्षिण दिशा में सिर करके सोने का विधान बनाया गया है ताकि चुम्बकीय विकर्षण से बचा जा सके। यदि हम उत्तरी ध्रुव की तरफ सिर दक्षिणी ध्रुव की तरफ पैर करके सोते हैं तो हमारा सिर भारी-भारी-सा रहने लगेगा। कुछ समय बाद सिर में स्थायी रूप से दर्द रहने लगेगा। ऐसा चुंबकीय विकर्षण की वजह से होता है।
शरीर के ऊपरी भाग को ईशान(पूर्व-उत्तर का कोना) और शरीर के निचले भाग् को नैरेत्य (दक्षिण-पश्चिम का कोना) माना गया है। पहले लकड़ी के तख्त और खड़ाऊँ का उपयोग होता था, कहीं- कहीं अभी भी होता है, भोजन आदि तख्त पर ही ग्रहण करते थे ताकि ऊर्जा का शरीर में संरक्षण और संतुलन बना रहे। ध्यान-समाधि की अवस्था में जाने का अभ्यास करने के लिए भी लकड़ी का तख्त प्रयोग करते थे ताकि पृथ्वी की चुम्बकीय ऊर्जा के आकर्षण-विकर्षण का प्रभाव शरीर, मन व प्राण पर न पड़े। कितने समझदार, जानकर थे हमारे पूर्वज जिन्होंने ब्रह्मांडीय, सौरमण्डलीय, खगोलीय और भूगर्भीय ऊर्जा के गंभीर रहस्यों को न सिर्फ जान-समझ लिया था, बल्कि उसका मन, प्राण और शरीर में संतुलन कैसे होगा–वैसी ही जीवन शैली विकसित कर् और स्वयम् अपना कर उसे जीवन मे आत्मसात् भी कर लिया था।
ऊर्जाओं का समन्वय और संतुलन ही वास्तुशास्त्र का परम उद्देश्य होता है। जिस भवन के निर्माण में ऊर्जा का जितना अधिक संतुलन होगा, वह भवन और उसमें रहने वाले लोग उतने ही अधिक ऊर्जावान होंगे। वैज्ञानिकों ने भी काफी पहले से मानना शुरू कर दिया है कि प्रत्येक वस्तु में एक ऊर्जा होती है–एक विशेष् ऊर्जा और उस वस्तु और मनुष्य के चारों ओर एक विशेष् चुम्बकीय ऊर्जा-वलय बनता रहता है।
सूक्ष्म अध्ययन से ज्ञात होता है कि सकारात्मक सूक्ष्म ऊर्जा का प्रवाह ईशान कोण के क्षेत्र से होता है, इसीलिये हमारे शास्त्रों में ईशान कोण को ईश्वर् का वास माना गया है। ऋषियों ने भूखण्डों में ईश्वरीय प्रभाव की वृद्धि की कल्पना कर वास्तुपुरुष का स्वरूप माना। यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में ईशान कोण को हल्का, साफ और देव-स्थान व पूजा-स्थान माना गया है। यहां पर किसी भी प्रकार का भारी निर्माण वास्तुदोष माना गया है। हमें यह अच्छी तरह से ज्ञात होना चाहिए कि भू-चुम्बकीय ऊर्जा न केवल भूखंड को संतुलित करती है, बल्कि अंतरिक्ष से आने वाली ब्रह्मांडीय ऊर्जा(इलेक्ट्रो मैग्नेटिक उर्जा) भी भवन के ईशान क्षेत्र से प्रवेश करती है। इसीलिए हर भवन-निर्माता और निवास-कर्ता को इस ऊर्जा-रहस्य को अवश्य ही जानना चाहिए और ईशान कोण के क्षेत्र को अधिकाधिक खुला छोड़ना चाहिए, साथ ही उससे लगा हुआ भाग् यदि बनाना है तो निचला और खुला-खुला हवादार बनाना चाहिए।
ईशान कोण के क्षेत्र में दोष होने के कारण ऊर्जा-प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है और फिर भवन और भवन में निवास- कर्ताओं के अस्तित्व पर नाना प्रकार के प्रकोपों का प्रहार होना आरम्भ हो जाता है।
*पञ्च~तत्व :*
भारतीय धर्मशास्त्र और विज्ञान दोनों ने यह माना है कि ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का संतुलन शरीर में पाँचों तत्वों के संतुलन के कारण होता है। जीवन के लिए पंचतत्वों का होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनुसार इन पंचतत्वों की अपनी एक विशेष् दिशा होती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश–ये पञ्चतत्व कहलाते हैं। इन्हीं पंचतत्वों से इस स्थूल जगत् और समस्त प्राणियों की रचना हुई हैं। पृथ्वी तत्व की मात्रा अधिक होने के कारण मनुष्य के स्थूल शरीर का अस्तित्व है। मगर इन पंचतत्वों के संतुलन का पूरा लाभ मनुष्य को प्राप्त होता है। चलिये इन पंचतत्वों पर विचार करते हैं।
देखा जाय तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश–इन सभी पंचतत्वों का सही संतुलन महत्वपूर्ण है। इनके संतुलन से जो विशेष् ऊर्जा प्रवाहित होती है जिसे आज का विज्ञान ‘बायो मैग्नेटिक इनर्जी’ कहता है। इसी के संतुलन से सृष्टि जगत् का विस्तार सम्भव हुआ है।
वेदों में भी इन पंचतत्वों को विशेष् रूप से जीवन के घटकों के रूप में माना गया हैं। देखा जाय तो ये ही पंचतत्व निर्माण और विनाश के कारक हैं। जैसे आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी के निर्माण की रचना-प्रक्रिया हुई, उसी प्रकार से विनाश की भी प्रक्रिया है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु सभी तत्व क्रम से एक दूसरे में समाते हुए एक दिन आकाश तत्व में समा जाते हैं। आकाश यानी शून्य। अन्त में सब शून्य में विलीन हो जाते हैं।
*वास्तु सत्ता में दिशा की महत्ता :*
_वास्तुशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से दिशाओं का अपना महत्व है जो इस प्रकार है–_
*पूर्वदिशा*
पूर्व दिशा का स्वामी सूर्य है। सूर्य अग्नितत्व का प्रतीक है। सूर्य को आत्मा का कारक ग्रह कहा गया है। यह ब्रह्माण्डीय ऊर्जा, नेत्र, हृदय, हड्डी, स्वाभिमान, सार्वजनिक भवन आदि का कारक है। चिकित्सा के क्षेत्र में विटामिन ‘डी’और ‘ए’ का एकमात्र स्रोत भी है। जब भी भवन में सूर्यकिरणें बाधित होती हैं तो सूर्य से संबंधित समस्याएं स्वतः जन्म ले लेती हैं। यदि आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाय तो पूर्वदिशा पितृ स्थान की सूचक है। किसी कारणवश पूर्वदिशा में दोष उत्पन्न हो जाता है तो पितृदोष का कारण भी बनता है। कर्जदार बन जाना, मांगलिक कार्यों में बाधा आ जाना, सम्मान में कमी होते जाना, सन्तान-वृद्धि में दोष पैदा हो जाना आदि विकट समस्याएं व्यक्ति के सामने उपस्थित हो जाती हैं।
*पश्चिमदिशा*
पश्चिम दिशा के अधिपति वरुण देव हैं। इस दिशा के स्वामी शनि हैं। इस दिशा में किसी प्रकार का दोष होने पर निर्धनता, अस्थिरता, दुःख आदि का प्रकोप होता है।
*उत्तरदिशा*
उत्तर दिशा के अधिपति कुबेर और ग्रह हैं बुध। बुधग्रह वाणी, बुद्धि, तर्क, वाणिज्य आदि के कारक हैं। इसलिए इस स्थान को शुध्द और स्वच्छ रखना चाहिए। यह स्थान सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य का है।
*दक्षिणदिशा*
दक्षिण दिशा के स्वामी यम और मंगल इस दिशा के कारक हैं। मंगल पराक्रम, भाई, भूमि आदि के कारक हैं। सभी सुख पाने के लिए वास्तु नियमों के पालन के साथ-साथ स्वच्छता रखना आवश्यक है क्योंकि यह दिशा रोगकारक भी है। इसलिए इस दिशा का दूषित होना रोगों को आमंत्रित करना है।
_जिस प्रकार चारों दिशाओं का महत्व है, उसी प्रकार चारों कोनों का भी महत्व है–_
*आग्नेयकोण*
आग्नेयकोण (पूर्व-दक्षिण का कोना) के स्वामी अग्निदेव हैं और शुक्र अधिपति हैं। इस स्थान में दोष होने पर खान-पान में अरुचि होती है। घर में कोई-न-कोई सदस्य बीमार ही बना रहता है।
*ईशानकोण*
ईशान कोण(पूर्व-उत्तर का कोना) के स्वामी शिव हैं और अधिपति हैं वृहस्पति। वृहस्पति सन्तान, सुख, धन, ज्ञान, अध्ययन, ख्याति, धर्म, चरित्र आदि के कारक हैं। यह दिशा अगर दूषित है वृहस्पति के तत्वों में तो कमी आ ही जाती है, साथ ही उपर्युक्त बातें विपरीत भी होने लगती हैं।
*नैरेत्य कोण*
नैरेत्य कोण(दक्षिण-पश्चिम का कोना) का स्वामी राक्षस होता है और अधिपति राहु-केतु को माना जाता है। यह दिशा अगर दूषित है तो अकस्मात अपयश और विभिन्न प्रकार की परेशानी का कारक बनता है। दिशा दूषित न रहने पर आकस्मिक दुर्घटनाओं से बचा जा सकता है।
*वायव्य कोण*
वायव्य कोण(पश्चिम-उत्तर का कोना) के अधिपति वायुदेव हैं और स्वामी हैं चंद्रमा। यह दिशा वायुतत्व, स्त्रीतत्व का गुण, कला, स्वभाव, माता का सुख, संवेदना आदि का वाहक होती है। अगर किसी प्रकार से यह दिशा दूषित है तो स्त्री को कष्ट और घर में कलह का कारक बनती है।
*योग और वास्तु :*
योग कहता है कि मस्तिष्क में आकाश और कंधों में अग्नि, नाभि में वायु, घुटनों में पृथ्वी और पदान्त में जल तत्वों का निवास होता है। आत्मा एक अनुभूति है। जिस प्रकार परमात्मा की अनुभूति मात्र है, उसी प्रकार आत्मा की भी है। क्योंकि आत्मा ही परमात्मा का अंश है। उसकी उपस्थिति की अनुभूति मात्र है, उसे देखना सम्भव नहीं है। क्योंकि दोनों निराकार हैं। योगशास्त्र में ‘स्वरविज्ञान’ का अपना महत्व है।
योग कहता है कि प्राणऊर्जा ही अपरोक्ष में आत्मा का अदृश्य अंश है। जिस प्रकार परमात्मा का अंश आत्मा है, उसी प्रकार आत्मा का ही अपरोक्ष अंश प्राण है। जब प्राण शरीर से निकलकर सूर्य में विलीन हो जाता है, तब शरीर निष्प्राण हो जाता है। इसीलिये सूर्य को वेदों में ‘प्रत्यक्ष देव’ माना गया है। सूर्य ही समस्त जगत् और प्राणियों का प्राण है और प्राणऊर्जा का स्रोत है। इसीलिए भवन निर्माण में सूर्यउर्जा के प्रवाह और उसके कुप्रभाव का ध्यान रखा जाता है।
किस कोण से भवन पर सूर्य का प्रकाश पड़ रहा है, उसका प्रभाव कैसा है ?–इन बातों को ध्यान में रखना पड़ता है। इसी प्रकार वायु का प्रवाह, चंद्रउर्जा का प्रभाव पृथ्वी के ऊर्जा प्रभाव को प्रमुखता से माना गया है। पूर्व में उदित सूर्य की रश्मियां भवन के प्रत्येक भाग् में प्रवेश कर सकें, क्योंकि प्रातःकालीन सूर्य की सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव सभी स्थानों पर पड़ता है और उसका नकारात्मक कुप्रभाव भी।
वह चाहे भवन हो या हो हमारा शरीर, क्योंकि ऊर्जा हमारे शरीर के रक्त के माध्यम से पूरे शरीर में व्याप्त होती है।
जिस प्रकार प्रातःकालीन सूर्यउर्जा का प्रभाव अमृत तुल्य माना गया है, उसी प्रकार मध्यकालीन सूर्य का प्रकाश विषतुल्य माना गया है। उसका सीधा प्रभाव न तो भवन के लिए शुभ माना जाता है और न् तो शरीर के लिए ही। यही कारण है कि वास्तुशास्त्र में भवन निर्माण के बारे में जो नियम-सिद्धान्त हैं, वे इसलिए हैं कि दक्षिण-पश्चिम के अनुपात में भवन निर्माण पूर्व-उत्तर भाग् में कम हो। इसीलिये उधर नीचा रखा जाता है ताकि प्रातःकाल के समय सूर्य की ऊर्जा का पूरा प्रवाह भवन पर उसमें निवास करने वाले प्राणियों पर पड़े। पूर्वोत्तर क्षेत्र खुला रहे तो भवन में वायु का प्रवाह बिना किसी अवरोध के प्रवेश करता है।
चुम्बकीय प्रवाह जो उत्तर से दक्षिण की ओर होता है, उसमें कोई व्यवधान न हो। दक्षिण-पश्चिम का भाग् ऊंचा और भारी रखने का भी वास्तु के साथ साथ वैज्ञानिक आधार भी है। जब पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिण दिशा में करती है तो एक विशेष् कोणीय स्थिति में होती है।
दक्षिण-पश्चिम दिशा भारी और ऊंची होने पर भवन में उर्जा-संतुलन बना रहता है और सूर्य की रश्मियों से उत्पन्न जो रेडियो-धर्मिता नामक तत्व है, उसका प्रभाव भवन पर कम पड़ता है जिससे भवन को शुद्ध और शीतल रखने में सहायता मिलती है।
आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण के कोने) में रसोईघर बनाने का मुख्य कारण है–प्रातःकालीन पूर्व से सूर्य की रश्मियां अपनी विशेष् प्राण-उर्जा वायु के साथ प्रवेश करती हैं जिनसे रसोईघर के खाद्य पदार्थों में शुद्धता के साथ-साथ तत्व-संतुलन भी रहता है, क्योंकि पूर्व दिशा में भवन-निर्माण नीचा रहने या खुला स्थान रहने के कारण सूर्य की नव अमृतमयी रश्मियां सीधी पड़ती हैं।
ईशान कोण (उत्तर-पूर्व के कोने) में पूजा, उपासना का स्थल होने का प्रमुख कारण यह है कि पूजा-उपासना करते समय देवता के समक्ष अधिक वस्त्र शरीर पर न रहें। इसका तात्पर्य यह है कि प्रातःकालीन अमृतमयी सूर्य- रश्मियां अपने साथ नैसर्गिक रूप से विटामिन ‘ए’ और ‘डी’ लेकर आती हैं। साथ ही उत्तरी क्षेत्र की चुम्बकीय उर्जा, ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से हमारा मानसिक संपर्क बना रहता है।
यही कारण है कि उत्तर दिशा को देवताओं का स्थान कहा गया है ताकि हमारी आध्यात्मिक चेतना का स्तर बढ़ा रहे। साधना-उपासना से प्राप्त ऊर्जा से हमारा शरीर व मन स्वस्थ रहे और सकारात्मक ऊर्जा का संतुलन हमें उपलब्ध् होता रहे। ईशान कोण को साफ-सुथरा, स्वच्छ रखने का कारण यही है।
उत्तर-पूर्व जल का स्रोत भी है। वैज्ञानिक रूप से विचार करें तो पता चलता है कि प्रदूषण का असर जहां वातावरण में पड़ता है, वहीं जल में भी पड़ता है। पूर्व में सूर्योदय होने के कारण सूर्य- रश्मियों से जल को ताप मिलता है और उस ताप के कारण जल शुद्ध होता रहता है जिसका ज्ञान सर्वसाधारण को नहीं हो पाता। यह एक नैसर्गिक भूगर्भीय जल- शुद्धिकरण की प्रक्रिया है जो सूर्यदेव से मनुष्य और प्राणियों को उपहारस्वरूप प्राप्त होती है।
वास्तुशास्त्र में इसीलिये जल-संग्रह का स्थान ईशान कोण बताया गया है। ईशान कोण में खुले स्थान में एक भूगर्भीय जल- संरक्षण-स्थल बनाकर उसे अच्छी तरह ढककर् रखा जाए तो घर में अपरमित सुख, समृद्धि, स्वास्थ्य, शांति और संतोष की वर्षा होती रहती है। यदि भूगर्भीय जल- संरक्षण की व्यवस्था न हो सके तो ईशान कोण में एक स्तम्भ बनाकर उसके ऊपर जल की एक बड़ी टंकी बनवाकर रख दी जाय तो भी प्रयोजन सिद्ध हो जाता है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार भवन-निर्माण करते समय भवन की चारों दिशाओं में खुला स्थान अवश्य छोड़ना चाहिए, लेकिन दक्षिण और पश्चिम दिशा में कम खुला स्थान छोड़ना चाहिए। भवन में निवास करने वाले लोगों के कारण कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ी रहती है जिसके संतुलन के लिए भवन के आस-पास औषधीय पेड़-पौधे-फूल आदि लगाने की व्यवस्था अवश्य रखनी चाहिए। पौधों में तुलसी का पौधा मुख्य है।
क्योंकि तुलसी का पौधा एकमात्र पौधा है जो घर में रात-दिन प्राणवायु का उत्सर्जन करता रहता है। पीपल का पेड़ भी ऐसा ही पेड़ है, पर घर के भीतर पीपल लगाना उचित नहीं माना जाता। भवन के आसपास जो पेड़ होते हैं, उनकी शाखाएं, डालियां घर में नहीं आनी चाहिए क्योंकि उनसे रात को कार्बन डाइऑक्साइड अधिक मात्रा उत्सर्जित होती रहती है।
यदि भवन खुला-खुला और हवादार है तो भवन में निवास करने वाले मनुष्यों और अन्य प्राणियों को आवश्यक प्राणवायु और पृथ्वी की चुम्बकीय ऊर्जा मिलती रहती है। वैज्ञानिकों के अपने अनुसंधानों के अनुसार वायुमण्डल और ब्रह्मांड में ऐसी बहुत-सी ऊर्जाएं हैं।
योग के अनुसार ऐसी अदृश्य शक्तियां हैं जिन्हें हम देख तो नहीं सकते लेकिन एक विशेष् क्रिया द्वारा अनुभव अवश्य कर सकते हैं जो दीर्घकाल की साधना और उसके अभ्यास से ही सम्भव है जिसे हम विशेष् ऊर्जा-प्रवाह कहते हैं और जो मनुष्य और प्रकृति में मैग्नेटिक फील्ड बनाते रहते हैं। (अभी तक 20 प्रकार के मैग्नेटिक फील्ड की खोज हो चुकी है, लेकिन उसमें से 5 प्रकार के मैग्नेटिक फील्ड ही मनुष्य के लिए उपयोगी पाए गए हैं।)
यह मैग्नेटिक फील्ड जल, वायु, भूमि, अग्नि और आकाश–इन पञ्च महाभूतों के माध्यम से आयोजित होता है। इसीलिए योग, तन्त्र और ज्योतिष की यह ‘त्रयी’ इस मैग्नेटिक फील्ड को ही ‘पञ्च महाभूत’ कहती है जो वास्तुशास्त्र का आधार है। कहने का तात्पर्य यह है कि इन पांचों तत्वों की ऊर्जा तथा उनके संतुलन को समझकर उनका यथोचित ध्यान रखा जाय तो ब्रह्माण्डीय शक्तियों का सही उपयोग किया जा सकता है।
योग-तंत्र में शरीर को भी ‘भुवन’ कहा गया है। जिस प्रकार मनुष्य शरीर के लिए भवन का निर्माण करता है, उसी प्रकार आत्मा जगत् में निवास करने के लिए शरीर की रचना करती है और उसे ही माध्यम बनाती है। चाहे वह भवन हो या हो शरीर, दोनों में ही पंचतत्व का महत्वपूर्ण स्थान और योगदान है। योग शरीर को ‘आसन’ मानता है आत्मोत्थान के लिए। इसलिए प्राकृतिक संतुलन के साथ शरीर को स्वस्थ और निरोग रखना चाहता है। निरपेक्ष भाव से अपने में लीन रखना चाहता है।
इसी प्रकार तन्त्र शरीर को ‘पीठ’ मानता है। (पीठ का मतलब है वह स्थान जहाँ दैवीय शक्तियां एक विशेष् स्थान या वस्तु से सम्बंध जोड़ती हैं।) तन्त्र का कहना है कि आत्म-साधना की उच्चावस्था प्राप्त करने के लिये कोई-न-कोई आधार चाहिए। वह आधार है शरीर जो ‘पंचमकार’ द्वारा ही सम्भव है। पञ्च मकार में पांच तत्व होते हैं–मांस, मदिरा, मीन, मुद्रा और मैथुन। ये पांचों ‘मादितत्व’ भी कहलाते हैं जो सुनने में तो सामान्य लगते हैं, लेकिन हैं बहुत ही रहस्यमय। इनका विशेष् आध्यात्मिक महत्व और रहस्य है जिन्हें कोई साधारण जन नहीं समझ सकता।
जितना महत्व इस शरीर का साधक जानता है, उतना महत्व एक संसारी नहीं जानता। संसारी शरीर के बाह्य आवरण को ही महत्व देता है पर योगी अथवा तंत्र-साधक शरीर को माध्यम मानकर् अपनी साधना- क्रियाएं करता है। वह शरीर के प्रति निरपेक्ष भाव रखता है। शरीर का अधिकाधिक उपयोग अपनी साधना के लिए करता है और उसी प्रकार उसका ध्यान एवम् संरक्षण भी करता है।
*ब्रह्मस्थान :*
जिस प्रकार ईशान कोण देवस्थान माना गया है, उसी प्रकार ब्रह्मस्थान को भवन का केन्द्रस्थान समझना चाहिए। जब शरीर प्राणवायु ग्रहण करता है तो अपान बनकर बाहर निकलता है। आत्म-विज्ञान ने प्राण के तीन स्वरूपों की व्याख्या की है–प्राण, व्यान और उदान। यही तीनोँ मनुष्य के जन्म, जीवन और मृत्यु के कारक हैं। उत्तर-पूर्व की ओर से आने वाला प्राणवायु जब दक्षिण-पश्चिम (नैरेत्य कोण) की ओर को प्रवाहित हो कर् एकत्रित होता है तब वह पुनः भूखण्ड के केंद्र की ओर प्रवाहित होता है। केंद्र अर्थात् ब्रह्मस्थान में स्थित होने के कारण सकारात्मक ऊर्जा के रूप में प्रवाहित होता है।
प्राचीन वास्तु-ग्रन्थों में इस ऊर्जा को जीवनीशक्ति कहा गया है, इसीलिये ब्रह्मस्थान को अति पवित्र माना गया है। किसी भी प्रकार का मांगलिक आयोजन ब्रह्मस्थान पर ही होना शुभ माना गया है। इस स्थान को हमारे तत्वद्रष्टाओं ने विशेष् महत्व दिया है और निर्माण रहित रखने का निर्देश दिया है। कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य पृथ्वी के लिए केंद्र है, उसी प्रकार ब्रह्मस्थान भवन के लिये केंद्र है। यह स्थान ऊर्जा का विशेष संतुलक-स्थान है।
*आकाश तत्व :*
आकाश यानी अनन्त। अनन्त यानी ब्रह्मबोध जिससे शब्द की उत्पत्ति मानी गयी है। पृथ्वी सौरपरिवार का एक महत्वपूर्ण ग्रह है। प्रत्येक ग्रह अपनी कक्षा में भ्रमण करते हैं। उनका प्रभाव पृथ्वी और उसमें रहने वाले प्राणियों पर पड़ता रहता है। आकाशतत्व का संतुलन आवश्यक है। इसीलिए प्राचीन काल के मंदिरों में गुम्बद के ऊंचा रखने का रहस्य है ताकि ध्यान, उपासना, प्रार्थना आदि में पर्याप्त आकाशतत्व मिल सके।
ऊंचा गुम्बद आकाश तत्व की विपुलता का प्रतीक है। देखा जाय तो सभी तत्वों में आकाश तत्व सबसे अधिक सूक्ष्म है और जो जितना अधिक सूक्ष्म होता है, वह उतना ही अधिक महत्वपूर्ण होता है। आकाश तत्व से ही संसार का अस्तित्व है। वैसे देखा जाय तो यह तत्व स्वयम् में ‘कुछ नहीं’ दिखता, परन्तु अन्य सभी तत्वों को संतुलित करने में इसकी सर्वाधिक भूमिका है। अन्य तत्वों के प्रवाह और उनकी शुद्धता में सहभागी रहता है। आकाश तत्व के सहयोग के बिना कोई अन्य तत्व अपना प्रभाव नहीं दिखा सकता है।
उर्जा-प्रवाह समानांतर रूप से सभी स्थानों पर सतत होता रहे, ऐसा इसी ब्रह्मस्थान से सम्भव होता है। यह स्थान अति संवेदनशील भी होता है। ऐसे स्थान पर जल संस्थान, रसोई, स्नानघर, शौचालय, शयनकक्ष, सीढ़ी आदि का निर्माण कदापि नहीं करवाना चाहिए। इस ब्रह्मस्थान को हर हालत में खुला और स्वच्छ रखना चाहिए।
*वायु तत्व*
प्राणियों और जीवों को जीने के लिए भोजन, पानी और उचित स्थान आवश्यक है, लेकिन जो सबसे अधिक आवश्यक और अनिवार्य वस्तु है सभी के लिए, वह है वायु। वायु के बिना एक पल का जीवन भी सम्भव नहीं है। जिस प्रकार आकाश-मंडल है, उसी प्रकार हमारे ऋषियों ने वायु-मण्डल भी माना है। इसी से सृष्टि की उत्पत्ति भी हुई है। वैसे तो ‘शब्द’ आकाश का गुण है और ‘स्पर्श’ वायु का, लेकिन वायु और आकाश एक दूसरे के सबसे निकट होने के कारण शब्द और स्पर्श दोनों तत्व वायुतत्व के विशेष् गुण हैं। हम-आप सभी भली-भांति जानते हैं कि स्पर्श से संवेदना और संवेदना से चेतना यानि स्पर्शानुभूति और स्पर्शाअनुभूति से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है।
प्रतिक्रिया का अभिप्राय शुभाशुभ फल प्रदान करना है। शुभाशुभ फल से संस्कार उतपन्न होता है जो जीवन को एक दिशा प्रदान करता है। संस्कार मनुष्य को विचार भी प्रदान करता है और विचार आचरण को प्रभावित करते हैं। ये अचार-विचार ही मनुष्य की पहचान हैं, प्राण हैं और हैं उसके व्यक्तित्व के परिचायक भी। क्योंकि इन्हीं आचार-विचारों के कारण मानव मस्तिष्क अर्थात् बुद्धितत्व और मनस्तत्व कार्य करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि यह वायुतत्व मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमता के विकास का महत्वपूर्ण मार्ग माना गया है।
इस तत्व का मुख्य स्थान वायव्य कोण (पश्चिम-उत्तर का कोना) है। वायुतत्व की प्रचुरता के फलस्वरूप यह क्षेत्र वृद्धि, विस्तार, वेग-प्रवाह, चंचलता और निकास का स्थान माना गया है। यह वही भवन का मुख्य स्थान है जहाँ घर का टॉइलेट, सीवर-निष्कासन आदि के लिए सबसे उपयुक्त होता है। भवन में गैराज भी इसी स्थान पर बनवाना समीचीन है। चूंकि यह स्थान मुख्य निकास का स्थान माना गया है, इसलिए हम सभी लोगों को एक रहस्य की बात अवश्य जान लेनी चाहिए कि घर में विवाह योग्य कन्या के विवाह में, उसके रिश्ते में किसी प्रकार की अड़चन आती है तो उस कन्या के निवास के लिए यदि इस कोने में कक्ष दे दिया जाय तो विवाह या रिश्ते की अड़चन स्वतः ही दूर हो जाती है–ऐसा वायुतत्व के अनुकूलन के कारण कन्या के ग्रह-नक्षत्रों पर भी प्रभाव पड़ना शुरू हो जाने के कारण होता है और उसका यथाशीघ्र रिश्ता भी सम्पन्न हो जाता है।
वायव्य कोण में स्नानगृह नहीं होना चाहिए। आजकल भवनों में शौचालय और स्नानगृह एक साथ एक ही स्थान पर बनवाने का चलन- सा हो गया है। ऐसा सम्भवतया स्थान के अभाव के कारण होता होगा या वास्तुशास्त्र सम्बन्धी अज्ञानता के कारण। इस दिशा में स्नानगृह होने से घर की स्त्रियों के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
हां, बच्चों और अथितियों के निवास के निवास के लिए यह स्थान सर्वोत्तम माना गया है। वायव्य कोण वस्तु की निकासी के लिए, वस्तु के आदान-प्रदान के लिए प्रयोग करना चाहिए। यदि इस स्थान पर मनुष्य कोई व्यापारिक संस्थान या दुकान आदि चलाता है तो उसे बहुत लाभ होने के अवसर रहते हैं। लेकिन इस स्थान पर तैलीय वस्तुओं का संग्रह नहीं करना चाहिए।
कहने का तात्पर्य यह है कि वायव्य कोण विस्तार, वृद्धि और निकास का स्थान है। इस क्षेत्र में खिड़कियां पूर्व या उत्तर में होनी चाहिए।
*अग्नि तत्व*
हमारे जगत् के लिए ही नहीं, सूर्यउर्जा समस्त सौर-मण्डल के लिए भी ऊर्जा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। सूर्य से हमें उष्णता के साथ-साथ जीवन-उर्जा भी प्राप्त होती है। उष्णता अग्नि का स्वरूप। इसीलिए आधारभूत तत्व अग्नि का एक विशेष् महत्व है हमारे जीवन में। क्योंकि अग्नि शब्द, स्पर्श और रूप का कारक है। अग्नि में ही प्रकाश है जिसके कारण हम जगत् को देख सकते हैं। आदिकाल से ही सभी शुभ कार्यों में अग्नि का विशेष् स्थान है.
देखा जाय तो अग्नि में तेजस रूपी विशेष् गुण है। इसीलिये अग्नि जीवन का चिरन्तन सत्य है। अग्नि अविनाशी है, इसीलिए अग्नि को देवता माना गया है, जो सत्य है।
वास्तुशास्त्र के अनुसार आग्नेय कोण (पूर्व और दक्षिण का कोना) में अग्नि और भोजन का स्थान माना गया है जहाँ सर्वप्रथम सूर्य का तेज मिलता है। सूर्य के तेज से एक विशेष् प्रकार की ऊर्जा-तरंग आग्नेय कोण में व्याप्त होती है जो हमारे स्वास्थ्य और खाद्य पदार्थ को विशेष् बल प्रदान करती है।
*जल तत्व*
योगविज्ञान में ‘शब्द’ आकाशतत्व, ‘स्पर्श’ वायुतत्व, ‘रूप’ अग्नितत्व और ‘जल’ रसतत्व कारक माना गया है। वैसे जगत् के लिए जल एक महत्वपूर्ण तत्व है। जल से ही हमारे जीवन और हमारे जगत् का विस्तार है। जल प्राणऊर्जा का स्रोत भी है। वास्तुशास्त्र में उत्तर दिशा जल का स्थान माना गया है।
इसके संरक्षण और प्रवाह पर विशेष् ध्यान देना आवश्यक है। दिन में सूर्य का प्रकाश और रात्रि में चंद्रमा का प्रकाश जलस्थान पर पड़ता है तो भवन में निवास करने वाले लोगों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
*पृथ्वी तत्व*
पृथ्वीतत्व पर गंधरूपी गुण प्रधान है। नौ ग्रहों में पृथ्वी तीसरे स्थान पर भ्रमण कर रही है। पृथ्वी के गर्भ में एक निश्चित स्थान पर उत्तर और दक्षिण स्थित चुम्बकीय तत्व और गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी सभी प्राणियों और पदार्थो पर अपना विशेष् प्रभाव छोड़ती रहती है। पृथ्वीतत्व और अन्यतत्वों से पृथ्वी पर सृष्टि-प्रक्रिया आरम्भ हुई, जीवन शुरू हुआ और फिर शुरू हुआ मनुष्य का जीवन-चक्र।
इसीलिये भारत के आर्ष पुरुषों और ऋषियों ने पृथ्वी को देवी और माता माना है क्योंकि पृथ्वी सृजन और जीवन के लिए आधार-भूमि है। भवन-निर्माण के समय भूमि-पूजन का यही महत्व है।
वास्तुशास्त्र में नैरेत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम का कोण ) का विशेष् महत्व है। यह स्थिरता का कारक है। दाम्पत्य जीवन में यह क्षेत्र स्थिरता लाता है। दाम्पत्य जीवन के लिए दक्षिण में बना शयन-कक्ष या पश्चिम में बना शयन-कक्ष विशेष् शुभ फलदायक होता है।
यहां व्यापार से संबंधित कार्यालय नहीं होना चाहिए। यदि किसी कारण से ऐसा करना पड़े तो उसका दरवाजा उत्तर दिशा में खोलना ठीक रहता है। गृह- स्वामी का या व्यापारिक प्रतिष्ठान के मालिक का कमरा यदि वहां होता है तो वह समृद्धि कारक होता है। इस क्षेत्र में पानी की बोरिंग नहीं करवानी चाहिए।
_भवन में शांति और समृद्धि के लिए लाल झंडी लगानी चाहिए। कहने का तात्पर्य है कि पांचों तत्वों का संतुलन सुखमय जीवन के लिए आवश्यक है।_
*(चेतना विकास मिशन)*