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सांख्यिकी शास्र के दुरुपयोग का राज

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शशिकांत गुप्ते

मुद्देविहीन,विचारविहीन,पूंजी, सत्ता,और व्यक्ति केंद्रित राजनीति का प्रचलन लोकतंत्र को कमजोर करने का एक सुनियोजित षड़तंत्र है।
राजनीति नीतिविहीन हो रही है और नीति की आड़ में स्वार्थपूर्ति की नीयत हो छिपाने के लिए सांख्यिकी मतलब Statstics इस महत्वपूर्ण गणितीय विज्ञान का भी राजनीति में स्वार्थपूर्ति के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है।
मनुष्य ने हर एक शास्त्र के व्यापक अर्थ को हाशिए पर रख कर अपने स्वार्थपूर्ति के लिए अपने सुविधाओं का शास्त्र बना लिया है।
राजनीतिशास्त्र, नीति निर्धारण का मोर्चा ( Front) है।दुर्भाग्य से कुछ कथित साहित्यकारों द्वारा राजनीतिशास्त्र को बहुत ही निम्नस्तर पर प्रस्तुत किया जाता है।आश्चर्य की बात यह है कि जो लोग हास्यव्यंग्य के नाम पर चंद रुपयों के लिए मंचो पर सिर्फ फूहड़ता प्रस्तुत करतें हैं।यही लोग राजनीति को कोसतें हैं।राजनीति को कोसना मतलब उन षडयंत्रकारियो का अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन करना है,जो शातिर लोग नहीं चाहतें हैं कि,अच्छे और ईमानदार लोग राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करें।
ठीक इसी तरह राजनीति को सिर्फ और सिर्फ अपनी तिज़ारत समझने वाले लोग सांख्यिकी का दुरुपयोग अपने स्वार्थपूर्ति के लिए करतें हैं।सांख्यिकी के आधार पर Graphical chart अर्थात रेखाचित्र के माध्यम से देश की आर्थिक व्यवस्था को कागजों पर सुदृढ़ बताने की साज़िश की जाती है।
वर्तमान में देश का औसत आदमी और मध्यमवर्गीय व्यक्ति सामाचारों में पढ़ता,देखता और सुनता है कि, चार पहिंया वाहनों की खूब बिक्री हो रही है,तो वह प्रसन्न हो जाता है,यह सोचकर कि, देश प्रगति कर रहा है।ठीक इसीतरह आए दिन शेयर बाजार की ऊंच नींच के समाचारों को इसतरह प्रस्तुत किया जाता मानो शेयर बाजार ही देश की अर्थनीति का मापदंड है?शेयर का व्यापार सिर्फ और सिर्फ हार और जीत के लिए किया जाता है।यह Speculation नहीं तो और क्या है?
इनदिनों समाज में बैठें स्वार्थी तत्व हरएक क्षेत्र में Calculation को छोड़ Menipulation करतें हैं।
जो सरकार देश के कुल मतदाताओं की संख्या के महज इकत्तीस से सैंतीस प्रतिशत वोटों से बनती है।उसके मुखिया को लोकप्रिय नेता के रूप में प्रचारित किया जाता है।लोकप्रियता को प्रचारित करने भी सांख्यिकी शास्त्र का दुरुपयोग ही तो है।
प्रख्यात समाजवादी, विचारक,चिंतक,स्व.रामनोहर लोहियाजी ने कहा है,भारत में व्यक्तिपूजक समाज है।यदि कोई बबूल के वृक्ष को भी फूलों का हार पहनादे तो लोग उसे भी पूजने लग जाएंगे।
इसी सोच को बदलने का कर्तव्य साहित्यकारों का है।सच्चे साहित्यकार हमेशा व्यवस्था परिवर्तन के पक्षधर होतें हैं।सिर्फ सत्ता परिवर्तन से कुछ होने वाला नहीं है।पिछले नब्बे महीनों से हम सत्ता परिवर्तन का खामियाजा भोग ही रहें हैं।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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