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स्वाध्याय+ज्ञान+ स्वभाव= स्वस्थ व्यक्तित्व 

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     राजेंद्र शुक्ला, मुंबई 

         हर आदमी को लगता है कि वह काम में बहुत व्यस्त रहता है, उस पर जिम्मेदारियों का तथा परिश्रम का बहुत बोझ रहता है, पर सही बात ऐसी नहीं। उसका कार्यक्रम अनियन्त्रित, बेसिलसिले, अस्त-व्यस्त ढंँग का होता है, इसलिए थोड़ा काम भी बहुत भार डालता है। 

      यदि हर काम समय विभाजन के अनुसार सिलसिले से, ढंँग और व्यवस्था के आधार पर बनाया जाए तो सब काम भी आसानी से हो सकते हैं। मानसिक भार से भी बचा जा सकता है और समय का एक बहुत बड़ा भाग उपयोगी कार्यों के लिए खाली भी मिल सकता है। 

      हमारे अविकसित देश में तो लोग पढ़ने में ध्यान देना तो दूर, उसका महत्त्व समझने तक में असमर्थ हो गए हैं। परन्तु जिनकी विवेक की आँखें खुली हुई हैं, वे जानते हैं कि इस संसार की प्रधान शक्ति ज्ञान है और वह ज्ञान का बहुमूल्य रत्न भण्डार पुस्तकों की तिजोरियों में भरा पड़ा है। इन तिजोरियों की उपेक्षा करके कोई व्यक्ति अपने अन्तः प्रदेश को न तो विकसित कर सकता है और न उसे महान बना सकता है।

       अध्ययन एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है, जैसे शरीर के लिए भोजन। इसलिए मन-देवता को राजी करना होगा कि दैनिक कार्यक्रम की व्यवस्था बनाकर वे कुछ समय बचावें और उसे अध्ययन के लिए नियत कर दें। नित्य का अध्ययन वैसा ही अनिवार्य बना दें, जैसा कि शौच, स्नान, भोजन और शयन आवश्यक होता है।

      स्वाध्याय और ज्ञान के बाद तीसरी विभूति है-स्वभाव। इन तीन को ही मिलाकर पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अपने सब कार्यों में व्यवस्था, नियमितता, सुन्दरता, मनोयोग तथा जिम्मेदारी का रहना स्वभाव का प्रथम अङ्ग है। दूसरा अङ्ग है- दूसरों के साथ नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं सहृदयता का व्यवहार करना। 

      तीसरा अङ्ग है- धैर्य, अनुद्वेग, साहस, प्रसन्नता, दृढ़ता और समता की सन्तुलित स्थिति बनाए रखना। ये तीनों ही अङ्ग जब यथोचित रूप से विकसित होते हैं तो उसे स्वस्थ कहा जाता है। ये तीनों बातें मन की स्थिति पर निर्भर करती हैं।

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