~सुधा सिंह
व्यापक अर्थ में रति और काम समानार्थी हैं। मनुष्य जो भी कार्य करता है वह काम की चेष्टा है।अथर्ववेद में काम की सार्वभौम सत्ता एवं व्यापकता का विशद वर्णन मिलता है।
काम को सृष्टि उत्पत्ति से पहले मन की सर्वव्यापिनी वृत्ति के मूल तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। अथर्ववेद में में काम को ही दाता और काम को ही प्रतिग्रहीता माना गया है। सम्पूर्ण सृष्टि काम से ही संचालित हो रही है। व्यापक अर्थ में काम मूल वासना, इच्छा, आकांक्षा,सर्जनोद्गार, सर्जन सुख और प्रेम का ही पर्याय है। काम के ही समान रति व्यापक अर्थ रखने वाला शब्द है।
अग्निपुराण में कहा गया है कि सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान विभु के सहजानन्द की अभिव्यक्ति यदा कदा हो जाती है जो चिद् शक्ति सम्पन्न , चमत्कारपूर्ण और रसमय होती है। उसके आदि विकार अहंभाव से भुवनव्याप्त ममता का आविर्भाव होता है और ममता संकलित अभिमान से श्र्रृंगार रस की जननी रति की उत्पत्ति होती है।
रति के स्मरप्रिया,कामपत्नी, अनुराग,आसक्ति,रमण,सन्तोष,प्रीति,प्रेम, मनोनुकूल अर्थों में सुख संवेदन आदि अनेक अर्थ हैं।
ईश्वर के प्रति परानुरक्ति अर्थात् भक्ति भी रति ही है। जयशंकर प्रसाद ने कामायनी में काम और उसके आगमन का विवेचन करते हुए रति को अनादि वासना के रूप में सिद्ध किया है।
सृष्टि की रचना में रति या काम की ही प्रधानता है क्योंकि यह सहजात वृत्ति है। अंकुरित काम ही अपनी प्रिया रति के सहयोग से सृष्टि की उत्पत्ति करता है।
रति और काम दोनो की अन्तश्चेतना प्रेम है जो जन्म के साथ ही मनुष्य के हृदय में अंकुरित होता है तथा जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुरूप अनेक रूपों में चरितार्थ होता रहता है।
सभी रसों एवं उनके स्थायीभावों के मूल में भी प्रेम का ही चमत्कार परिलक्षित होता है। रति अथवा प्रेम ही श्र्रृंगार रस का स्थायीभाव है ,जो जड़ चेतन सब में समान रूप से अपना व्यापक प्रभाव फैलाए हुए है और जिसके अमोघ सूत्र में बंधकर सभी परस्पर मिलन की आकांक्षा से आन्दोलित हैं।
संसार में जड़ चेतन कोई भी पदार्थ एकाकी रहना नहीं चाहता। सभी अपने युग्म के साथ प्रेमतन्तु में बंधकर मधुर मिलन का महोत्सव मना रहे हैं या उसकी प्राप्ति के प्रयास में संलग्न हैं।
झरना सरिता से,सरिता सागर से,सागर धरती से,धरती आकाश से और आकाश में संचरण करने वाले पवन एक मधुर भाव लिए हुए परस्पर मिले रहते हैं।
इस प्रकार विश्वप्रपंच का मूलाधार प्रेमी और प्रेमिका का पारस्परिक सौन्दर्याकर्षण एवं मधुर मिलन ही है। इसके अभाव में विश्व में फैली हुई मधुरिमा,रस की उमड़ती हुई धारा निस्सार है। काम और रति के पारस्परिक सम्बन्ध और महत्ता पर प्रकाश डालते हुए हरिऔध जी ने लिखा है कि दर्शनीयता जितनी सौन्दर्य में मिलती है,अन्य गुणों में नहीं।
जितना आकर्षण और हृदयग्राहिता रूप में होती है,जितना मोहक वह होता है,दूसरा नहीं। इसीलिए काम लोकोत्तर कमनीय ओर कुसुमायुध है।उसकी सहधर्मिणी रति है जो प्रेममयी,आसक्तिमयी,रमणशीला और क्रीडाकलापुत्तलिका है।
काम यदि सौन्दर्य सरसीरुह है तो वह उसकी शोभा,काम यदि राका मयंक है तो रति उसकी कौमुदी। मानव हृदय काम रति परायण है, अतः उसके प्रांगण में प्रायःश्र्रृंगार रस शिशु रमण करता रहता है ,जिसका परिणाम वे ललित कलाएं हैं जिनसे सारा धरातल ललितभूत है।