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शैलेंद्र ने अपने गीतों को सुबह की सैर के दौरान ही तराशा

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किसी ने कहा है कि एक लंबी सूनी सड़क आप को दूर तक सोचने का मौका देती है. महान गीतकार शैलेंद्र के जीवन में भी ‘जूहू बीच’ की लंबी सूनी सड़कों ने अहम किरदार निभाया था. सुबह की सैर पर निकलने वाले शैलेंद्र अपने अधिकतर गीतों को इस सैर के दौरान ही तराशा करते थे. बताते हैं कि एक बार राजकपूर ने उनसे पूछा कि वे जीवन के हर रंग और जिंदगी के हर फलसफे पर इतनी आसानी से गीत कैसे लिख देते हैं. शैलेंद्र का जवाब था, ‘अगर सुबह न होती तो बॉम्बे में ये सूनी सड़कें न होतीं, और ये सूनी सड़कें न होतीं तो मैं अपनी तन्हाई में डूब न पाता और मेरे दोस्त, तुम्हें ये गीत न मिलते.’

दरअसल, शैलेंद्र के गीतों की खासियत ही यह है कि हर कोई इन गीतों में खुद को समाया हुआ सा महसूस करता है, ऐसा लगता है मानो ये गीत उसी के लिए लिखे गए हों. वक्त हो या मौसम, बचपन हो या जवानी, गम हो या खुशी, जीवन के हर रंग में शैलेंद्र के गीत आज भी आप का साथ देते नजर आयेंगे. यही कारण है कि वे एक बार लोगों की जुबान पर चढ़े तो फिर उतरे नहीं. ‘आज फिर जीने की तमन्ना है’, ‘दिल ढल जाए’, ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’, ‘पिया तोसे नैना लागे रे’, ‘खोया-खोया चांद’, ‘सजन रे झूठ मत बोलो’ सहित उनके कई गीत हैं जिन्हें कालजयी कहा जा सकता है.

शैलेंद्र को फ़िल्मी दुनिया में लाने का श्रेय राजकपूर को ही जाता है. घरवालों के दबाव में आकर शैलेंद्र रेलवे में नौकरी करने लगे थे. लेकिन, अंदर छिपे गीतकार को कैसे रोका जा सकता था? शैलेंद्र नौकरी के दौरान भी कवितायें लिखते रहते थे. अपने इस शौक की वजह से उन्हें कई बार अफसरों की नाराजगी का सामना करना पड़ता था. आखिर एक दिन उन्होंने नौकरी छोड़ कर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने वाले युवकों का हौसला अपनी कविताओं से बढ़ाने की ठान ली.

इसी दौरान एक कार्यक्रम में जब वे अपना लोकप्रिय गीत ‘जलता है पंजाब’ सुना रहे थे तो राजकपूर उनसे काफी प्रभावित हुए. राज कपूर ने उनके इस गीत को अपनी फिल्म ‘आग’ के लिए खरीदने की पेशकश कर डाली. स्वभाव से सिद्धांतवादी शैलेंद्र को उनकी यह बात काफी नागवार गुजरी. उन्होंने उस समय भारतीय सिनेमा में छाए हुए इस अभिनेता से साफ़ शब्दों में कह दिया कि कविता बिकाऊ नहीं होती. बताते हैं कि राजकपूर ने मुस्कराते हुए शैलेंद्र से कहा, ‘आप कुछ भी कहें लेकिन, पता नहीं क्यों मुझे आप के अंदर सिनेमा का एक सितारा नजर आता है.’ उन्होंने शैलेंद्र के हाथ में एक पर्ची पकड़ाई और कहा, ‘जब जी चाहे इस पते पर चले आना.’

आखिरकार, एक दिन ऐसा आया कि घरेलू मजबूरियों ने इस सिद्धांतवादी लेखक को राज कपूर के दरवाजे पर पहुंचा ही दिया. यह वह समय था जब शैलेंद्र की पत्नी गर्भवती थीं और उनके पास दवाई के लिए भी पैसे नहीं थे. वे राज कपूर से मिलने आरके स्टूडियो पहुंचे और कहा कि वे उनके लिए गीत लिखने को तैयार हैं. राज कपूर ने उन्हें अपनी अगली फिल्म ‘बरसात’ का गीत लिखने को कहा. बताते हैं कि उसी समय बरसात भी हो रही थी. किस्सा है कि शैलेंद्र ने बारिश की ओर देखते हुए राज कपूर से कहा, ‘यह होगा आप का गाना- बरसात में हम से मिले तुम…..’ एकाएक शैलेंद्र के मुंह से निकलीं यह पंक्ति बाद में इसी शीर्षक वाले गीत के रूप में ढली और यह गीत खूब चला. इसके बाद राजकपूर के साथ उन्होंने कई फ़िल्में कीं.

इसी तरह एक और किस्सा है कि एक बार संगीतकार शंकर-जयकिशन ने उन्हें रंगोली फिल्म का गाना लिखने को कहा. शैलेंद्र ने देखा कि जयकिशन एक खूबसूरत लड़की को बार-बार मुड़कर देख रहे थे, शैलेंद्र ने उसी वक्त उन्हें ये लाइनें सुनाईं – ’मुड़-मुड़ के न देख मुड़-मुड़ के……’ और कहा कि लो बन गया तुम्हारा गाना. इसके बाद शंकर-जय किशन के साथ उनकी जोड़ी खूब जमी. शैलेंद्र ने निर्माता-निर्देशक विमल राय के साथ भी खूब काम किया. अपने बेहतरीन काम के लिए उन्हें तीन बार फिल्म फेयर अवार्ड दिया गया.

फिल्म जगत में उर्दू शायरों और कवियों के वर्चस्व वाले उस दौर में अगर शैलेंद्र ने अपनी जगह बनायी तो उसका सिर्फ एक कारण था कि उन्होंने अपने गीतों में हमेशा आम लोगों की भावनाओं को शामिल किया. ‘प्यार हुआ इकरार हुआ’, ‘आवारा हूं’, ‘दुनिया वालों से दूर जलने वालों से दूर’, ‘सजन रे झूठ मत बोलो’ और ‘तुम ने पुकारा और हम चले आये’ जैसे उनके न जाने कितने ही गीत लोगों की जुबान पर अब तक चढ़े हुए हैं. शैलेंद्र ने ‘बूट पॉलिश’, ‘श्री 420’ और ‘तीसरी कसम’ जैसी फिल्मों में अभिनय भी किया था. उन्होंने फिल्म ‘परख’ में संवाद भी लिखे.

अच्छे के बाद फिर उनका बुरा वक्त आया. लगातार मिल रही सफलताओं के बाद शैलेंद्र ने अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा दांव खेला और यही आगे जाकर उनकी मौत का कारण भी बना. यह फैसला था फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ को लेकर फिल्म ‘तीसरी कसम’ बनाने का. बताते हैं कि जब इस फिल्म की स्क्रिप्ट उन्होंने राज कपूर को सुनाई तो उन्होंने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने की जिद पकड़ ली. जिसके बाद महमूद और नूतन को हटाकर इस फिल्म में राज कपूर और वहीदा रहमान को रखा गया. काफी बड़े बजट की इस फिल्म को शैलेंद्र ने अपनी कड़ी मेहनत और जिंदगी की सारी कमाई लगाकर बनाया.

फिल्म रिलीज हुई. ‘कहानी को कहने’ और ‘अभिव्यक्ति की प्रस्तुति’ के मामले में उसे उस समय तक बनी सारी फिल्मों से श्रेष्ठ बताया गया. लेकिन, दुर्भाग्य कि फिल्म सिनेमाघरों में नहीं चली. इस फिल्म की वजह से कर्ज में डूबे शैलेंद्र का किसी भी दोस्त ने साथ नहीं दिया. इससे उन्हें काफी तकलीफ पहुंची और वे शराब में डूब गए. हालांकि, उनकी काबिलियत ही थी कि उन्होंने इस गम में भी कई गाने लिखे. इनमें से एक ‘दोस्त दोस्त ना रहा’ तो काफी लोकप्रिय हुआ.

हालांकि, कुछ समय बीतने के बाद ‘तीसरी कसम’ हिंदी सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई और लोगों को ‘महुआ घटवारन’ की कहानी समझ में आयी. लेकिन, अफ़सोस कि तब तक इस कहानी को गढ़ने वाला और जिंदगी के भंवर में संभलने के लिए तीन जरूरी कसमें खिलाने वाला नायक इस दुनिया को अलविदा कह चुका था. बताया जाता है कि इस फिल्म के न चलने के सदमे से हुई उनकी मौत से एक दिन पहले उन्होंने राज कपूर से ‘मेरा नाम जोकर’ फिल्म के गीत ‘जीना यहां मरना यहां’ को पूरा करने का वादा किया था. लेकिन वे इस वादे को पूरा नहीं कर सके. उनके जाने के बाद इस गीत को ‘हसरत जयपुरी’ ने पूरा किया.

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