शम्बूक को लेकर अनेक रामकथाओं में दर्ज प्रसंग से रूप में थोड़ा अलग, किन्तु सार में यथावत पूर्ववत, मंचन उत्तरप्रदेश में गंगा किनारे बसे सोरों के एक गाँव सलेमपुर बीवी की रामलीला में हुआ, एक अंतर यह भी था कि इस बार मंच की बजाय दर्शक दीर्घा में हुआ।
कासगंज जिले के सोरों पुलिस थाने में रामरती देवी द्वारा लिखाई गयी तहरीर में इसे इस तरह बयान किया गया है कि : ‘पंचायत भवन में हो रही रामलीला देखने गए उसके पति के खाली कुर्सी पर बैठने की बात रामलीला के पदाधिकारियों को अच्छी नहीं लगी । पहले उन्होंने उसके साथ दुर्व्यवहार और गाली गलौज की, इसके बाद रामलीला कमेटी के इशारे पर 112 नंबर की गाड़ी पर मौजूद कांस्टेबल बहादुर और विक्रम चौधरी ने रामलीला प्रांगण में भारी भीड़ के सामने उनके पति – रमेश चन्द्र – को जातिसूचक गालियां दीं। उनके गले में पड़े गमछे को पकड़कर खींचा और जमीन पर गिरा दिया। उन्हें लात घूंसों से भरी सभा में पीटा भी गया। इसके बाद वे रोते हुए अपने घर आ गए। सभा में उनके रोने का भी मजाक बनाया गया। दिमागी पीड़ा के कारण उन्होंने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।‘
रमेश अपने परिवार में इकलौते कमाने वाले थे। वे ठेले पर फेरी लगाकर सब्जियां बेचा करते थे। उनके परिवार में पत्नी और छह बच्चे हैं। चार बेटी और दो बेटे। दो बेटियों की शादी हो गई है, जबकि चार अभी नाबालिग हैं। मृतक के दामाद का कहना है कि “रामलीला कमेटी में पंडित और ठाकुर जाति के ही लोग हैं, इन्हीं के इशारे पर मारपीट की गई है।” आखिरी खबर मिलने तक पुलिस ने सिवाय उन दोनों पुलिस वालों को लाइन हाजिर करने के और कुछ नहीं किया है।
कासगंज की रामलीला में जो हुआ, वह अपवाद नहीं है, सनातनी होते जा रहे देश में आमतौर से और उत्तरप्रदेश में खासतौर से ऐसा होना अब आम होता जा रहा है। होने को मृतक रमेशचंद्र धोबी थे, उत्तरप्रदेश में इस जाति समूह को अनुसूचित जाति में वर्गीकृत किया गया है। आने को रामकथाओं में धोबी के कहे पर राम द्वारा सीता को त्यागने का भी प्रसंग आता है। मगर कासगंज की रामलीला में हुई घटना में वे शम्बूक की गत को प्राप्त हुए। फर्क सिर्फ इतना है कि अब शम्बूक को मारने के लिए हथियार उठाने की बजाय उसे ऐसे मुकाम पर धकेले जाने की विधि खोज ली गयी है कि वह खुद ही आत्महत्या कर ले।
इधर शम्बूक मारा जा रहा था और उधर चार दिन बाद अपने दशहरा भाषण में बोलते हुए आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत दावा कर रहे थे कि “सांस्कृतिक एकात्मकता एवं श्रेष्ठ सभ्यता की सुदृढ़ आधारशिला पर अपना राष्ट्र जीवन खड़ा है। अपना सामाजिक जीवन उदात्त जीवन मूल्यों से प्रेरित और पोषित है।“ वे समाज के सभी वर्गों व स्तरों में व्यक्ति की व कुटुंबों की मित्रता का आव्हान कर रहे थे। आदिवासियों को लुभाने के लिए बिरसा मुंडा को भगवान मानते हुए उनकी डेढ़ सौवीं जन्म जयंती का उल्लेख किया जा रहा था। दोनों हाथों से मनुस्मृति की तलवार भांजते हुए दलितों और ओबीसी को गुमराह करने के लिए एक के बाद एक करके झूठों की झड़ी लगाए हुए थे। एक तरफ जाति जनगणना से लगातार इंकार किया जा रहा है, उसे समाज की एकता बांटने वाला बताते हुए, “बंटेंगे, तो कटेंगे” के उन्मादी नारे के साथ हिन्दुओं की एकता कायम करने के युद्ध घोष में बदला जा रहा है।
दूसरी तरफ हरियाणा और महाराष्ट्र की सभाओं में प्रधानमंत्री मोदी इस झूठ को अकल्पनीय ऊंचाई तक पहुंचा रहे थे और दावा कर रहे थे कि देश में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने और अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने का काम भाजपा सरकार ने ही किया है। बोलते-बोलते शायद खुद उन्हें भी लगा होगा कि यह कुछ ज्यादा ही हो गया, तो अगला झूठ उस सरकार में अटल बिहारी वाजपेई और भाजपा के अन्य मंत्रियों के शामिल होने का गढ़ा, जबकि दुनिया जानती है कि यही कुनबा था जिसकी अगुआई में मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ देश भर में आरक्षण विरोधी आन्दोलन की आग भड़काई गयी थी। इतना ही नहीं वंचित समुदायों को सामाजिक न्याय देने की इस कोशिश को विफल करने के लिए सोमनाथ से अयोध्या तक की वह रथ यात्रा भी निकाली थी, जिसने पूरे देश में साम्प्रदायिक हिंसा की विभीषिका को जन्म दिया ।
खुद इनके शीर्ष नेता और इस घोर साम्प्रदायिक यात्रा के रथी लालकृष्ण अडवानी ने कहा था कि “मंडल आयोग को लागू करने के बाद हमारे पास अब हिंदुत्व का कमंडल उठाने के सिवाय कोई विकल्प ही नहीं बचा है।” उसके बाद जो हुआ, वह ताजा ताजा है, इसलिए उसे याद दिलाने की जरूरत नहीं।
देश की जनवादी और धर्मानिरपेक्ष ताकतों ने तब ही कहा था कि मन्दिर के बहाने जिस हिंदुत्व और उसके जरिये हिन्दू जागरण की बात कही जा रही है, उसका मकसद पुराने जमाने के जकड़न भरे सामाजिक ढाँचे की बहाली है। यह जिन्हें फिलहाल निशाने पर लिया जा रहा है, उन मुस्लिम अल्पसंखयकों भर के खिलाफ नहीं – उनके बहाने, उनका डर दिखाकर धीरे-धीरे वर्णाश्रम की बहाली किया जाना है और गुजरे कुछ सैकड़ा वर्षों में चले समाज सुधार, जाति विरोधी आन्दोलनों के हासिल को विलोपित करके उत्पीड़क सामाजिक ढाँचे को स्वीकार्य और धर्मसम्मत बनाना है।
हाल के दिनों में इसे और ज्यादा सटीक शब्द – सनातन – दे दिया गया है। सनातन में बाकी क्या है, यह तो शायद इन्हें भी नहीं पता, किन्तु वर्ण, जाति की कट्टरता और उसके सनातन सम्मत विभाजन और कार्य-निर्धारण के स्पष्ट प्रावधान अवश्य हैं – जिन्हें लागू करना ही इस कुनबे का लक्ष्य है । कासगंज में जो हुआ वह इसी लक्ष्य को पाने की दिशा में आगे बढ़ना है।
वे अच्छी तरह समझते हैं कि सामाजिक न्याय का मुद्दा और खासतौर से सदियों तक सख्ती के साथ मनुसम्मत वर्णाश्रम के चौखटे में बंधने की वजह से भारतीय समाज में विराट बहुमत के विकास के हर सूचकांक के हिसाब से वंचित रह जाने की सच्चाई उनके इस मंसूबे को कभी पूरा नहीं होने देगी ।
जाति जनगणना उन्हें इसीलिये डराती है, क्योंकि इसके बाद, बिहार की तरह, यह यथार्थ आंकड़ों और तथ्यों के साथ सामने आ जाएगा कि जाति और वर्ण की बेड़ियां आभासीय नहीं है, वास्तविक हैं, कि संविधान के 75 वर्ष गुजर जाने के बाद भी जाति न तो गयी है, ना ही पुरानी पड़ी है, ना ही किसी कोने में दुबकी है ; यह आज भी सत्ता के सभी प्रतिष्ठानों में त्रिपुण्ड की तरह सजी हुई प्राणवान है, पूँजी के अँधेरे तहखानों की रक्षा में फन फैलाए विषधर की तरह विराजमान है। जिसे वे ढोल मंजीरे थमाई भीड़ बनाकर हिन्दू समाज के रूप में इकट्ठा और एकजुट करने की तिकड़मो में लगे हुए हैं, वह भारत अपनी दुर्दशा के अन्तर्निहि कारणों को समझ जाएगा और हिंदुत्व के एजेंडे की असलियत को जानकर उसका बाजा बजा देगा ।
अडवानी ने इसे अलग तरीके से सूत्रबद्ध किया था, मोदी बिना किसी लाज के इसे खुल्लमखुल्ला कहते घूम रहे हैं। अभी महाराष्ट्र की सभाओं में उनका यह कहना कि ‘उनके’ वोट तो एक साथ जायेंगे ‘हमारे’ वोट बंट जायेंगे, संघ–भाजपा के इसी भय की अभिव्यक्ति है ।
मगर बात अब इससे आगे बढ़ गयी है। इस तरह की घटनाओं के घटने पर उन्हें सामने लाने को राष्ट्र की एकता तोड़ने वाला और न जाने क्या-क्या बताया जा रहा है। संघ प्रमुख ने अपने दशहरा भाषण का बड़ा हिस्सा इसमें खर्च किया, उन्होंने इस तरह की बर्बरता की निंदा भर्त्सना करने की बजाय ऐसे प्रकरणों को उजागर करने वालों को ही अपराधी बताया।
उनका क्या मानना है, यह उन्ही के शब्दों में इस तरह है “एक साथ रहने वाले समाज में किसी घटक को उसकी कोई वास्तविक या कृत्रिम रीति से उत्पन्न की गयी विशिष्टता, मांग, आवश्यकता अथवा समस्या के आधार पर अलगाव के लिए प्रेरित किया जाता है। उनमें अन्यायग्रस्तता की भावना उत्पन्न की जाती है। असंतोष को हवा देकर उस घटक को शेष समाज से अलग, व्यवस्था के विरुद्ध उग्र बनाया जाता है । समाज में टकराव की सम्भावनाओं को ढूंढकर प्रत्यक्ष टकराव खड़े किये जाते हैं । व्यवस्था, क़ानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अश्रद्धा व द्वेष को उग्र बनाकर अराजकता व भय का वातावरण खडा किया जाता है। इससे (ऐसी ताकतों के लिए) देश पर अपना वर्चस्व स्थापित करना सरल हो जाता है।“ ऐसी ताकतों को उन्होंने नामजद भी किया है।
संघ प्रमुख भागवत के वार्षिक संबोधन के इस हिस्से का सन्देश साफ़ है कि किसी भी तरह के उत्पीडन, अन्याय, के विरुद्ध आवाज उठाना, वंचित तबकों की मांगे और समस्याऐं उठाना अब अराजकता, द्वेष और विभाजन पैदा करने वाला अपराध माना जाएगा। “यह जबरा मारे और रोने भी न दे” से कहीं आगे की बात है। यह शब्दशः मनुस्मृति को नए तरीके से दोहराने वाला व्याख्यान है – यह हिंदुत्व और सनातन के आधार पर बनाया जा रहा आख्यान है। यह पहले की तुलना में कुछ ज्यादा ही तेजी से आगे बढाया कदम है – यह ‘संवाद माध्यमो’ ‘बौद्धिक संवाद’ आदि का निषेध करने के लिए बची खुची लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए निर्देश तथा निर्धारित किया जा रहा कोड ऑफ़ कंडक्ट है ।
इस तरह के माहौल को बनाने के लिए जनमानस भी इसी तरह का बनाना होता है और ऐसा करने के लिए हिंसा को पुनर्परिभाषित करते हुए “वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति” का भाव बनाना और ख़ास तरह की बर्बरता को प्रोत्साहित और प्रतिष्ठित करना, इसे स्वीकार्य बनाना भी जरूरी हो जाता है। इसी का नतीजा कासगंज की रामलीला में दिखा, जब रमेश चन्द्र को अपमानित किये जाने के दौरान भीड़ चुप्प लगाए बैठी रही, उसके रोने का मजाक बनाती रही। यह काम अब भी लगातार जारी है ; जेल में हुए अमानुषिक बर्ताब से अस्वस्थ हुए और रिहा होने के बाद अकाल मृत्यु का शिकार बन गए प्रो. जी एन साईबाबा के निधन पर इस कुनबे का घिनौना प्रचार, गौरी लंकेश के हत्यारों के जमानत पर छूटने के बाद उनका फूल मालाओं से स्वागत किया जाना किन्ही उत्साही लालों का काम नहीं है, इस सोची-विचारी मुहिम का हिस्सा है ।
इसी क्रम को पूर्व भाजपा सांसद हरनाथ सिंह ने आगे बढाते हुए महाराष्ट्र के एनसीपी नेता बाबा सिद्दीकी की हत्या करने वाले लारेंस बिश्नोई के माफिया गिरोह की बर्बरता को एक तरह से मान्यता प्रदान कर दी है । उन्होंने फिल्म अभिनेता सलमान खान को सलाह – उनके शब्दों में कहें तो सद्परामर्श – दिया है कि वे बिश्नोई समाज से माफी मांग लें, ताकि वे इस गैंगस्टर की हिट लिस्ट से बाहर हो जाएँ। अनेक हत्याओं और अपराधों में लिप्त लारेंस बिश्नोई गुजरात की साबरमती जेल में बंद है और वहीँ से अपनी हत्यारी और आपराधिक गतिविधियाँ चला रहा है ।
बाबा सिद्दीकी की हत्या की जिम्मेदारी इसने उसी तरह से एलानिया ली है, जैसे दुनिया भर के आतंकी संगठन लेते हैं यही गैंग इसके पहले पंजाबी संगीतकार सिद्दू मूसेवाला की भी हत्या करा चुका है। उसकी कथित हिट लिस्ट में लगभग वे ही नाम हैं, जिन्हें मौजूदा सत्ता पार्टी अपनी आलोचनाओं के निशाने पर रखती है। इनमें ज्यादातर ऐसे कलाकार, अभिनेता और कॉमेडियन हैं, जो मुस्लिम धर्म से ताल्लुक रखते हैं। भाजपा के पूर्व सांसद की सलाह और साबरमती की जेल से माफिया गतिविधियों का जारी रखना अनायास नहीं है – इनका रिश्ता है और यह रिश्ता क्या कहलाता है, इसे सहज ही समझा जा सकता है।
धर्म के क्षेत्र में भी इसी तरह की हिंसा जारी है। काशी, जहां से स्वयं प्रधानमंत्री मोदी सांसद हैं, के पंडितों ने काशी को साईं बाबा विहीन करने का आदेश जारी कर दिया। पूरे बनारस से साईं बाबा के मंदिर और मूर्तियाँ हटाई जा रही हैं। शिरडी के साईं बाबा भारत में संभवतः सबसे ज्यादा पूजे जाने वाले फ़कीर हैं। काशी के पंडितों का दावा है कि वे साईं बाबा नहीं, चाँद मियाँ हैं, इसलिए उनकी मूर्ति और मंदिरों से हिन्दू धर्म को खतरा है!! यह दावा कितना निराधार और असत्य है, इस बात को अगर छोड़ भी दें, तो भी यह सिलसिला आने वाले दिनों में कितना खतरनाक साबित होने वाला है, इसका अंदाज लगाया जा सकता है। इसके दायरे में आने से शायद ही कोई धार्मिक पंथ, प्रणेता या पूज्य माने जाने वाला बच पायेगा।
कासगंज के शम्बूक को इसी निरंतरता के शोषण के आर्थिक और सामाजिक दोनों ही रूपों को वर्गीय शोषण का पारस्परिक पूरक रूप मानने वाले वाम ने अपने संघर्षों से इसे करके दिखाया है।
*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*