Site icon अग्नि आलोक

*उस्मानी खलीफाओं का बेशर्म कारनामा*

Share

         ~ सुधा सिंह 

विश्व इतिहास में उस्मानी साम्राज्य का बड़ा नाम है। मुसलमानों का बड़ा वर्ग इसे इसाइयों व अन्य गैर मुस्लिमों पर फतह के रूप में देखता है। उसमें से भी एक तबका उस्मानी सल्तनत को इस्लाम की शान और उस्मानी खलीफा को महान धर्मरक्षक / धर्मयोद्धा के रूप में देखता है। अरतगुल सीरियल इसका प्रमाण है।

     यह बिलकुल उसी तरह है, जैसे भारत के कुछ लोग पृथ्वीराज चौहान व हेमचंद्र हेमू आदि को हिंदू धर्म रक्षक के रूप में मानते हैं। मगर इतिहास के तथ्य यह बताते हैं कि उस्मानी साम्राज्य के शासक न तो इस्लाम के रक्षक थे और न ही ईमानदारी से बने खलीफा।मिसाल के तौर पर उस्मानी शासक सलीम खान जिसे इतिहासकार सलीम द ग्रेट लिखते हैं, ने खिलाफत की पदवी तत्कालीन अब्बासी खलीफ़ा मुतवक्किल  बिल्लाह से जबरन छीन कर खलीफा बना था,  जो  निहायत बेशर्मी भर कृत्य और इस्लामी शरीयत के खिलाफ था। 

      यही नहीं अगर वह इस्लाम वह मुसलमानों के रक्षक होते तो कई इस्लामी मुल्कों  की बेकसूर अवाम को गाजर मूली की तरह काट कर तबाह व बरबाद न करते। आइये देखते हैं कि इसके ऐतिहासिक फैक्ट क्या हैं।

मिस्र में ममलूकी सल्तनत की स्थापना 1260 में हुई जो।लगभग 1520 तक चली। उनका शासन आजके मिस्र व सीरिया तक फैला हुआ था। ये ममलूकी किफ़चाफ व ऐबक काबिले के तुर्क और बेहद बहादुर और न्याय प्रिय शासक माने जाते थे।

      मध्यकाल में भी इनकी व्यवस्था में बाप की मौत के बाद बेटे को सुल्तान बने के बजाय सभी तुर्क “मलिकों” की बैठक में योग्य सेनापति को ही सुल्तान चुना जाता था।  तेरहवीं सदी में जब  मिस्र शाम व बगदाद, कला संस्कृति व ज्ञान विज्ञान का केंद्र मन जाता था तभी ममलूक शासक मालिक ज़ाहिर बरकूक ने 1265 में बीमारिस्तान (मेडिकल कालेज ) की स्थापना कर दी थी। जहां हकीमी, ज़र्राही (फिजिशियन) की  शिक्षा मरीजों का इलाज होता था। (तुर्क:  एशिया-योरप-अफ्रीका नामक किताब से) इतना लिखने का मकसद ये है कि 280 सालों तक चली ममलूक हुकूमत धनधान्य से पूर्ण और शक्तिशाली  थी।

इधर  1299 में कायम हुई तुर्कों की उस्मानी सल्तनत निरंतर जंग लड़ते हुए जीत पर जीत हासिल करती जा रही थी, लेकिन उस्मानी शासक ममलूको से लड़ने का साहस नहीं का पा रहे थे, क्योंकि शांतिप्रिय ममलूको ने हलाकू खान और बरका खान जैसे दो दो मंगोल आक्रमणकारी शासकों को हरा कर न केवल अपनी युध्द क्षमता का परिचय दे रखा था।

       बल्कि तत्कालीन अब्बासी खलीफा अबुल क़ासिम को मंगोलों की कैद से लड़ कर छुड़ा लाने का भी श्रेय प्राप्त था।  उन्होंने ने फिर से उन्हें खिलाफत के पद पर बिठाया था।इसी तरह 280 साल बीते और आया उस्मानी सुल्तान  सलीम खान का दौर, जिसे मध्यकालीन इतिहासकार सलीम खान द ग्रेट लिखते हैं।

      1512 में उस्मानी सल्तनत के तख्त पर बैठने के बाद रोमन साम्राज्य व मध्य एशिया का अधकांश भाग जीत चुके उस्मानियों की नज़र में सिर्फ ममलूकी सल्तनत ही बची रह गयी थी। अंततः सलीम खान ममलूकीयों पर हमले का बहाना ढूंढने लगा।

इसी बीच ईरान के बादशाह इस्माइल सफ़वी सलीम के हमले की आशंका से घबरा कर ममलूक शासक मालिक कांसूह गाज़ी से गठजोड़ बनाने की सोची लेकिन ममलूक शासक ने इसमें दिलचस्पी न ली। मगर उस्मानी शासक को तो बहन चाहिए था।

     आखिरकार 24 अगस्त  1516 को  सलीम ने मिस्र के ममलूक शासक मलिक कांसूह गाज़ी पर हमला किया। हलब नामक स्थान पर जंग लड़ते हुए  मलिक कांसूह मारा गया। उसकी जगह  तुमान बे नया शासक हुआ। 22 जनवरी 1517 में सलीम खान के दुबारा हमले में तुमने बे भी एक गद्दार के कारण मारा गया।

      जंग के बाद 50 हज़ार से अधिक मुसलमानों और कुछ ईसाई जनता का कई दिनों तक कत्ले आम किया गया। इस प्रकार काहिरा (समूची ममलूक सल्तनत) के अलावा पूरा अरब प्रायःद्वीप उस्मानी सल्तनत के कब्जे में आ गया।

      देखा जाए तो मध्यकाल में ऐसी जंगें होती ही रहती थीं, मगर ये इस मायने में अधर्म है कि जंग के बाद सलीम ने हिजाज के अमीर से मक्का और मदीना की चाभियां जबरन छीन ली। यही नही मिस्र से लौटते वक्त सुल्तान सलीम खान  तत्कालीन खलीफा मुतवक्किल को भी अपने साथ तुर्की (कुस्तुन्तुनिया) लाया तथा पैगम्बर की निशानियां जिनमे पैंगबर का अलम, तलवार व चादर आदि उनसे कब्जे में लेकर खुद को खलीफा घोषित कर दिया।

     जब कि एक ममलूक मालिक ज़ाहिर था जिसने एक खलीफा को मंगोलों से आज़ाद कर कर उन्हें फिर से पद पर बिठाया था। ज़रा सोचिए जिस खलीफा के हाथ पर सारे  मुस्लिम बादशाह बैत करते थे उससे जबरन खलीफा पद छीन के अपमानित करने व अमीरे हिजाज से मुसलमानों के पवित्र मक्का और मदीना की चाभियां जबरन हड़पना क्या  इस्लामिक या शरई कृत्य था। लेकिन अगर आप तमाम मुसलमानों को देखेंगे कि वह इसी उस्मानी सल्तनत, खिलाफत को बहुत आदर से देखते है। 

      सलीम खान द ग्रेट के बारे में इतिहासकार और इस विषय मे काफी शोध कर चुके एम. उस्मान साहब लिखते हैं कि काहिरा (ममलूक राज्य) और दूसरे इलाकों में किया गया कत्ले आम उनके (सलीम खान) दमन पर बदनुमा दाग हैं। इस कथन पर आप क्या सोचते हैं?

Exit mobile version