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शेखर जोशी:नयी कहानी का एक अध्याय खत्म हो गया

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प्रभुनाथ शुक्ल
कहानी को ओढ़ने, दशाने और बिछाने वाला हमारे बीच नहीं रहा। कहानी की दुनिया खाली-खाली सी हो गई है। नयी कहानी का एक अध्याय खत्म हो गया। हमें, आपको कहानी से रूबरू कराने वाली खुद कहानी बन गए। नई कहानी में और नयापन देने वाले, सजाने और संवारने वाले शेखर जोशी हमारे बीच से अलविदा हो गए हैं। कहानी को उन्होंने बहुत कुछ दिया। एक कुशल कुंभकार की तरह उसे गढ़ा और तराशा। एक ख़ास पहचना दिलाई। नई कहानी के कथाशिल्प को उन्होंने और मजबूत किया एवं उसे उर्वर बनाया। उनकी कहानियों का कई विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हुआ।

जोशी की कहानियों में पहाड़ के जीवन का यथार्थ भी दिखता है। स्वाधीनता आंदोलन और द्वितीय विश्व युद्ध की छाप भी कहानियों में दिखती है। उनकी पहली कहानी ‘राजे खत्म हो गए’ में पहाड़ के जीवन मूल्य दिखते हैं। उन्होंने कुछ समय पूर्व देव प्रकाश चौधरी से एक साक्षात्कार में बताया था कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पहाड़ों से भारी संख्या में फौज के जवान लड़ने जा रहे थे। उन्हें विदा करते समय परिजनों जो हालात हमने देखी उससे विचलित हो गया। काफी लोग उसमें से लौटकर नहीं आए।

फौजियों और उनके परिवार की पीड़ा को कथानक का आधार बना उन्होंने ‘राजे खत्म हो गए’ जैसी कहानी लिखी। उनकी कहानियां जमीन से जुड़ी और यथार्थ के बेहद करीब होती हैं। उन्होंने चेखव, तुर्गनेव, मैक्सिम गोर्की, आस्त्रोवस्की, चंगीज आइत्मातोव के उपन्यास, माइकोवस्की, नाजिम हिकमत और निकोला वाप्सरोव के हिंदी अनुवाद को खूब पढ़ा। जोशी के बारे में कहा जा सकता है वह जितने बड़े साहित्यकार थे उससे कहीं अधिक बड़े पाठक थे। उत्तराखंड का सांस्कृतिक जीवन उनके भीतर रचा और बसा था।

शेखर जोशी की रचनाओं में वामपंथी विचारधारा का भी प्रभाव दिखता है। उन्हें पहाड़ों से होता विस्थापन बहुत अधिक खला और वह इसके खिलाफ थे। उत्तराखंड में विस्थापन की वजह से काफी गांव उजड़ गए। पहाड़ों के गांव और वहां की हरी-भरी वादियां। रंग-बिरंगा सांस्कृतिक जीवन उन्हें खूब भाता था। लेकिन सुविधाओं के अभाव में लोगों का पलायन भी उन्हें उतना ही खलता था। बदलती सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति कहीं न कहीं से उन्हें चुभती थी। परिवारों का आणविक विखंडन उन्हें परेशान करता था। अपने साक्षात्कार में कहा था कि समाजवाद का विखराव भी उन्हें नहीं भाया। शहरी सभ्यताएं जो कंकरीट के जंगल में बदल रहीं हैं ऐसी इमारतों को वे गुफाएं और कैद खाना कहते थे। उन्हें इस बात का अफसोस था कि इंसानी सभ्यता एवं संस्कृति का विखराव हो रहा है। समाज में लोग आत्म केंद्रित हो चले हैं।

विज्ञान और तकनीकी विकास में साहित्य कहीं खोता नजर आता है। युवा पीढ़ी कहीं न कहीं साहित्य से दूर होती चली जा रही है। जोशी जी को अफसोस था कि जो साहित्य लोगों के बीच में होना चाहिए वह सरकारी अलमारियों में बंद है। उसकी पहुंच आम लोगों में नहीं हो पा रहीं। उनके विचार में साहित्य को बढ़ाने के लिए सरकारों की भूमिका बहुत अच्छी नहीं रहीं। हालांकि वह मानते थे पाठकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। लेकिन किताबें उस तरह से उपलब्ध नहीं हो पा रहीं हैं। स्वतंत्र लेखन को वह चुनौती भरा काम मानते थे। अगर लोग अच्छा लिखते भी हैं तो उसे छपाए कैसे। प्रकाशकों और लेखकों के बीच व्यवहार को वह सामन्य और मधुर नहीं मानते थे। साहित्य में वह जैसा बदलाव चाहते थे उस मुताबित उन्हें नहीं दिखा।

शेखर जोशी को उनके उत्कृष्ट साहित्य लेखन के लिए कई पुरस्कार और सम्मान भी दिए गए। जिसमें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की तरफ से ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ पुरस्कार ‘साहित्य भूषण’ ‘पहल सम्मान’ श्रीलाल शुक्ल’ और ‘मैथिलीशरण गुप्त’ जैसे ख्याति लब्ध सम्मान से सम्मानित किया गया। उन्होंने कई चर्चित कहानियां लिखी जिसमें नवरंगी बीमार है, मेरा पहाड़, बच्चों का सपना, कोसी का घटवार, हलवाहा, आदमी डर गया और एक पेड़ जैसी अमर कहानियाँ उन्होंने लिखी। जोशी जी की कहानियों का अनुवाद अंग्रेजी, जापानी, रूसी और चेक भाषाओं में किया गया। कथा लेखन को वह जिम्मेदार दायित्व मानते थे। उनकी फिल्म राज्यों पर बाल फिल्म का बनाई गीत।

शेखर जोशी का जन्म (10 सितंबर 1932 और मृत्यु 4 अक्तूबर 2022) उत्तराखंड के अल्मोड़ा में हुआ था। उनके गांव का नाम ओलिया है। लेखन में उनकी इतनी रूचि थी कि नौकरी से त्यागपत्र देकर स्वतंत्र लेखन में जुट गए। जोशी की कहानियों में पहाड़ी जीवन का यथार्थ साफ साफ झलकता है। उनकी कहानियों में सामाजिक परिस्थितियां रोटी के लिए आम आदमी का संघर्ष,पाद गरीबी, अभाव और विकास की बदहाली उन्हें नहीं पचती थीं। उनकी कहानी ‘दाज्यू’ पर बाल फ़िल्म भी बनाई गयीं।

शेखर जोशी एक उत्कृष्ट साहित्यकार रहे। उनका जाना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। एक तरह से कहानी एक एक युग का अंत हो गया। उसकी भरपाई करना बेहद मुश्किल है। उनकी कुछ कृतियां अभी हमारे बीच आनी है। अब उसे साकार रूप देने के लिए उनके बेटे तैयार है। जोशी जी अपनी अंतिम सांस तक साहित्य सेवा करते रहे। उन्होंने अपने शरीर को भी दान कर दिया था। समाज को बहुमूल्य साहित्यदान के साथ उन्होंने अपनी देह का भी दान कर दिया था। उनकी इच्छा के अनुसार संबंधित मेडिकल कॉलेज को परिजनों ने उनके शरीर को सौंप दिया।शेखर जोशी के साहित्य जीवन के बारे में कहा जाय तो पहले वह एक अच्छे पाठक थे बाद में लेखक। जोशी ने खूब पढ़ा और खूब लिखा। आधुनिक हिंदी साहित्य में उन्होंने ने कथाशिल्प को बेहद खूबसूरती से संवारा। वे हमारे बीच अब भले नहीं हैं, लेकिन उनका साहित्य हमारे बीच युगों युगों तक जिंदा रहेगा।

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