~ पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य
प्रश्न : पितरों का जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उस से तृप्त कैसे होते हैं ? पिंड आदि का सब दान भी यहीं रहते हुए देखा जाता है। यह पितर के उपभोग में कैसे आता है?
उत्तर : पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है की वे दूर की कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं. इसके सिवा ये भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुचते हैं. पांच तन्मात्राएँ, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति : इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शूक्ष्म शरीर होता है. इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में भगवान निवास करते हैं. इसलिए देवता और पितर गंध तथा रस तत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं. किसी को पवित्र देख कर उनके मन में बड़ा संतोष होता है.
जैसे पशुओं का भोजन तृण और मनुष्यों का भोजन अन्न कहलाता है, वैसे ही देवयोनियों का भोजन अन्न का सार तत्व है. सम्पूर्ण देवताओं की शक्तियां अचिन्त्य एवं ज्ञानगम्य हैं। अतः वे अन्न और जल का सार तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है।
प्रश्न : श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं. यदि वे स्वर्ग अथवा नर्क में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? वे वैसी दशा में वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं?
उत्तर : यह सत्य है की पितर अपने अपने कर्मों के अधीन होते हैं, परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तथा चार वर्णों के चार मूर्त : ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं.
ये नित्य पितर हैं. ये कर्मों के अधीन नहीं. ये सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं। वे सातों पितर वरदान आदि देते हैं उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं। इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरों को तृप्त करता है।
वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं। इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करने वाले नित्य पितर ही श्राद्ध कर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं।
प्रश्न : जैसे भूत आदि को उन्हीं के नाम से ‘इदं भूतादिभ्यः’ कहकर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को क्यों नहीं दिया जाता है? मंत्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है?
उत्तर : सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए. उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वस्तु देवता आदि ग्रहण नहीं करते. घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता, जिस प्रकार ग्रास (फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है? नहीं.
इसी प्रकार भूत आदि की भाँति देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते. वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं. अतः अश्रद्धालु द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते.
मन्त्रों के विषय में वेद-श्रुति भी कहती है -”सब मन्त्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो जो कार्य मन्त्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही संपन्न करता है।”
बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है , वह प्रतिष्ठित नहीं होता.
प्रश्न : कुश, तिल, अक्षत और जल को हाथ में लेकर क्यों दान दिया जाता है?
उत्तर : प्राचीन काल में मनुष्यों ने बहुत से दान किये, और उन सबको असुरों ने बलपूर्वक भीतर प्रवेश करके ग्रहण कर लिया। तब देवताओं और पितरों ने ब्रह्मा जी से कहा – “स्वामिन ! हमारे देखते-देखते दैत्यलोग सब दान ग्रहण कर लेते हैं। अतः आप उनसे हमारी रक्षा करें, नहीं तो हम नष्ट हो जायेंगे।”
तब ब्रह्मा जी ने सोच-विचार कर दान की रक्षा के लिए एक उपाय निकाला। पितरों को तिल के रूप में दान दिया जाए, देवताओं को अक्षत के साथ दिया जाए तथा जल और कुश का सम्बन्ध सर्वत्र रहे।
ऐसा करने पर दैत्य उस दान को ग्रहण नहीं कर सकते। इन सबके बिना जो दान किया जाता है, उस पर दैत्य लोग बलपूर्वक अधिकार कर लेते हैं और देवता तथा पितर दुखपूर्वक उच्ह्वास लेते हुए लौट जाते हैं।
वैसे दान से दाता को कोई फल नहीं मिलता। इसलिए सभी युगों में इसी प्रकार तिल, अक्षत, कुश और जल के साथ दान दिया जाता है।
प्रश्न : शरीर छूटने पर मृतात्मा कहाँ जाती है?
उत्तर : इसका विवरण सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद में विस्तार से मिलता है। जीव की तीन गति बताई गईं हैं जिसमें से हम चन्द्रलोक गति की बात करेंगे जिसमें पितर श्राद्ध का विधान है।
प्राण रहित जड़ मृतदेह में कोई गति नहीं होती. आत्मा तो विभु व्यापक है, व्यापक में भी गति नहीं होती। इसलिए पांच कर्मेन्द्रियों, पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच प्राण, मन और बुद्धि तत्व से बना सूक्ष्म शरीर ही शरीर से निकलकर दूसरे लोकों और जन्मों में जाता है।
इन 17 तत्वों में मन ही प्रधान है और वही मन चन्द्रमा की ओर वाहिक शरीर के आकर्षण का कारण है। पर क्यों?
विज्ञान का यह नियम है कि सजातीय पदार्थों में आकर्षण होता है। प्रत्येक वस्तु अपने सजातीय घन की ओर जाती है। मिट्टी का ढेला पृथ्वी पर आता है।
चन्द्रमा मनसो जातः
~पुरुष सूक्त.
मनप्रधान सूक्ष्म शरीर का उसी सजातीय चन्द्रमा की ओर आकर्षण होता है। सूक्ष्म शरीर में यह अंश आते कैसे है? पुष्प पर से गुजरकर वायु पुष्प के कुछ सुगन्धित अंश साथ ले जाती है और सुगंधमय हो जाती है. लोटे में रखा पानी निकाल लेने पर भी पानी का कुछ अंश लोटे में रह जाता है. यानि जो पदार्थ साथ रहते हैं उन्हें अलग भी किया जाए तो एक दूसरे का कुछ अंश उनपर रह जाता है. इसी प्रकार जिस सूक्ष्म शरीर ने बहुत काल तक जिस स्थूल शरीर में वास किया वह उसके कुछ अंश को साथ लेकर निकलता है।
प्रकृति का यह नियम है कि आवागमन की प्रक्रिया में संसार के प्रत्येक पदार्थ में क्षीणता आती है। आपने सुबह भोजन किया, क्षीणता आई, रात को पुनः भूख लग आई। पौधे में आज पानी डाला और क्षीणता के कारण कल पुनः डालना पड़ा। और गहराई से समझें तो रदरफोर्ड ने एक एटम का एक मॉडल दिया था जिसमें कि इलेक्ट्रॉन न्यूक्लियस के चारों ओर बेहद तीव्र गति से घूमता है.
उस थ्योरी में एक दोष था. प्लैंक मैक्सवेल की थ्योरी के अनुसार इलेक्ट्रान के पास आवश्यक रूप से acceleration है जिसके कारण वो निरन्तर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडियेशन का स्कंदन (यही स्कंदन क्षीणता है) करेगा. इससे अंततः इलेक्ट्रॉन न्यूक्लियस में ही गिर जाएगा, और विस्फोट होगा जो कि स्थायित्व होने के लिए असम्भव है।
हम अपनी क्षीणता की पूर्ति में समर्थ हैं किन्तु मृतात्मा जो लोकान्तर में जा रहे हैं, उनके वाहिक सूक्ष्म शरीर में जो क्षीणता आती है, उनकी पूर्ति करने की शक्ति उनमे नहीं होती। उसकी पूर्ति ही हम श्राद्ध द्वारा किया करते हैं।
प्रश्न : अगर हम श्राद्ध न करें तो क्या होगा?
उत्तर : वेद के अनुसार, मन चंद्रमा का और बुद्धि सूर्य के अंश हैं। अतः इन पर चन्द्रमा और सूर्य का आकर्षण हो सकता है, पर वायु पर उनका कोई आकर्षण नहीं हो सकता।
यदि सूर्याभिमुख व चंद्राभिमुख उन आत्माओं की गति रुक गई, तो वे उन लोकों में न जाकर वायु में ही भ्रमण करते रहेंगे। वायवीन शरीर प्रेत-पिशाचादि का होता है, अतः वे भी प्रेत-पिशाच योनि में ही माने जाएँगे।
पिता-माता के सूक्ष्म शरीरों को बचाने के लिए वेद पुत्रों को आदेश देते हैं :
जिस समय तुम शरीर-विरहित थे, उस समय माता पिता ने ही अपने अंशों से तुम्हारा शरीर बनाया था, आज वे माता-पिता शरीर रहित होते जा रहे हैं, तो तुम्हारा कर्तव्य है कि उनका शरीर बनाओ।
इसी वेदाज्ञा के अनुसार चावल आदि के पिण्डों में से सोम (सोम ही चन्द्र है) भाग पहुंचाकर, अनुशय भाग (शरीर) की पुष्टि करना ही गात्र पिण्डों का उद्देश्य है। आधुनिक विज्ञान से भी श्राद्ध पुर्णतः वैज्ञानिक सिद्ध होता है। बस अंतर इसी बात का रह जाता है कि आधुनिक विज्ञान आध्यात्म को नहीं मानता जबकि श्राद्ध वैज्ञानिक के साथ साथ पुर्णतः आध्यात्मिक भी है।
तपस्वी, संन्यासी आदि देवयान मार्ग से जाते हैं, उन्हें सोम द्वारा इस शरीर की पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती, वे तो स्वयं अग्निरूप हैं, उन पर सूर्य के आकर्षण को कोई नहीं रोक सकता, इसीलिए संन्यासियों के गात्र-पिंड नहीं किए जाते।
जिनके यहाँ से पितरों को अर्ध्य-कव्य मिलता है, उनके पितर तृप्त होकर जाते हैं, आशीर्वाद देते हैं। उनका आशीर्वाद कल्याणप्रद होता है। जो श्राद्ध नहीं करते उनके पितर अतृप्त होकर ‘धिक्कार’ का नि:श्वास छोड़कर जाते हैं। (चेतना विकास मिशन)