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कर्नाटक में कमाल कर सकती हैं सिद्धारमैया की “पांच गारंटियां”

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 बी. सिवरामन (पूर्व संपादक- लिबरेशन एवं डेक्कन हेराल्ड में स्तंभकार है।)

कर्नाटक में लोकसभा चुनावों की पृष्ठभूमि में तमाम राजनीतिक पर्यवेक्षकों के लिए केंद्रीय राजनीतिक प्रश्न यह बना हुआ है कि राज्य में सिद्धारमैया सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर है या नहीं? और यदि है भी तो यह कितनी मजबूत रहने वाली है?

जनचौक ने कर्नाटक में पाया कि अधिकांश लोगों का मानना है कि राज्य सरकार के खिलाफ कोई मजबूत सत्ता-विरोधी लहर नहीं है, और सिद्धारमैया के खिलाफ अगर थोड़ा-बहुत नाराजगी है भी तो उसमें इतना दम नहीं है। यकीनन, कृषि संकट काफी गहराया हुआ है, और इस वर्ष भी सूखा पड़ने की उम्मीद, इस संकट को और भी गहरा करने जा रही है। लेकिन इस मामले में सत्ता-विरोधी रुख राज्य सरकार की बजाय इस नाराजगी की धार केंद्र के खिलाफ ज्यादा मुड़ने की उम्मीद है।

हालांकि, इस बात को लेकर लगभग एक राय बन रही है कि 2019 की तुलना में इस बार न तो कांग्रेस और न ही भाजपा के पक्ष में एकतरफा सीटें मिलने जा रही हैं। यहां तक कि राज्य की 28 में से किसी एक को 20 सीटों पर जीत भी नहीं होने जा रही है। अधिकांश लोग मान रहे हैं कि इस बार मुकाबला 50:50 पर छूटने जा रहा है, लेकिन कुछ मानते हैं कि मुकाबले में कांग्रेस को ज्यादा सीटें मिल सकती हैं। स्वयं सिद्धारमैया स्वीकार कर चुके हैं कि कांग्रेस को मात्र 20 सीटें प्राप्त होने की उम्मीद है।

कर्नाटक में 2024 लोकसभा चुनाव और 2023 विधानसभा चुनावों के बीच दूसरा बुनियादी फर्क यह है कि विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा, कांग्रेस और जेडी (एस) के बीच त्रिकोणीय संघर्ष था, जबकि संसदीय चुनावों में जेडी (एस) और भाजपा का चुनावी गठबंधन इस बार कांग्रेस के खिलाफ एकजुट होकर चुनावी ताल ठोंक रहा है। 2023 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपनी जीत में 42.88% मत हासिल हुए थे, जबकि भाजपा के पक्ष में 36% और जेडी (एस) 13.29% मत अपने पक्ष में करने में कामयाब हो सकी थी।

शुद्ध चुनावी गणित को जीत-हार का आधार मान लें तो भाजपा-जेडी(एस) का संयुक्त वोट प्रतिशत 49.29% बैठता है, और चुनावी तौर पर इसे बेहद मजबूत गठबंधन बना देता है, जो चुनावों को पूरी तरह से अपने पक्ष में करने के लिए पर्याप्त है। 2019 लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को कुल मतों का 51.7% हासिल हुआ था। जबकि कांग्रेस के पाले में 32% और जेडी (एस) के खाते में 9.7% मत प्राप्त हुए थे। भले भाजपा अपनी 2019 वाले प्रदर्शन को दोहराने में कामयाब न हो पाए, इसके बावजूद भाजपा और जेडी (एस) के बीच का चुनावी गठजोड़ 2024 चुनावों में एनडीए गठबंधन को एकतरफा चुनावी जीत की संभावना रखता है।

सिद्धारमैया की “पांच गारंटियां” कमाल कर सकती हैं

चुनावी गुणा-भाग से आगे जाते हुए जब जनचौक ने जमीनी हालात की पड़ताल करने की कोशिश की तो हमारी मुलाक़ात कर्नाटक में सिविल सोसाइटी से जुड़े एक प्रमुख हस्ती, वेंकटेश प्रसाद से हुई, जिनका कहना था, “ सिद्धारमैया सरकार के द्वारा जो पांच गारंटियां घोषित की गई हैं, उसके चलते कांग्रेस मजबूत विपक्षी गठजोड़ के बावजूद अपने पक्ष में महत्वपूर्ण झुकाव लाते हुए अधिकांश लोकसभा की सीटों को जीत पाने में सक्षम रहने वाली है।

ये पांच गारंटियां हैं:

1. स्त्री शक्ति (कर्नाटक में महिलाओं को सार्वजनिक सड़क परिवहन में मुफ्त यात्रा की सुविधा)

2. अन्न भाग्य (प्रत्येक बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) परिवार को 10 किलो अनाज, जो कि मोदी की मुफ्त राशन योजना से दोगुना है),


3. गृह ज्योति (प्रत्येक घर को प्रतिमाह 200 यूनिट फ्री बिजली की सुविधा),


4. गृहलक्ष्मी (प्रत्येक एपीएल (गरीबी रेखा से ऊपर) और बीपीएल परिवारों में सबसे उम्रदराज महिला को प्रतिमाह 2000 रुपये) और


5. युवा निधि (प्रत्येक उस बेरोजगार स्नातक को जिसे 180 दिनों के भीतर रोजगार नहीं मिल पाता है को 3,000 रुपये की आर्थिक सहायता और डिप्लोमा होल्डर्स के लिए 1,500 रुपये)।


2023 विधानसभा चुनावों में किये गये इन पांच चुनावी वादों को लागू करने की वजह से ऐसा लगता है कि बहुसंख्यक मतदाता सिद्धारमैया सरकार के पक्ष में गोलबंद हो चुके हैं, विशेषकर बड़ी संख्या में महिला मतदाताओं में कांग्रेस सरकार के पक्ष में जबर्दस्त माहौल बना हुआ है। उधर भगवा कैंप के लिए कांग्रेस के पक्ष में अचानक से बढ़े इस जनाधार की काट निकाल पाना एक बड़ी चुनौती बनी हुई है।

यहां तक कि कर्नाटक में आरएसएस सर्किल के भीतर भाजपा के पक्ष में मात्र 16 सीटों के आसपास उम्मीद की जा रही है। इसका अर्थ हुआ कि भाजपा ने 2019 लोकसभा चुनावों में 28 में से 25 सीटें जीतकर जिस प्रकार से दक्षिण के इस राज्य में बंपर जीत हासिल की थी, के बाद मई 2023 के विधानसभा चुनावों में पूरी तरह से सूपड़ा साफ़ होने की स्थिति से खुद को उबार लिया है। हालांकि, पिछले एक वर्ष में भाजपा ने अपनी खोई साख को पूरी तरह से नहीं बल्कि आंशिक तौर पर ही उबार पाने में सफल रही है। ऐसे मैं, सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या यह भरपाई भाजपा को आधी सीटों के निशान को पार करा पाने के लिए पर्याप्त रहने वाला है।

आरएसएस-भाजपा की राजनीति में “मध्यमार्गी रुझान” की झलक

भाजपा के मामले स्पष्ट देखने को मिल रहा है कि अपने लिए आंशिक सुधार की गुंजाइश बनाने के लिए उसके द्वारा उम्मीदवारों के चयन के मामले में इस बार “मध्यमार्गी राह” को अपनाने की कोशिश की गई है। उदाहरण के लिए तेजस्वी सूर्या को ‘स्टार कैम्पैनेर्स’ की सूची से बाहर रखा गया है। हिंदुत्व के फायरब्रांड और हार्डलाइनर को इस बार पीछे धकेल दिया गया है। उत्तर कर्नाटक के मौजूदा सांसद और चार बार के सांसद रहे, जिन्हें कट्टर हिंदुत्ववादी भावनाओं को भड़काने के लिए जाना जाता है, को टिकट नहीं दिया गया है। 2023 विधानसभा चुनाव से पूर्व हिजाब, हलाल मीट विवाद, धर्मांतरण विरोधी कानून के साथ-साथ ईसाई समुदाय के गिरजाघरों पर हमलों की लहर के बावजूद कोई राजनीतिक फायदा न मिलने की सूरत में, ऐसा लगता है कि भाजपा नेतृत्व ने सचेतन तरीके से उन्मत्त हिंदुत्ववादी प्रचार के स्वर को धीमा रखने का फैसला लिया है। यहां तक कि अति-दक्षिणपंथी हिंदू संगठन, श्री राम सेने तक ने इस बार स्पष्ट रूप से चुप्पी साध रखी है।

इस बारे में वेंकटेश प्रसाद का कहना है कि सिद्धारमैया के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनने के बाद से, कर्नाटक में हिंदुत्व उभार काफी कमजोर पड़ गया है। सिर्फ एक मामले को छोड़ दें, जिसमें कुछ मुस्लिम युवाओं ने एक हिंदू दुकानदार को, जो अज़ान की प्रार्थना में विघ्न डालने के लिए जोर-जोर से हनुमान चालीसा का पाठ करने पर हमले का शिकार हुआ था। इसके जवाब में करीब 50,000 से भी अधिक संख्या में हिंदुओं ने विरोध में रैली निकाली थी। इसके अलावा देखें तो अन्य भावनात्मक मुद्दों पर कट्टर हिंदुत्ववादी मुद्दों पर ज्यादा कुछ देखने को नहीं मिला है, जैसा कि 2019-2022 के दौरान हिंदुत्व का उभार अपने शबाब पर देखने को मिला था।

यह देखते हुए कि मदमस्त हिंदुत्ववादी माहौल के चलते धार्मिक ध्रुवीकरण होने के बजाय शांति-प्रिय मतदाता भाजपा से किनारा कर रहे हैं, भाजपा नेतृत्व ने बहुत सोच-विचार कर इस विकल्प को चुना है। लेकिन कर्नाटक में भाजपा के इस मध्यमार्गी रुख को अपनाने से सीटों की संख्या के लिहाज से कितना अधिक फायदा होने जा रहा है, यह अभी देखना बाकी है। वेंकटेश प्रसाद आगे कहते हैं कि यह ‘मध्यमार्गी रुख’ सिर्फ एक नकाब मात्र है, क्योंकि आरएसएस-भाजपा के द्वारा निचले तबकों के बीच में उसी हिंदुत्ववादी धुन की बीन बजाई जा रही है, हालांकि इससे कोई खास सफलता नहीं मिल पा रही है। उन्होंने जोर देते हुए कहा, तेंदुआ कभी भी अपने पदचिन्हों को नहीं बदलता।

कर्नाटक भाजपा के भीतर जमकर कलह का माहौल

कर्नाटक भाजपा की राजनीति में एक अन्य प्रमुख विशेषता है पार्टी के भीतर जमकर सिर-फुटव्वल और पार्टी में कई ध्रुवों की मौजूदगी। इसमें सबसे प्रमुख नाम है येदियुरप्पा का, जो लिंगायत पृष्ठभूमि से आने वाले सबसे प्रमुख नेता हैं और कर्नाटक बीजेपी जब कभी खुद को संकट में घिरी पाती है तो उन्हीं के कंधों पर पार्टी को उबारने का कार्यभार होता है। इसी के चलते वे आज भी राज्य भाजपा के प्रमुख आधार-स्तंभ बने हुए हैं। लिंगायत वोटों के भाजपा से छिटकने पर रोक लगाने के लिए जब से भाजपा हाईकमान ने उनके पुत्र बीवाई विजयेंद्र को राज्य भाजपा का अध्यक्ष पदभार सौंपा है, उसके बाद से येदियुरप्पा को जब-तब अपनी ओर से पहलकदमी लेते देखा जाने लगा है। उनके एक अन्य बेटे बीवाई राघवेंद्र अपने पारिवारिक गढ़ शिवमोगा से सांसद हैं।

लेकिन राज्य पार्टी अध्यक्ष के तौर पर बी वाई विजयेंद्र की नियुक्ति का लिंगायत नेताओं के द्वारा ही मुखालफत की जा रही है। लिंगायत समुदाय के एक अन्य प्रमुख नेता और राज्य सहित केंद्र में पूर्व मंत्री रह चुके बसनगौड़ा के द्वारा खुलकर आलोचना की गई है। एसटी सोमशेखर और रमेश जर्किहोली ने भी कर्नाटक भाजपा के भीतर एक ही परिवार के प्रभुत्व पर अपनी असहमतियां व्यक्त की हैं।

येदियुरप्पा की निकटस्थ सहयोगी शोभा करंदलाजे के खिलाफ भाजपा के भीतर बढ़ते असंतोष की वजह से ही उन्हें चिकमंगलूर से बेंगलुरु नॉर्थ की सीट पर स्थानांतरित किया गया है। भाजपा कार्यकर्ताओं ने चिकमंगलूर में उनकी उम्मीदवारी के खिलाफ बाइक रैली से लेकर सड़क पर विरोध प्रदर्शन तक किया था। इसे विडंबना ही कह सकते हैं कि जहां एक तरफ भाजपा ने एक बार फिर से येदियुरप्पा के सहारे राज्य में अपनी नैया पार लगाने का फैसला लिया है, वहीं बीजेपी के भीतर येदियुरप्पा के खिलाफ विद्रोह अब खुलकर होने लगा है। गौरतलब है कि कर्नाटक में भाजपा के द्वारा “वंशवादी राजनीति” की धुन पर चुनावी प्रचार नहीं किया जा रहा है, क्योंकि यह मामला उल्टा उनके लिए ही नुकसानदेह साबित हो सकता है।

राज्य के एक अन्य प्रमुख लिंगायत दिग्गज कराडी संगन्ना को जब भाजपा के द्वारा कोप्पल से टिकट नहीं दिया गया, जहाँ से उन्होंने कई बार चुनावी जीत दर्ज की है और बासवराज को यह सीट दे दी गई, तो हाल ही में उनके समर्थकों ने जिला भाजपा कार्यालय में तोड़फोड़ मचा दी थी। बगल के उडुपी-चिकमंगलूर जिले में ‘गो बैक शोभा’ के नारों की तरह ही कोप्पल में भी ‘गो बैक बसवराज’ के नारे सुनने को मिले हैं। इस बार मैसूर से मौजूदा सांसद प्रताप सिन्हा का भी टिकट कट गया है।

लिंगायतों में एक उप-जाति सादर लिंगायतों की है, जिनके पास बड़े पैमाने पर कृषि भूमि होने की वजह से सामंती उपजाति होने के साथ-साथ इन्होने बौद्धिक वर्ग के बड़े हिस्से को जन्म दिया है, और भाजपा में इनका आधिपत्य है। अन्य लिंगायत उप-जातियों में संख्या के लिहाज से सबसे मजबूत पंचामशाली, जंगमास, गनिगास और गौड़ा इत्यादि हैं, लेकिन भाजपा में ये हाशिये पर हैं। पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार जो कि बनाजिगा लिंगायत हैं, ने खुद को हाशिये पर डाल दिए जाने की वजह से भाजपा से किनारा कर लिया था, हालांकि भाजपा उन्हें किसी तरह से वापस अपने खेमे में लाने में सफल रही है।

भाजपा की ओर से सदर लिंगायत मठ और अन्य लिंगायत उप-समूहों से सम्बद्ध मठों के बीच की लड़ाई को रोकने में सफलता नहीं मिल पाई है, जबकि सिद्धारमैया ने उन सभी के साथ वार्ता का आह्वान कर संकटमोचक की भूमिका अदा करने का प्रयास किया।

अन्य शब्दों में कहें तो कर्नाटक में भाजपा के पास अब अतीत की तरह लिंगायतों के बहुसंख्यक हिस्से का समर्थन मौजूद नहीं है। 2023 विधान सभा चुनावों में कांग्रेस ने उनके बीच में बड़ी सेंधमारी की थी। कांग्रेस ने 51 लिंगायत उम्मीदवारों को टिकट दिया था, जिसमें से 38 उम्मीदवार विजयी घोषित हुए थे, जबकि भाजपा की ओर से 68 उम्मीदवारों में से मात्र 18 लिंगायत उम्मीदवार ही जीतने में सफल रहे।

वोक्कालिगा भी एनडीए और कांग्रेस के बीच बंटे हुए हैं

कर्नाटक में दूसरा सबसे प्रभुत्वशाली समुदाय वोक्कालिगा है। पूर्व में, करीब-करीब समूचा वोक्कालिगा समुदाय देवगौड़ा के पीछे लामबंद रहता था, क्योंकि समुदाय के बीच से उभरकर वही एकमात्र प्रधानमंत्री पद पर आसीन हो सके। लेकिन आज के दिन देवगौड़ा की चमक काफी हद तक फीकी पड़ चुकी है, जैसा कि 2023 विधानसभा चुनाव में यह साफ़ नजर आया, जिसमें जेडी (एस) के आधार में भारी क्षरण देखने को मिला। कांग्रेस में जो गौड़ा उम्मीदवार थे, उन्हें जेडी (एस) के गौड़ा उम्मीदवारों की तुलना में ज्यादा वोट हासिल हुए थे। 2023 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 43 वोक्कालिगा उम्मीदवारों को टिकट दिया था, उनमें से कुल 22 उम्मीदवार विजयी हुए, जबकि भाजपा के द्वारा जिन 42 वोक्कालिगा उम्मीदवारों को टिकट दिया गया था, उनमें से सिर्फ 10 को ही जीत हासिल हो सकी। इसलिए, कर्नाटक में भाजपा के साथ जेडी (एस) का गठबंधन वोक्कालिगा मत-विभाजन को रोकने में कारगर साबित नहीं होने जा रहा है।

इसके पीछे की एक वजह यह है कि देवगौड़ा और उनके पुत्र एचडी कुमारस्वामी के पास अब अपने जातीय आधार पर एकछत्र अधिकार नहीं रह गया है, और कांग्रेस नेता एचडी शिवकुमार भी एक मजबूत जनाधार रखने वाले वोक्कालिगा नेता हैं। उनके खिलाफ मोदी सरकार की बदले की कार्रवाई के तहत छापेमारी पर समुदाय ने रजामंदी नहीं दिखाई। क़ानूनी तौर पर ओबीसी समुदाय में वर्गीकृत होने के बावजूद, वोक्कालिगा समुदाय को एक सशक्त भू-स्वामी समुदाय के तौर पर मान्यता मिली हुई है, और कर्नाटक में सामजिक आधार पर उन्हें एक उच्च जाति माना जाता है, जिसका सत्ता पर आधिपत्य हेतु उच्च जाति के लिंगायतों के साथ होड़ बनी हुई है।

वोक्कालिगा खेमे में विभाजन की बात तब खुलकर सामने आ गई थी जब पूर्व मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा ने इशारा किया था कि कांग्रेस के द्वारा उन्हें अपने पाले में लाने के प्रयास किये जा रहे हैं। संयोग से, सदानंद गौड़ा और शोभा करंदलाजे दोनों ही गौड़ा है। कोलार के प्रमुख बुद्धिजीवी, वीएसएस शास्त्री के अनुमान के मुताबिक, 50% वोक्कालिगा वोट कांग्रेस के पक्ष में जा सकते हैं, जबकि वेंकटेश प्रसाद के मुताबिक करीब 30% लिंगायत वोट भाजपा से खिसककर कांग्रेस के पक्ष में जा सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि कर्नाटक के दोनों प्रभुत्वशाली समुदाय अपना पाला बदलने की तैयारी में हैं।

कर्नाटक में ओबीसी समुदाय में सबसे बड़े तबके कुरुबा से भाजपा का पूर्व अलगाव

कर्नाटक भाजपा में नंबर 2 पर नेता के तौर पर केएस ईश्वरप्पा को माना जाता था, जो कर्नाटक के सबसे प्रमुख ओबीसी समुदाय, कुरुबा से नाता रखने वाले ओबीसी नेता हैं। इस बार वे अपने बेटे कंतेश के लिए हावेरी लोकसभा क्षेत्र से टिकट दिलाना चाहते थे, लेकिन भाजपा हाईकमान ने मना कर दिया। हाल ही में जब अमित शाह कर्नाटक के दौरे पर आये हुए थे, तो ईश्वरप्पा उनसे मुलाकात करने के लिए समय चाहते थे। लेकिन अमित शाह ने उन्हें मुलाक़ात का समय नहीं दिया और कहा कि दिल्ली आकर उनसे मिलें। ईश्वरप्पा सब काम छोड़ दिल्ली गये और कई दिनों तक इंतजार के बावजूद उन्हें मुलाक़ात के लिए समय नहीं दिया गया। बुरी तरह से बिफरे, ईश्वरप्पा वापस लौट आये और उन्होंने येदियुरप्पा के बेटे बीवाई राघवेंद्र के खिलाफ शिवमोगा से निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ने का फैसला ले लिया।

संयोगवश, मुख्यमंत्री सिद्धारमैया भी कुरुबा समुदाय से आते हैं, जो कि पारंपरिक तौर पर चरवाहा समुदाय होने के साथ-साथ कर्नाटक में सबसे प्रमुख ओबीसी समुदाय माना जाता है। स्वाभाविक रूप से, बहुसंख्यक कुरुबा सिद्धारमैया और कांग्रेस के पीछे लामबंद हैं। इसके बावजूद, ईश्वरप्पा कुछ कुरुबा वोटों को भाजपा के पाले में लाने में सफल रहे हैं, लेकिन आज की परिस्थिति में लगभग सभी कुरुबा वोट सिद्धारमैया के पीछे लामबंद होने जा रही है।

कुरुबा समुदाय के बीच भाजपा के खिलाफ नाराजगी की वजह स्वाभाविक है, क्योंकि भाजपा के शीर्षस्थ नेतृत्व द्वारा जिस प्रकार से उनके नेता के साथ अपमान पूर्ण व्यवहार किया गया, उसे देखते हुए सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में भी वे सिद्धारमैया के पीछे ही लामबंद होने जा रहे हैं।

कर्नाटक भाजपा में ब्राह्मण लॉबी की दावेदारी बाकियों को दूर कर रही है

कर्नाटक भाजपा में केंद्रीय मंत्री प्रहलाद जोशी सबसे प्रमुख ब्राह्मण नेता हैं। पिछले तीन लोकसभा चुनावों में वे लगातार धारवाड़ से जीत रहे हैं। इस बार भी जब भाजपा नेतृत्व ने उन्हें धारवाड़ संसदीय क्षेत्र से लड़ने के लिए मनोनीत किया, तो लिंगायत समुदाय के प्रभुत्वशाली मठ के नेता दिन्गालेश्वारा महास्वामी सहित कम से कम आधा दर्जन प्रमुख नेताओं की ओर से भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से उन्हें धारवाड़ से न उतारने का निवेदन किया गया। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने इस मांग को अनसुना कर उन्हें वहां से उतार दिया है। इस घटना ने कर्नाटक भाजपा के भीतर ब्राह्मण-लिंगायत फॉल्टलाइन को सतह पर ला दिया है, और भाजपा के भीतर विद्रोह की धारा को जन्म दे दिया है। भाजपा के चुनावी प्रदर्शन और नतीजों पर निश्चित रूप से इसका असर देखने को मिल सकता है।

लेकिन प्रहलाद जोशी एकमात्र केंद्रीय मंत्री नहीं हैं, जिन्हें पार्टी के भीतर विद्रोह का सामना करना पड़ रहा है। एक अन्य केंद्रीय मंत्री भगवंत खुबा को जनवरी माह में एक पार्टी की बैठक से बाहर निकलने के लिए मजबूर होना पड़ा, जब पूर्व राज्य मंत्री, प्रभु चौहान ने उन्हें एक बार फिर बीदर से चुनावी मैदान में उतारे जाने पर विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया था।

इसी प्रकार, ब्राह्मण पृष्ठभूमि से आने वाले प्रमुख आरएसएस नेता, बीएल संतोष हैं, जिन्हें कर्नाटक भाजपा का इंचार्ज नियुक्त किया गया था। लेकिन बी वाई विजयेंद्र को जबसे कर्नाटक भाजपा का कार्यभार सौंपा गया है, तबसे बीएल संतोष का कोई अता-पता नहीं है। भाजपा के भीतर लिंगायत-ब्राह्मण लॉबी की प्रतिद्वंदिता के एक और संकेत के तौर पर इस परिघटना को देखा जाना चाहिए।

कर्नाटक कांग्रेस भी ब्राह्मणों के बीच में अपनी पैठ बनाने में जुटी है। 2023 विधानसभा चुनाव में, भाजपा ने 13 ब्राह्मण उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जिसमें से 8 जीते थे। कांग्रेस ने भी 7 उम्मीदवार खड़े किये थे, जिसमें से 3 को जीत हासिल हुई। कर्नाटक की कुल आबादी में भले ही ब्राह्मणों की संख्या मुश्किल से 2.5% हो और संख्या के लिहाज से चुनाव में उनकी भूमिका महत्वहीन हो, लेकिन राज्य की नौकरशाही एवं अन्य शक्ति संरचनाओं में अपनी मजबूत उपस्थिति के चलते ब्राह्मणों को अच्छी खासी राजनीतिक ताकत हासिल है।

भाजपा के खिलाफ विभिन्न समुदायों की आंशिक गोलबंदी

कर्नाटक में प्रमुख समुदायों की हिस्सेदारी कुछ इस प्रकार से है: लिंगायत कुल आबादी में (14-16%), वोक्कालिगा (11%), कुरुबा (9.3%), दलित (19.5%), मुस्लिम (12.9%) और ब्राह्मण (2.5%) हैं। कर्नाटक में भाजपा के लिए खुद को उबारने की उम्मीद बेहद क्षीण है, क्योंकि लगभग सभी प्रमुख समुदायों के बीच तीक्ष्ण राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ा है। इसके अलावा सबसे प्रमुख ओबीसी समुदाय से लगभग पूर्ण अलगाव की स्थिति, लिंगायतों के बीच आंशिक रूप से ही वापसी, वोक्कालिगा (गौड़ा) मतदाताओं के बीच बढ़ते विभाजन, जो पुराने मैसूर राज्य के विभिन्न जिलों, मांड्या, मैसूर, हासन, तुमकुर और कोलार आदि में संकेंद्रित हैं, और कांग्रेस में एचडी शिवकुमार जैसे ताकतवर वोक्कालिगा नेता के उदय के साथ-साथ दलितों के बीच सिद्धारमैया की 5 गारंटियों का आकर्षण अपना काम कर रही हैं।

कर्नाटक में आरएसएस और बीजेपी के बीच की बढ़ती दूरियां

गोवा के बाद अब आरएसएस और बीजेपी के बीच में सबसे ज्यादा दूरियां कर्नाटक में देखने को मिल रही हैं। मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग से आने वाले कई आरएसएस कार्यकर्ताओं के लिए येदियुरप्पा और उनके बेटे का भ्रष्टाचार लगातार बड़ी नाराजगी की वजह बना हुआ था, और आरएसएस येदियुरप्पा के स्थान पर एक अन्य लिंगायत बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाने में भी सफल हो गया था। लेकिन एक बार फिर आरएसएस के लोगों को तब दरकिनार करना पड़ा, जब बोम्मई के तहत राज्य में कुशासन अपने चरम पर पहुंच गया था। हालत यहां तक पहुंच गई कि स्वयं एक भाजपा नेता के द्वारा बोम्मई राज को कुख्यात “40% कमीशन” के तौर पर आरोपित कर दिया गया था।

आरएसएस ने बसवराज बोम्मई के स्थान पर एक ब्राह्मण, प्रह्लाद जोशी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए पैरवी की भी कोशिश की थी, लेकिन वह भाजपा आलाकमान को यह बात समझाने में सफल नहीं हो पाई कि एक गैर-लिंगायत ब्राह्मण नेता को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा के चुनावी भविष्य के लिए नुकसानदायक नहीं होने जा रहा है। नतीजा यह हुआ कि बोम्मई को करारी शिकस्त मिली और 2023 में सिद्धारमैया ने सीएम का पदभार संभाला। बाकी तो जो भी था, इतिहास बन चुका है।

आरएसएस की कतारों में “भाजपा के कांग्रेसीकरण” को लेकर असंतोष तब भी कमजोर नहीं पड़ा था जब भाजपा विपक्ष में थी। भाजपा के मामलों पर आरएसएस के नेता पहले ही हाशिए पर डाल दिए गये थे। उदाहरण के लिए, आरएसएस के प्रमुख नेता बीएल संतोष, जो पूर्व में कर्नाटक में भाजपा के प्रभारी भी थे, आज कहीं नजर नहीं आ रहे हैं। चूंकि भाजपा नेतृत्व पूर्व की तरह दिग्गज आरएसएस की चुनावी मशीनरी और विशेषज्ञता पर पूरी तरह से यकीन नहीं कर सकती है, इस वजह से भी भाजपा की वापसी की उम्मीद कम ही है।

चुनावी प्रचार में शामिल कुछ अन्य मुद्दे

कांग्रेस के हिस्से में भी कुछ खामियां हैं। हालांकि पार्टी अखिल भारतीय स्तर पर जातीय जनगणना के मुद्दे को सबसे प्रमुखता से उठा रही है, लेकिन कर्नाटक में इसकी खामोशी स्पष्ट नजर आ रही है, क्योंकि राज्य स्तर पर जातीय जनगणना करने वाले पहले राज्य होने के बावजूद, सिद्धारमैया ने अभी तक जाति जनगणना के निष्कर्षों को प्रकाशित नहीं किया है।

हालांकि सिद्धारमैया ने पूर्व भाजपा सरकार के द्वारा पारित दो कृषि कानूनों को रद्द कर दिया है, लेकिन वे अभी तक किसानों के संकट का स्थायी समाधान ढूंढ पाने में विफल रहे हैं। हालांकि, उन्होंने किसानों के गुस्से को यह कहकर केंद्र के खिलाफ काफी हद तक मोड़ दिया है कि कर्नाटक के भाजपा सांसद संसद के भीतर किसानों से जुड़े मुद्दों को उठाने में पूरी तरह से विफल साबित हुए हैं। अपनी तरफ से सिद्धारमैया ने व्यक्तिगत रूप से दिल्ली जाकर केंद्र के द्वारा राज्य को जीएसटी में हिस्सेदारी देने एवं राजकोषीय निधि से यथोचित हस्तांतरण से इंकार के खिलाफ प्रदर्शन कर चुके हैं। कर्नाटक में किसानों का आंदोलन भी मुख्य रूप से मोदी सरकार के खिलाफ काफी सक्रियता लिए हुए है।

एडेलु कर्नाटक (कर्नाटक, उठ खड़े हो!) नाम से समाज के तमाम वर्गों ने एक सिविल सोसाइटी मंच का निर्माण कर कर्नाटक में फासीवादी भाजपा के विरोध में एक जीवंत अभियान की शुरुआत की है। कांग्रेस के लिए वोट जुटाने की अपनी मुहिम में उनके द्वारा कर्नाटक के कई शहरों में नुक्कड़ नाटकों का आयोजन किया जा रहा है, जिसकी कर्नाटक में एक परंपरा रही है।

फिलहाल देखना बाकी है कि कर्नाटक में विभिन्न समुदायों के बीच में ध्रुवीकरण ठीक-ठीक कैसे काम करता है, जिसे दोनों प्रमुख राजनीतिक दलों के द्वारा जीती गई लोकसभा सीटों की संख्या में देखना होगा।

(बी.सिवरामन स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। sivaramanlb@yahoo.com पर उनसे संपर्क किया जा सकता है।)

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