डॉ. विकास मानव
मंदिर मस्जिद चर्च गुरुद्वारा सब जगह विश्वास. पूजा पाठ भजन कीर्तन, नमाज सब जगह विश्वास. सब जगह तन मन धन का समर्पण. और फिर छल धोखा शोषण लूट खसोट, भोग.
विज्ञान विश्वास की नहीं, प्रयोग की और प्रयोग से सीधे परिणाम की बात करता है. मेरी ध्यान विधियां वैज्ञानिक हैं, डायनामिक रिजल्ट देती हैं. इसलिए मैं विश्वास, आस्था, श्रद्धा, तन मन धन के समर्पण की माँग नहीं करता. प्रयोग सीखने भर के लिए मेरी जरूरत पड़ती है.
लेकिन जो लोग तंत्र साधना का पथ अपनाते हैं, उनके लिए विश्वास प्रथम अनिवार्यता है, गहरा विश्वास और समग्र समर्पण.
सुधाधारासारै-श्चरणयुगलान्त-र्विगलितैः
प्रपञ्चं सिन्ञ्न्ती पुनरपि रसाम्नाय-महसः।
अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभ-मध्युष्ट-वलयं
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि॥
तंत्र साधना में दो बातें साधक-साधिका के लिए बेहद जरूरी है : पहली बात है, स्वयं में विश्वास पैदा करना और उतना ही मेरे में भी.
अगर मै कहूँ कि अपनी वहन- बेटी को रात भर के लिए मेरे कमरे में भेज़ दो, या आप साधिका हो तो मेरा सेक्स लो तो फ़ौरन एक्सन जितना विश्वास. बात उदाहरण की है.
मैं ऐसा नहीं करवाता. लेकिन ये या ऐसा क़ुछ भी करवाऊँ तो ‘नो’ नहीं सिर्फ़ ‘यस’.
ये वाला विश्वास नहीं है. जो आज आपके पास है, वह बिन पैंदी का है, कचरा है। अगर रियल है तो आओ.
दूसरी बात है दृढ़ इच्छा शक्ति का होना। विश्वास और अभीप्सा ये दोनों सफलता के लिए आवश्यक है। इन दोनों के बिना जीवन में तंत्र सिद्धियों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
क्या एक साधक जीवन भर तपस्या, साधना करता है?
नहीं.
वो स्वयं में विश्वास पैदा करता है। वो विश्वास पैदा करने की ही साधना करता है। एक ही शब्द या मंत्र कहिए उसकी बार-बार पुनरावृत्ति करता है। जो लोग सिर्फ गिनती पूरी करने में रहते हैं उनके मंत्र पूरे एक लाख हो जाते हैं, सिद्धि नहीं मिलती है।
ऐसे भी लोग हैं मंत्र जाप करते तीस साल से ज्यादा हो गए। बात अब तक समझ ही नहीं आई आखिर करना क्या है और कर क्या रहे है?
अगर बात समझ में आ जाए तो हर शब्द ही मंत्र है| बस किसी को कुछ कह दिया तो हो गया।
सब कुछ तो सही ही कर रहे हैं पर परिणाम शून्य है| सुबह भी तीन बजे उठ जाते हैं गुरु की तेल मालिश भी खूब मन लगाकर करते हैं। मंत्र सिद्धि के विधान भी सही ही कर रहे हैं। लेकिन मंत्र कार्य नहीं कर रहा है।
ये समझना होगा कि ये बंदर या भालू की ट्रेनिंग नहीं है जो आप कर रहे हो। ये विश्वास की बात है। किसी गुरु की औकात नहीं जो आपके अंदर ये पैदा करवा दे।
जब तक ये पैदा न हुआ ये सब व्यर्थ है। अगर आपके एक लाख जन्म हो चुके हैं। तो क्या लगता है आप उन जन्मों में ईमानदार नहीं रहे होगे ? बस विश्वास और अभीप्सा नहीं थी.
क्या लगता है अपने जन्मों तक पूरी कोशिश नहीं की होगी ? फिर कमी कहां रह गई ?
इस जगत में सब कुछ मौजूद है। विश्वास भी, कृष्ण भी, लक्ष्मी भी, लेकिन आपके पास नहीं है।
आपके अंदर ये नहीं. इतना ज्यादा है नहीं है, कि तीस से चालीस साल की तपस्या के बाद भी आप इसे हाँ में नहीं बदल पाते हो। एक मंत्र में विश्वास नहीं पैदा कर पाते है। मंत्र तो छोड़िए तुम खुद में, प्रशिक्षक में विश्वास पैदा नहीं कर पाते हो।
विभाजित मस्तिष्क दो नाव पर पैर रखने जैसा है. हाँ और न दोनों ही। नाव चलेगी- नाव नहीं चलेगी।
बालखिल्य संत, बौने संत की संख्या लगभग चौरासी हजार के करीब बताई गई है। शिव की इन्होंने इतनी घनघोर तपस्या की कि हड्डी के ऊपर सिर्फ खाल चिपकी रह गई।
जब शिव पार्वती उस मार्ग से निकले तो पार्वती माँ हैं स्वाभाविक ही उन्होंने शिव से आग्रह किया इन्हें कुछ तो दे दो, इनमें तो अब कुछ बचा भी नहीं है।
शिव ने मना कर दिया। जब पार्वती नहीं मानी। तो शिव ने एक संन्यासी का वेश धारण करके नग्न, उनके आश्रम में भिक्षा के लिए चले गए। उस वक्त आश्रम में पुरुष नहीं थे, सिर्फ महिलायें ही थी। जब इतना सुंदर पुरुष महिलाओं ने देखा तो उस पर काम से आसक्त हो गईं। भूल गईं कि वो संन्यासीन है।
उसी समय संत आश्रम आ गए।अपनों की गलती दिखाई नहीं देती है| संत ने उस सन्यासी शिव को श्राप दे दिया तेरा उपस्थ यानि लिंग अभी टूट कर गिर जाए और लिंग धरती पर गिर गया. वृतांत शिव पुराण में मिल जाएगा।
सैकड़ों साल की तपस्या के बाद भी वो विश्वास नहीं पैदा किया जा सका, जो साधना की पूर्णता के लिए जरूरी था|
विश्वास के बिना दृष्टि भी होने का कोई अर्थ नहीं है। आमतौर से तपस्या में हृदय से एक झरना फूटता है जिसे श्रद्धा कहते हैं। विश्वामित्र के पास तपस्या की कोई कमी नहीं थी। लेकिन श्रद्धा नहीं थी, इस कारण से वो आखिर तक सत्य को देख ही नहीं पाए। जिस दिन दृष्टि पैदा हुई उस दिन श्रद्धा भी थी और समर्पण भी।
तब उन्होंने अपने हृदय में इस सत्य को स्वीकार किया कि “ब्रह्म बल सर्वोपरि। विश्वामित्र ने पहली बार अपनी हार को स्वीकार किया था।
इससे पहले भी वो कई बार हारे थे, लेकिन नये प्रतिशोध के साथ खड़े हो जाते थे। लेकिन इस बार हृदय ने विश्वास कर लिया कि ब्रह्म ही सत्य है। फिर तपस्या की।
तपस्या की पूर्णता पर प्रसादी ग्रहण कर रहे थे तो इन्द्र ने याचक के वेश में भोजन मांगा। पहली बार हुआ था जब विश्वामित्र ने सारा भोजन याचक को दे दिया और हृदय ने स्वीकारा शायद अभी ईश्वर की मर्जी नहीं है। फिर तपस्या की और ब्रह्म पद को प्राप्त किया।
विश्वामित्र के हृदय में जब विश्वास पैदा हुआ तब वो कोई तपस्या नहीं कर रहे थे।बस हृदय ने स्वीकार कर लिया था वो ही सत्य है और हृदय से वो स्रोत फुट पड़ा जिसने उन्हें ब्रह्म पद तक पहुंचा दिया।
हृदय पर सबसे बड़ा पत्थर तो अहंकार का ही होता है। विश्वामित्र को लगता रहा मैं नये ब्रह्मांड की रचना कर सकता हूँ। मैं तो ईश्वर हूँ।अहं ब्रह्मास्मि। ये धोखा है|
बालखिल्या संतों की तपस्या कई सौ वर्ष की थी| नियम, संयम में कोई कमी नहीं थी। एक पैर पर खड़े होकर, सिर के बल खड़े होकर। लेकिन सिर्फ एक ही कमी रह गई साधना में वो विश्वास पैदा नहीं हो पाया। जिससे ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है।
ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार करने का अर्थ है सम्पूर्ण समर्पण। अन्यथा लोग तो सिद्धि, साधनाएं करके खुद को ही ईश्वर मान बैठते हैं। उन्हें लगता है जो ईश्वर कर सकता है वो तो वो भी कर सकते हैं। रावण ने 40 हजार साल अति उठा रखी थी। अनगिनत लोग हैं।
आप तंत्र, मंत्र, साधना, तपस्या आदि बहुत कुछ कर लेते हैं। नियम तो सभी पालन होते हैं लेकिन जमीन से विश्वास का अंकुर भी नहीं फूटता है। आप कोई कार्य विश्वास के साथ मत कीजिए।
विश्वास है तो ही कीजिए। पहले विश्वास ही पैदा कीजिए और विश्वास की आज तक कोई साधना नहीं बनी है। विश्वास पैदा होता है समर्पण से। विश्वास है साधना में सफलता का प्रथम आवश्यकता।
साधना का अर्थ हमेशा हिमालय नहीं उठाना होता है। लेकिन जो कुछ करना है वो किसी हिमालय से कम भी नहीं होता है।