जब खतरे के बादल मंडरा रहे हों और एक पीढ़ी पहले दफना दिए गए पुराने प्रेत फिर से हरकत में आ रहे हों, तब क्या अपने ट्रूप्स को बैरकों में बुलाने का समय नहीं आ गया है? जी हां, हम पंजाब और सिखों की बात कर रहे हैं.लेकिन हां, आप पूछ सकते हैं कि लड़ाई कहां हो रही है? पंजाब में शांति है और शायद वहां उत्तर भारत के किसी भी राज्य के मुकाबले ज्यादा शांति है. हिंदी पट्टी के मुकाबले तो काफी ज्यादा शांति है. सिखों ने विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में बड़ी संख्या में मतदान किया और सर्वशक्तिमान भाजपा को धूल चटा दी. उन्होंने जिस ‘आप’ पार्टी को चुना वह उस राज्य के लिए भाजपा या कांग्रेस के मुकाबले ज्यादा ‘बाहरी’ पार्टी हैलेकिन हम जिन खतरों और प्रेतों या समस्याओं और चुनौतियों की बात कर रहे हैं वह क्या हैं? और लड़ाई कहां हो रही है?
सत्ता में होने और इससे ज्यादा अहम यह कि संपूर्ण सत्ता में होने पर एक चुनौती यह होती है कि लोग यह मानने लगते हैं कि इसका ज़रूर कुछ इस्तेमाल करना चाहिए. हर एक सत्ता तंत्र के अंदर एक मशहूर उपन्यास के एक तीसमार-खां-नुमा काल्पनिक नायक डॉन कुहाते वाली बैचेनी छिपी होती है. वह अपने सिपहसालार सांचो पांजा के साथ साहसिक अभियान पर निकल पड़ता है और विशाल पवनचक्कियों को दुष्ट दानव मान कर उनसे भिड़ जाता है, लेकिन मुश्किल यह है कि यह कहानी 1605 ईस्वी के कथाकार मिग्वेल डि सर्वांते के उपन्यास की नहीं है. मामला तब और जटिल हो जाता है जब पवनचक्कियां ब्रिटिश कोलंबिया में खड़ी हों और उन दानवों से लड़ रही फौज को बैरकों में बुलाने की ज़रूरत पड़ रही हो क्योंकि जिस ज़मीन, जिन लोगों और जिस सियासत पर ध्यान देने की ज़रूरत है वह सब तो यहीं हैं. अमृतसर में, जहां नई दिल्ली से किसी ‘वंदे भारत’ ट्रेन से साढ़े पांच घंटे में या किसी फ्लाइट से एक घंटे में पहुंचा जा सकता है.
लेकिन वहां न कोई युद्ध हो रहा है, न कोई लड़ाई हो रही है, और न कोई झगड़ा हो रहा है. वहां एक नाराज़, असंतुष्ट और हताश आबादी है जो इमिग्रेशन के जरिए भारत छोड़ना चाहती है, लेकिन यह अब लगभग नामुमकिन हो गया है.
अलगाववादी तत्व जो बयान देते हैं, उनकी परेडों में जो भद्दी झांकियां प्रदर्शित की जाती हैं या जो नारे लगाए जाते हैं, एसॉल्ट राइफलों के साथ जो सेल्फी ली जाती है या जो पोस्टर बनाए जाते हैं वह सब भारत के लिए समस्याएं नहीं हैं. वैसे, मुझे समझ में नहीं आता कि हरदीप सिंह निज्जर भगवा रंग की ‘बनाना रिपब्लिक’ वाली टी-शर्ट में अपनी फोटो जारी करके क्या बताना चाहता है.
ऐसी हरकतें करने वालों की संख्या ज्यादा-से-ज्यादा कुछ हज़ार होगी. अगर वह सिरदर्द हैं तो उन देशों के लिए हैं जहां वह बसे हुए हैं क्योंकि वह हथियारों से लैस हैं और उनका एक ‘अंडरवर्ल्ड’ है जिसमें गिरोहों के बीच खूनी लड़ाई चलती रहती है. गौर करने वाली बात यह है कि ऐसा कुछ भी अमेरिका में नहीं होता, केवल बर्फीले कनाडा में ही होता है.
भारत को सबसे ज्यादा परेशान कर रहा गुरपतवंत सिंह पन्नुन अपने बयानों में पूरी सावधानी बरतता है. वह वकालत की अपनी पढ़ाई का पूरा इस्तेमाल करते हुए बातें करता है. उसके होर्डिंग कहते हैं — ‘भारत को कुचल डालो!’. मगर इसके नीचे लिखे शब्दों पर गौर कीजिए — ‘बुलेट से नहीं, बैलट से’. कनाडा में हालत ज्यादा बुरी है, लगभग उतनी ही जितनी ब्रिटेन के मध्य भाग में है और ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा दूसरे देशों में जो कुछ हो रहा है वह अपेक्षाकृत छिटपुट ही है.
यह सब आपके अंदर गुस्सा पैदा कर सकता है, लेकिन क्या वह इतने महत्वपूर्ण हैं? कि हम अपने पड़ोसियों की हालत देखते हुए भी अपने अस्तित्व के लिए अहम रणनीतिक संबंधों की कीमत पर उन तत्वों से लड़ाई करने में उलझ जाएं? खासकर अपने उत्तर में स्थित पड़ोसी को देखते हुए? एक बुद्धिमान ताकत में अपनी मित्रताओं, खतरों का आकलन करने और उनके सक्रिय होने के समय का अंदाज़ा लगाने की क्षमता होनी ही चाहिए.
यह भी स्वाभाविक है कि किसी समय जो चीज़ हमें सबसे ज्यादा परेशान कर रही हो उसका निबटारा पहले किया जाए, लेकिन तमाम देशों, समाजों और यहां तक कि व्यक्तियों और पेशेवरों के अनुभव यही बताते हैं कि जब बहुत गुस्सा आए तब एक पल के लिए गहरी सांस लेकर गुस्से को शांत होने दें. अगली सुबह आपको यही एहसास होगा कि क्या हम इसी बात के लिए लड़ाई करने जा रहे थे? या रिश्ता तोड़ने जा रहे थे? अपनी नौकरी से इस्तीफा देने जा रहे थे? अपने किसी कर्मचारी को बर्खास्त करने जा रहे थे? ताकतवर लोग और देश गुस्से में कोई कदम नहीं उठाते.
शोर मचाते इन अलगाववादियों में से कोई भी यह नहीं मानता कि किसी दैवीय चमत्कार से एक संप्रभु सिख मुल्क अस्तित्व में आ जाएगा और इनमें शायद ही कोई होगा जो अपने साथ खड़े 100 हथियारबंद साथियों के साथ पंजाब में पंचायत का चुनाव भी जीत पाएगा. एक नज़रिया यह है कि उन्हें ऐसे लोगों के रूप में देखा जाए जो कभी हम जैसे भारतीय ही थे मगर अब उनमें से ज़्यादातर लोग कनाडा वाले हैं और पाकिस्तानियों के पास जो थोड़ा पैसा बचा है उसे उनसे खर्च करवा रहे हैं. इसी पैसे के बूते वह अपनी ज़िंदगी चला रहे हैं. भारत और उसका विशाल खुफिया तंत्र पाकिस्तान को उसी रूप में जवाब दे सकता है और ऐसा वह तब तक कर भी रहा था जब तक कि एंग्लो-अमेरिकी खेमे में मची खलबली के कारण इस पर विराम नहीं लग गया.
भारत, अमेरिका और कनाडा भी पाएंगे कि उनके अपने-अपने झगड़े सामने आ रहे हैं, बेशक अलग-अलग रूप में, लेकिन जो संप्रभु देश आपस में बहुत कुछ साझा करते है वह लंबे समय तक एक-दूसरे से कटे हुए नहीं रह सकते. अमेरिका और भारत ने पन्नुन मामले को अलग खांचे में रखकर कदम आगे बढ़ा लिया है.
लेकिन यह हकीकत नहीं बदलेगी कि सिख प्रवासियों का बड़ा और प्रभावशाली समुदाय दोनों देशों में बसा हुआ है. कनाडा में तो वह कई चुनाव क्षेत्रों (या ‘राइडिंग’) में अच्छी-खासी अहमियत रखता है. दोनों ही देशों में कट्टरपंथी तत्वों को आईएसआई द्वारा वित्त पोषित और बढ़ावा दिया जाता रहेगा.
यह वह पखवाड़ा है जब इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद सिखों के संहार की 40वीं बरसी मनाई जा रही है. इसी पखवाड़े में ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार’ की भी 40वीं बरसी मनाई जा रही है. भिंडरांवाले के जाने के बाद का दशक उसके सक्रिय रहने के दौर से ज्यादा रक्तरंजित था और इसी के बाद पंजाब में स्थिति सामान्य हो पाई थी. उसके बाद के तीन दशकों में पंजाब में पूरी शांति रही है.
लेकिन अब आक्रोश और हताशा उभर रही है. यह मुख्यतः इस राज्य की आर्थिक गिरावट की वजह से है. यह धारणा भी मजबूत हो रही है कि राष्ट्रीय सत्ता तंत्र में सिखों ने अपनी पारंपरिक अहमियत (अपनी आबादी के बूते) गंवा दी है.
मेरी यह बात आपको इसलिए बेमानी लग सकती है कि अभी कुछ सप्ताह पहले ही एक सिख को भारतीय वायुसेना की बागडोर सौंपी गई है, लेकिन केंद्र की सत्ता पूरी तरह भाजपा के हाथों में है, जिस पार्टी को सिख सबसे कम पसंद करते हैं. इसकी तसदीक पिछले आम चुनाव में मतदान के आंकड़े करते हैं.
भाजपा में कोई सिख नेता नहीं है और शिरोमणि अकाली दल (शिअद) एनडीए गठबंधन से 2020 में ही अलग हो गया है.
इसका जो भी राजनीतिक मतलब हो, अकाली दल से संबंध विच्छेद राष्ट्रीय हित में नहीं था. अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे कि पंजाब में सिख-हिंदू फूट एक चुनौती है. इसका सबसे अच्छा उपाय सिखों और हिंदुओं की पार्टियों, अकाली दल और भाजपा के बीच गठबंधन ही है.
यह गठबंधन टूटने से सब कुछ हवा हो गया. अकाली आलोकप्रिय हैं और धर्म के दायरे (जिसे पंजाब में ‘पंथिक’ कहा जाता है) में उनकी जगह पर चरमपंथी काबिज़ हो रहे हैं. पंथिक राजनीति में बना यह शून्य एक खतरा है और आप धर्मनिरपेक्ष राजनीति आदि की बातें अपने पास ही रखिए. पंजाब में सबसे पहले आपसे यही कहा जाएगा कि अगर भाजपा हिंदू राष्ट्र बनाना चाहती है, तो कोई अगर सिख राष्ट्र बनाना चाहता है तब उस पर आप सवाल कैसे उठा सकते हैं? वैसे, यह केवल भाषणबाजी के रूप में ही कहा जाता है. अमृतपाल सिंह को लोकतांत्रिक राजनीति ने समेट लिया है और उसकी गिरफ्तारी से कोई उथल-पुथल नहीं हुई.
मुश्किल सवाल यह है कि सिख आस्था और उसके सबसे बड़े गुरुद्वारे, उनके संसाधन तथा उनकी संस्थाएं किसके नियंत्रण में हैं. उनका नियंत्रण शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी (एसजीपीसी) के हाथ में है जिसके लिए केवल धर्म का पालन करने वाले आज्ञाकारी सिख ही वोट दे सकते हैं. इसका पिछला चुनाव 2011 में हुआ था, इसकी एक वजह यह है कि इसके लिए दर्ज किए जाने वाले योग्य सिख मतदाताओं की संख्या में 50 फीसदी कटौती कर दी गई है. इन जटिलताओं के बारे में हमने ‘कट द क्लटर’ के एक एपिसोड में चर्चा की थी. आज्ञाकारी सिखों की संख्या कई कारणों से कम हो रही है, जिनकी चर्चा हम इस कॉलम में पहले भी कर चुके हैं.
यह सब मिलकर असुरक्षा और चिंता पैदा करता है. इसके साथ केंद्र सरकार के संदेह को भी जोड़ दीजिए. कोई बगावत नहीं हो रही है, सिवाए नारों और पोस्टरों के जो आगामी 40वीं बरसी पर सामने आ सकते हैं. क्या आप उन सबको ‘यूएपीए’ या ‘एनएसए’ जैसे कानूनों के तहत जेल में बंद कर देंगे? अगर नहीं, तो फिर दो महासागरों के दो किनारों पर स्थित देशों में चंद सौ लोग यह सब कर रहे हैं तो उनसे लड़ने को आप क्यों आमादा हैं? इसलिए हमने कहा कि अपनी फौजों को वापस बैरकों में बुला लीजिए..