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सिल्क्यारा के सबक़: विकास की अवधारणा पर सवाल

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वर्षा सिंह

28 नवंबर की रात सिल्क्यारा सुरंग में फंसे 41 श्रमिक बाहर निकाल लिए गए। लेकिन इस घटना ने एक बार फिर हिमालयी क्षेत्र में विकास की अवधारणा पर सवाल खडे किए हैं। साथ ही सुरंग हादसे की जिम्मेदारी तय करने की मांग भी की जा रही है।

उत्तरकाशी की सिल्क्यारा सुरंग में 12 नवंबर से फंसे श्रमिक 28 नवंबर की रात आखिरकार बाहर आ गए। 17 दिन लंबे अंधेरे के बाद उनके जीवन से सुरंग का अंधियारा छंटा। उन्हें उजाले की ओर आने की राह भी श्रमिकों ने तैयार की। जब बड़ी-बड़ी अत्याधुनिक मशीनें सुरंग में गिरे मलबे को हटाने में कामयाब नहीं हो सकीं, तो झारखंड, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के श्रमिकों की “रैट माइनिंग टीम” ने सुरंग से मलबा हटाया। जिससे अंतत: 41 फंसे हुए श्रमिक सकुशल बाहर निकले।  

सिल्क्यारा सुरंग हादसे के बाद एक बार फिर हिमालय को नजदीक से देखने और समझने वाले लोग, वैज्ञानिक और एक्टिविस्ट आगाह कर रहे हैं कि हम विकास परियोजनाओं के नाम पर हिमालय पर ऐसी चोट कर रहे हैं जिसके नुकसान की भरपाई कभी नहीं की जा सकेगी। ये प्राकृतिक नहीं “मैन मेड डिजास्टर” है।

भूवैज्ञानिक और चारधाम परियोजना पर गठित सुप्रीम कोर्ट की हाईपावर कमेटी के सदस्य रह चुके डॉ. नवीन जुयाल हिमालयी क्षेत्रों में सुरंगों को सड़कों से बेहतर मानते हैं। लेकिन वह कहते हैं कि जिस तरह सिल्क्यारा सुरंग का निर्माण किया जा रहा है, उसे देखते हुए मैं सुरंगों के पक्ष में नहीं जाना चाहूंगा।

सिल्क्यारा सुरंग: ख़ामियों की सुरंग

भूवैज्ञानिक डॉ. जुयाल सिल्क्यारा सुरंग निर्माण में बरती गई लापरवाहियों के बारे में बताते हैं, जो न होती तो शायद ये हादसा भी न होता।

 डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट में सिल्क्यारा सुरंग की जियोलॉजिकल और जियोटेक्निकल पड़ताल में ज्यादातर अनुमान लगाया गया है कि कहां कैसी चट्टानें मिलेंगी। 4.5 किलोमीटर लंबी सुरंग की जियोलॉजिकल स्टडी के लिए, सिल्क्यारा और बड़कोट के बीच सिर्फ 3 जगह 50-50 मीटर के ड्रिल किए गए और उसके आधार पर चट्टानों की प्रकृति की एक सामान्य धारणा बना दी, जो सही नहीं कही जा सकती, हिमालयी चट्टानें थोडी-थोडी दूरी पर बदलती हैं।

सुरंग निर्माण के लिए जब पहाड़ काटा जा रहा था तो भूवैज्ञानिक को कार्यस्थल पर मौजूद होना चाहिए। लेकिन सिल्क्यारा में भूवैज्ञानिक की तैनाती नहीं थी।

ज्यादातर सुरंगें मुहाने पर टूटती हैं लेकिन सिल्क्यारा सुरंग दो किलोमीटर से अधिक अंदर जाकर ढही। यानी जब यहां पहाड काटकर खोखला किया जा रहा था तो उस पर ऊपर से दबाव बना हुआ था। उस दबाव की निगरानी की जाती है। जिससे पता चलता है कि चट्टान एक-दूसरे से दूर जा रही हैं या नहीं। पत्थर किस दर से टूट रहे हैं। हादसे से बचाव के लिए ये निगरानी जरूरी होती है जो नहीं की जा रही थी।

जियोलॉजिकल और जियोटेक्निकल इन्वेस्टिगेशन के साथ सुरंग निर्माण में अपनाए गए इंजीनियिरंग तरीके में भी खामी है। इसका उदाहरण सुरंग में आरसीबी की रिज (ridge) का टूटना है।

*  1.5 किमी से लंबी किसी भी सुरंग में आपदा की स्थिति में सुरक्षित निकासी के लिए एस्केप टनल होनी चाहिए। सिल्क्यारा में एस्केप टनल क्यों नहीं बनाई गई। डीपीआर के मुताबिक लागत बढ़ने और कम वाहनों के गुजरने के आकलन के तहत सुरंग के साथ-साथ आरसीसी कॉरिडोर बनाने की बात कही गई है। वह भी मौजूद नहीं थी। सुरंग निर्माण में लगे श्रमिकों की सुरक्षा के लिए भी कोई योजना नहीं थी।

टिहरी बांध परियोजना की सुरंग भी सिल्क्यारा जैसी नाजुक चट्टानों को काटकर बनाई गई है। टिहरी बैराज भी भूकंप के लिहाज से बेहद संवेदनशील फॉल्टलाइन पर बना हुआ है। डॉ. नवीन जुयाल टिहरी के साथ भाखड़ा बांध परियोजना का उदाहरण देते हैं और कहते हैं “अगर आप सही तरह से निर्माण कार्य करेंगे तो सिल्क्यारा जैसा हादसा नहीं होगा। ये हादसा बताता है कि हम अपना काम ईमानदारी से नहीं कर रहे”।

सिल्क्यारा सुरंग से बाहर निकलने पर श्रमिकों को स्वास्थ्य परीक्षण के लिए ले जाया गया।

सिल्क्यारा हादसे के दोषियों पर हो कार्रवाई

हिमालय के जानकार और सीपीआई एमएल के गढ़वाल सचिव इंद्रेश मैखुरी मांग करते हैं कि लापरवाही से काम करने के लिए सिल्क्यारा सुरंग का निर्माण कर रही नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड पर कार्रवाई की जाए। साथ ही कंपनी को दिया गया ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन का ठेका भी निरस्त किया जाए। 41 श्रमिकों का जीवन संकट में डालने के लिए कंपनी पर मुकदमा किया जाए। राष्ट्रीय राजमार्ग और अवसंरचना विकास निगम लिमिटेड (एनएचआईडीसीएल) पर भी कार्रवाई की जानी चाहिए।

वर्ष 2016 में शुरू हुई चारधाम सड़क परियोजना शुरुआत से ही विवादों में रही है। परियोजना के दौरान कई हादसों में श्रमिकों ने अपनी जान गंवाई है। इंद्रेश मैखुरी कहते हैं “इस परियोजना में मजदूरों के मरने का भी निरंतर सिलसिला रहा है। 2018, 2020, 2022 में भी चारधाम परियोजनाओं में श्रमिक मारे गए। घायल होते रहे। हर बार पता चला कि सुरक्षा के मानकों का ध्यान नहीं रखा जा रहा था”।

चारधाम परियोजना का हो पुनर्मूल्यांकन

सिल्क्यारा सुरंग चारधाम परियोजना का एक हिस्सा है। चारधाम परियोजनाओं से जुडी सडकें इस साल मानसून में भूस्खलन के चलते लगातार बाधित रहीं।

डॉ. नवीन जुयाल कहते हैं कि पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) से बचने के लिए 900 किमी लंबी सड़क परियोजना को 53 से अधिक टुकड़ों में बांट दिया। ताकि 100 किमी से कम दूरी पर ईआईए के नियम से बचा जा सके। जबकि पर्वतीय क्षेत्रों की भौगोलिक परिस्थितियां मैदानी क्षेत्रों से बिलकुल अलग होती हैं।

“उदाहरण के तौर पर चमोली के जोशीमठ में हेलंग के पास समुद्र तल से 1000 मीटर की ऊंचाई है और महज 20 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए, औली की ओर बढने पर हम 3000 मीटर की ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं। आप ये कहकर यहां निर्माण कार्य का पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन नहीं कर रहे कि ये दूरी 100 किमी से कम है तो आप हिमालय का विनाश कर रहे हैं। 20 किलोमीटर की दूरी में वनस्पतियां, स्थानीय जलवायु, मिट्टी सबकुछ बदल रही है। हिमालयी भौगोलिक परिस्थितियां बहुत कम दूरी पर बदल जाती हैं, चारधाम परियोजना का ईआईए न किया जाना सबसे बडा अपराध है”, डॉ जुयाल आगे कहते हैं।

वह उत्तरकाशी से गंगोत्री की ओर जाने वाली सड़क का उदाहरण देते हैं। वे सारी सड़कें जो चारधाम परियोजना में चौडी की गई थी, 2023 के मानसून में दरक गईं। जबकि उत्तरकाशी से गंगोत्री की ओर जाने वाली सड़क पर ये अस्थिरता नहीं देखी गई, क्योंकि अभी वहां काम शुरू नहीं हुआ है। हम अब भी नहीं समझ पा रहे हैं कि हमने हिमालय के साथ क्या अपराध किया है”।

सिल्क्यारा जैसे हादसे और पूर्व में हो चुके हादसों को देखते हुए विशेषज् हिमालयी क्षेत्र के इस “विकास” से बचने की सलाह दे रहे हैं

अलग हिमालयी नीति की मांग

वहीं, चारधाम परियोजना को लेकर इंद्रेश मैखुरी कहते हैं “जिस उद्देश्य से इन ऑल वेदर सड़कों का निर्माण किया जा रहा था वो उद्देश्य तो पूरा होता नहीं दिखता। सड़कें चौडी होने की जगह और संकरी हो गई हैं। कभी भी बंद हो जाती हैं। इस साल मानसून में हमने यही देखा”।

वह कहते हैं “चाहे सड़क परियोजना हो, रेल परियोजना हो या जलविद्युत परियोजनाएं हों, जिस बेतरतीबी से पहाड काटे, खोदे और डायनामाइट से उडाए जा रहे हैं, हिमालय इसकी कीमत चुका रहा है। हमें विकास के मॉडल को नए सिरे से देखने की जरूरत है। हिमालयी क्षेत्र में विकास परियोजनाएं के निर्माण को लेकर नीतिगत बदलाव की जरूरत है। ज्यादातर परियोजनाएं हिमालय में आपदा लेकर आई हैं”।

चारधाम परियोजना को लेकर सुप्रीम कोर्ट की हाईपावर कमेटी के चेयरमैन रह चुके डॉ रवि चोपडा कहते हैं कि आप हिमालय के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते। यहां विकास परियोजनाओं की योजना बनाने से पहले हिमालयी क्षेत्र की भौगोलिक-पारिस्थितिकी कमजोरी की गहराई से पड़ताल करनी और समझनी चाहिए।

“हिमालयी क्षेत्र में विकास का तरीका अलग होना चाहिए। हम देश के दूसरे हिस्सों की तरह हिमालयी क्षेत्र में विकास कार्य नहीं कर सकते। सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय ने भी 2018 के नोटिफिकेशन में कहा था कि पिछले पांच साल के अनुभव के आधार पर ये स्पष्ट है कि हम पहाडी क्षेत्र में 10 मीटर चौडी नेशनल हाईवे नहीं बना सकते हैं”।

विशेषज् कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में विकास को नए सिरे देखने की ज़रूरत है। हम ऐसा नुक़सान कर रहे हैं जिसकी भरपाई कभी नहीं की जा सकेगी।

क्या सिल्क्यारा सुरंग की रोशनी में हम हिमालय को देखेंगे

सिल्क्यारा सुरंग और तपोवन समेत पूर्व के हादसों को लेकर हाईपावर कमेटी के मौजूदा विशेषज्ञ सदस्य हेमंत ध्यानी कहते हैं चाहे सड़कों का विकास हो, अंधाधुंध पर्यटन हो, जलविद्युत परियोजनाएं हों, रेल निर्माण हो, विकास के नाम पर हम जिस तरह पहाड़ों से छेड़छाड़ कर रहे हैं, हम हिमालय को कभी न ठीक होने वाला नुकसान पहुंचा रहे हैं।

41 श्रमिकों के लिए सिल्क्यारा सुरंग का अंधकार छंट गया है लेकिन क्या हिमालयी क्षेत्र में विकास परियोजनाओं की ओर देखने के हमारे नजरिये का अंधकार छटेगा, क्या हम उम्मीद करें कि इस तंत्र से भी अंधियारा छंटे और वे भी रोशनी देख सकें।

(लेखिका देहरादून स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं।  

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