अग्नि आलोक

इस जगद्गुरु देश के हम इतने पतित कब से और क्यों हो गए

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विष्णु नागर

मुझे तो शर्म आने लगी है कि हम कितने गये बीते लोग हैं कि हमारे बीच एक महापुरुष, ईश्वर का साक्षात अवतार विद्यमान है, द्युतिमान है, गतिमान है, असत्यमान है और हम उसे ईश्वर छोड़, महान आदमी तक मानने को तैयार नहीं !न हम उसे अशोक महान मानने को राजी हैं, न अकबर महान. न हम उसे महात्मा गांधी मानते हैं, न बाबासाहेब अंबेडकर. उसने सरदार पटेल की इतनी बड़ी प्रतिमा खड़ी करवाई मगर हा हंत, हम उसे सरदार पटेल तक मानने को तैयार नहीं, जबकि उसके भक्त उसे भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं !

इस जगद्गुरु देश के हम इतने पतित कब से और क्यों हो गए, इस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है ! इतिहास में यह बात एक दिन दर्ज होकर रहेगी कि वह कितना महान था और हम कितने पतित ! अगर कोई और इस बात को दर्ज नहीं करेगा तो मैं दर्ज करूंगा ! वह रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा कर रहा है तो मैं उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करूंगा. उसे इतिहास में उचित स्थान दिलाऊंगा ! यह उनकी नहीं, मेरी गारंटी है और मेरी गारंटी तो आप जानते ही हो, आपको क्या बताना !

मैं किसी महान आदमी के साथ इस तरह का अन्याय होते देख नहीं सकता. मैं उसे ईसामसीह की तरह कष्ट उठाते नहीं देख सकता. मैं हमेशा न्याय का पक्षधर रहा हूं. उसे न्याय दिलाकर ही रहूंगा. उस ईश्वरीय अवतार को इस धरती पर अपमानित नहीं होने दूंगा ! मैं भी मैं हूं ! मैं भी मैं-मैं करना खूब जानता हूं !

कोई और देश होता तो उस महापुरुष के साथ ऐसा अनाचार कभी नहीं हुआ होता. फौरन मान लिया जाता कि वह महान है, ईश्वर का दूत है, स्वयं भगवान है. वह इस धरती पर देश का उद्धार करने के लिए जन्मा है वरना स्वर्ग में उसे कौन-सी तकलीफ थी, जो यहां आता ?

न्यायसंगत तो यह होता कि उसे बिना चुनाव लड़े ही समारोहपूर्वक राजगद्दी सौंप दी जाती. ईश्वर के दूत, विष्णु के अवतार से चुनाव लड़ने के लिए कहना, उसका घोर अपमान है. वहां उसे मनाया जाता कि माननीय, आप हमारे लिए इस धरा पर पधारे हैं, हम आपको चुनाव लड़ने का कष्ट देकर पाप के भागीदार नहीं बन सकते ! आप कृपया जीवनभर इस पद को सुशोभित करें. अगर आपकी इच्छा किसी दिन ऊपर जाने की हो, देवताओं की पंक्ति में अपना स्थान फिर से बनाने की हो, तो आप अपने भरत को अपनी चरणपादुकाएं सौंप जाना. वहां ऊब जाओ तो यहां फिर से अवतार ले लेना. मगर समस्या यहां यह पैदा कर दी गई है कि यहां चरणपादुकावाद नहीं चलता ! बाबासाहेब और नेहरू जी जैसे लोग आमजनों को वोट डालने की आदत डाल गए हैं तो इस सिद्ध महापुरुष को भी यह भुगतना ही होगा !

दु:ख होता है कि इतनी महान शख्सियत को भी चुनाव का शिकार होना पड़ रहा है. उसे राममंदिर बनवाना पड़ा है और उसका उद्घाटन करना पड़ रहा है. इसके उद्घाटन की जब बारी आई है, रामलला में प्राण फूंकने का अवसर आया है तो इस पर अड़ंगे पर अड़ंगे डालनेवाले मैदान में कूद पड़े हैं. विपक्ष ही नहीं, शंकराचार्य भी उस अवतारी पुरुष के रास्ते में खड़े हो गए हैं. कह रहे हैं कि ये कौन होता है रामलला की मूर्ति में प्राण फूंकनेवाला ? मंदिर बनवाए ये महापुरुष और प्राण फूंके शंकराचार्य ? रामलला की ऊंगली पकड़ कर उन्हें मंदिर तक ले जाए, ये महापुरुष और श्रेय लूट ले जाएं ये ? सुनिए, वह इक्कीसवीं सदी का महापुरुष है और बेवकूफ नहीं है !

हम अगर इतने गये-गुजरे न होते तो इस महापुरुष को दिन-ब-दिन यह सिद्ध नहीं करना पड़ता कि वह कितना महान है ? उसका कीमती समय इन फालतू बातों में क्यों बर्बाद होता ? उसे जीते जी अपनी गैलरी क्यों बनवानी पड़ती ? अपने नाम पर स्टेडियम क्यों बनवाना पड़ता ? नमो ट्रेन क्यों चलवानी पड़ती ? यह क्यों बताना नहीं पड़ता कि मैं ही महान हूं, मैं ही, मैं ही. मैंने ही बनाया है राममंदिर. मैंने ही किया है विकास. मैं ही लाया हूं देश में विज्ञान, तकनालाजी. मैंने ही डिजिटल पेमेंट की तकनालाजी को लोकप्रिय बनाया है. मैं ही उज्जवला स्कीम लाया हूं. उसे आखिर इतना मैं-मैं क्यों करना पड़ता ? शेर होकर बकरी क्यों बनना पड़ता ?

मगर वीर तुम अड़े रहो. झूठ पर डटे रहो. काजू -पिस्ता चबाते रहो. हैल्थ-वैल्थ बनाते रहो. चुनाव दर चुनाव जीतते रहो. अंधभक्त बनाते रहो. मीडिया को गोदी में खिलाते रहो. राम-राम जपते रहो, पराया माल, अपना करते रहो. और फिर भी कारवां गुजर जाए तो गुबार देखते रहो.

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हमारी गोपट्टी से भिन्न है केरल. केरल में 90 वर्षीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत लेखक एम. टी. वासुदेवन नायर कुछ कहते हैं तो उसे मीडिया में प्रमुख जगह मिलती है जबकि उसी मंच पर उपस्थित मुख्यमंत्री के कथनों को एक पैरेग्राफ में निबटा दिया जाता है. क्या ऐसा उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश या हिमाचल में हो सकता है ? और क्या मुख्यमंत्री की उपस्थिति में कोई लेखक ऐसा कुछ कह भी सकता है, जिसका अर्थ यह निकाला जाए कि यह प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्री की भी परोक्ष आलोचना है ? क्या हमारे समाज में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त लेखक का भी ऐसा सम्मान है कि उसके कथन पर राजनीतिक बिरादरी के बड़े नेता भी हिल जाएं ? इस कथन की अपनी-अपनी व्याख्याएं करें ? बड़े लेखक इस पर प्रतिक्रिया दें ? अखबार इस खबर को पांच-छह कालम की जगह दें ?

अभी एम. टी. ने गुरुवार को कोझीकोड में एक साहित्यिक समारोह में कहा कि किसी एक मजबूत नेता के प्रति निष्ठा के बजाय पार्टी और विचारधारा को महत्व है, जबकि प्रवृत्ति इसके विपरीत है. इस मामले में उन्होंने केरल के पहले मुख्यमंत्री ई. एम. एस. नंबूदरीपाद को आदर्श बताया, जो राजनीतिक व्यक्तिवाद के विरुद्ध थे.

इसके बाद राजनीतिक विवाद भी शुरू हो गया. विपक्ष के नेता कहने लगे, यह मोदी के अलावा मुख्यमंत्री पिनराई विजयन की स्पष्ट आलोचना है, जिन पर राज्य में व्यक्तिवादी राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं. वामपंथियों ने कहा, ऐसा नहीं है. विजयन के मुख्यमंत्री बनने से पहले भी वह ऐसा कहते रहे हैं. किसी ने लेखक की आलोचना नहीं की, न उन्हें वामपंथ विरोधी बताकर धमकाया. इसे महत्वपूर्ण संकेत के रूप में लिया गया.

क्या ऐसा कोई दिन हमारे हिंदी प्रदेशों में आ सकता है, जब लेखक की बात को ध्यान से सुना जाए, उसके संकेत समझने की कोशिश की जाए ? मुख्यमंत्री-मंत्री के कथन से अधिक महत्व दिया जाए ? क्या हमारे अधिकतर लेखकों और हमारे मीडिया ने अपने को इस लायक छोड़ा है ? क्या ऐसी बात कहने पर राजनीतिक नेतृत्व उसे बख्श देगा और क्या इस खतरे को महसूस करते हुए भी लेखक लिखेगा-बोलेगा ? परिणाम की चिंता नहीं करेगा ?

ऐसा नहीं है कि भाजपा के सभी बड़े नेता ‘एंटायर पोलिटिकल साइंस’ में एम ए हैं.बहुतों की डिग्री असली है और बहुत ऊंची है. कुछ ने तो किसी प्रतिष्ठित विदेशी विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल की है मगर सबका यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वे संघी बौद्धिकता और कर्म से ऊपर उठते हुए न दिखें. ज्यादा पढ़े-लिखे होने का दंभ पालते हुए घटिया, ओछी बातें करने से खुद को बचाने की कोशिश न करें. औरों से-यहां तक कि अपने नेता से-बौद्धिक श्रेष्ठता में ऊंचे दिखने का कोई दूरस्थ संकेत तक न दें. असहमति का कोई भी इशारा भारी पड़ सकता है, चाहे कोई कितने ही ऊंचे पद पर हो. इसलिए भाजपा में सबका बौद्धिक और कामकाजी स्तर एक जैसा, एक माप का दिखता है.

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