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*अमृत काल में सिंघम न्याय*

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*(व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा)*

लगता है कि इन न्यायाधीश लोगों की सुई अमृत काल से पहले वाले काल पर ही अटकी हुई है। अमृत काल में भी पुराने वाला न्याय ही चलाना चाहते हैं। नये टैम को नये न्याय की जरूरत है, इस पहचानने और मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं। वर्ना बताइए, बंबई हाई कोर्ट के न्यायाधीश, गौतम पटेल साहब को ‘सिंघम’ न्याय से क्यों दिक्कत होनी चाहिए। ‘सिंघम’ न्याय फटाफट है। एकदम अमृत काल के माफिक। न वकील, न दलील, न अपील। और तो और, अदालत-वदालत का चक्कर भी नहीं। तारीख पर तारीख का सवाल ही नहीं। उधर गुनाहगार, इधर सिंघम, बीच में गोली। गोली अंदर, जुर्म खलास। खुशी-खुशी सब अपने-अपने घर वापस। पर पटेल साहब को इसमें भी प्राब्लम है। कह रहे हैं कि ‘सिंघम’ टाइप की फिल्मों का समाज पर बुरा असर पड़ रहा है। ऐसी फिल्मों से संदेश जा रहा है कि वर्दी वाले की बंदूक जो करती है, वही न्याय है। अदालत, वदालत सब बेकार हैं, बल्कि न्याय के दुश्मन हैं। बस वर्दी वाले की बंदूक को खुली छूट मिले, तो न्याय की गाड़ी चले। बंदूक से बदला हो तो हो, पर न्याय नहीं होता!

पटेल साहब को सिर्फ ‘सिंघम’ से प्राब्लम होती, तो समझ में आती थी। चलो ‘सिंघम’ टाइप से भी प्राब्लम होती, तब भी समझ में आती थी। पर इन्हें तो ‘सिंघम’ के हाथ की बंदूक से प्राब्लम है। यानी न्याय के लिए मुजरिम को उसके अंजाम तक पहुंचाना उतना जरूरी नहीं है, जितना जरूरी सिंघम की बंदूक पर पहरे बैठाना है। बेचारे सिंंघमों से गोलियों का हिसाब मांगता है, इनका न्याय। भाई आजादी के बाद सत्तर साल चल गया, तो चल गया ऐसा न्याय, पर मोदी जी के अमृतकाल में नहीं चलेगा। अब हिसाब सिंघम की गोलियों का नहीं, एन्काउंटर वाली लाशों का होगा। गोली चली है तो, ऑपरेशन परलोक न भी हो तो भी, कम से कम ऑपरेशन लंगड़ा की तो गिनती बढ़ाए। और सच पूछिए तो ‘सिंघम’ भी अब पुराने टैम की चीज हो चुका। अमृत काल में जितना एन्काउंटर न्याय है, उससे कम बुलडोजर न्याय नहीं है। जहां काम आवै बुलडोलर, क्यों करावें एन्काउंटर! आखिर, गोलियों का हिसाब तो नये न्याय में भी होता है। बुलडोजर में उस गिनती का भी झंझट नहीं है; न्याय बहुत ही सस्ता भी और परमानेंट भी।

हमें तो लगता है कि मोदी जी और कनाडा वाले ट्रूडो जी के बीच बनी-बनायी बात नये और पुराने न्याय के इसी झगड़े में बिगड़ती जा रही है। हम विश्व गुरु हैं, तब भी हमारा अमृतकाल वाला नया न्याय, कनाडा वाले आजमाना ही नहीं चाहते हैं –न एन्काउंटर न्याय और न बुलडोजर न्याय। पुरानी चाल से ही चिपके हुए हैं : ये बंदों की आजादी है, वो काम पुलिस का है, ये काम अदालतों का है। अरे सारे काम इन सब को ही करने हैं, तो सरकार किसलिए है? फिर कनाडा के सिख मिलिटेंटों की प्राब्लम हल हो, तो हो कैसे! असल में प्राब्लम सिख मिलिटेंटों की नहीं है। होंगे, जरूर कुछ सिख मिलिटेंट भी होंगे। मिलिटेंट होंगे, तो कुछ न कुछ गड़बड़ी भी करते ही होंगे। बड़ी नहीं, तो छोटी-मोटी गड़बड़ी तो जरूर करते होंगे। कनाडा सरकार की नजर टेढ़ी हो इतनी बड़ी तो नहीं, पर हजारों मील दूर हमारी सरकार की नजर टेढ़ी हो, ऐसी हरकतें तो जरूर करते होंगे। पर उनका इलाज हो तो कैसे? एन्काउंटर कनाडा वाले न खुद करने देंगे और न हमें करने देेंगे, ऊपर से बुलडोजर तक नहीं चलाएंगे। फिर भुगतो! विश्व गुरु के न्याय को फौलो करने से जो ना करेगा, बाद में शिकायत नहीं करे, उससे सिंघम ही निपटेगा।                                                                         

*(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

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