-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर
मध्यप्रदेश के देवास जिले के सोनकच्छ तहसील में स्थित है एक गांव को रहस्यमय व शापित नगरी माना जाता है, उसका नाम है गंधर्वपुरी। थोड़ी सी जनसंख्यावाली इस नगरी के विषय में रोचक किंबदंतियां हैं। इस गांव का नाम पहले चंपावती था। चंपावती के पुत्र गंधर्वसेन के नाम पर बाद में गंधर्वपुरी हो गया। आज भी इसका नाम गंधर्वपुरी है। लोगों के अनुसार यहां गंधर्वसेन, के शाप से पूरी गंधर्व नगरी पत्थर की हो गई थी। इन राजा विक्रमादित्य के पिता गंधर्वसेन से संबद्ध कई रोचक किस्से हैं। उनकां यहाँ उल्लेख करना उपयुक्त नहीं है। उल्लेखनीय तो यह है कि छोटे से इस गांव में थोड़ा सा भी खनन होता है तो यहाँ की वसुन्धरा प्राचीन मूर्तियां उगलने लगती है। यहाँ के स्थानीय राजकीय संग्रहालय में 300 से अधिक मूर्तियां व प्रसतर संग्रहीत हैं। इनमें से अधिकतर का समय 10वीं से 12शती ई. है। गंधर्वपुरी की विविध प्राचीन मूर्तियों पर हम अब तक सात आलेख लिख चुके हैं। प्रस्तुत आलेख यहा की पार्श्वनाथ प्रतिमाओं पर केन्द्रित है।
देश में चौबीस तीर्थंकरों में से यदि सर्वाधिक प्रतिमाएँ किन्ही तीर्थंकर की पाईं जाती हैं तो वे हैं तेईवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ। गन्धर्वपुरी में आश्चर्यजनक रूप से तीन सौ से अधिक प्राचीन प्रतिमाएँ प्रस्तर प्राप्त हुए हैं। अन्यत्र की भांति यहाँ पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं की अधिकता नहीं है। लेकिन जो हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हमें सर्वेक्षण में यहाँ तीर्थंकर पार्श्वनाथ की छह प्रतिमाएँ प्राप्त हुईं थीं, उनका परिचय इस प्रकार है।1. पार्श्वनाथ पंचतीर्थी-
व कायोत्सर्ग मुद्रा में बलुआ पाषाण में निर्मित पार्श्वनाथ प्रतिमा मनमोहक है। आसन सेमेन्ट के चबूतरे पर प्रतिमा स्थापित होने से इस प्रतिमा का पादपीठ अदृष्ट है इस कारण उसकी संरचना अज्ञात है। मूल प्रतिमा के चरणों के पीछे से सर्पकुण्डली ऊपर की ओर जाती हुई दर्शाई गई है। स्कंधों से ऊपर पूर्ण मस्तक पर सर्प के सात फणों का छत्र बना हुआ है। उसके भी ऊपर पारंपरिक त्रिछत्र है, तदोपरि मृदंगवादक उत्कीर्णित है। प्रतिमा की नाभि के नीचे उदर-त्रिवली अंकित है। वक्ष पर श्रीवत्स है, उष्णीष युक्त कुंचित केश हैं। दोनों पार्श्वों में चामरधारी स्वस्थान पर दर्शाये गये हैं। चामरधारियों के भी बाह्य पार्श्वों में द्विभंगासन में एक-एक छवि उत्कीर्णित है। बायीं ओर एक स्त्रीपात्र है जिसके दोनों हाथों में एक यष्टि जैसा उपकरण संभाले दर्शाया गया है जबकि दायीं ओर का पुरुष पात्र अंजलिबद्ध है। चामरधारियों के ऊपर के स्थान में दोनों ओर एक-एक पद्मासनस्थ लघु जिन प्रतिमा है, तदोपरि सपत्नीक माल्यधारी देव और उनसे भी ऊपर के स्थान अर्थात् सर्पफण के दोनों ओर के स्थान में एक-एक और पद्मासनस्थ लघु जिन प्रतिमा उत्कीर्णित है। इस तरह मूल पार्श्वतीर्थंकर प्रतिमा के परिकर में भी चार अतिरिक्त तीर्थंकर भी उत्कीर्णित हैं।2. चतुर्मूर्तिका पार्श्वनाथ जिन प्रतिमा-
गंधर्वपुरी के स्थानीय राजकीय संग्रहालय के विशाल मूर्तिसंग्रह के लिए केवल एक छोटा सा कक्ष है, जिसमें कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमाएँ परिचय-पट्टिका के साथ व्यवस्थित प्रदर्शित हैं। शेष खुले आकाश में रखीं गई हैं। इसी कक्ष में प्रस्तुत प्रतिमा प्रदर्शित है। इसकी परिचय पट्टिका पर ‘‘पार्श्वनाथ, लगभग 12वीं शती ई., गंधर्वपुरी (देवास) ’’ लिखा है। प्रतिमा की पंजीयन संख्या नहीं दी गई है। इसके पादपीठ में सिंहासन के विरुद्धाभिमुख दो सिंह उत्कीर्णित हैं, मध्य में धर्मचक्र है। इसके ऊपर वृत्ताकार चरणचौकी पर पद्मासनस्थ तीर्थंकर आसीन हैं। तीर्थंकर का दाहिने जानु खण्डित है। प्रतिमा के पृष्ठभाग से सर्पकुण्डली दोनों ओर दर्शाई गई है। उसी सर्प कुण्डली का उपरिम भाग सप्त-फणों में परिवर्तित हो गया प्रदर्शित है, जो तीर्थंकर के मस्तक पर आच्छादित है। दोनों पार्श्वों में पारंपरिक चॅवरवाहक हैं। उड्डीयमान माल्यधारी देव हाथों में पुष्पमाल लिए हुए दोनों ओर पारम्परिक रूप से उत्कीर्णित हैं, किन्तु ये एकल हैं। इनसे ऊपर गजलक्ष्मी के सुन्दर हाथी। हस्थ्यारोही पार्श्व से झुककर तीर्थंकर को निहारते हुए प्रदर्शित है। सर्पफणाटोप के ऊपर पारंपरिक त्रिछत्र, उसपर मृदंगवादक उत्कीर्णित है। वितान में सर्वोपरि मध्य में पद्मासनस्थ लघु जिन प्रतिमा और उसके दोनों ओर एक-एक लघुजिन प्रतिमा टंकित है, जिससे इन तीन लघुजिन को मिलाकर मुख्य मूर्ति सहित चार मूर्तियां हो जाने से यह चतुर्मूर्तिका प्रतिमा कही जा सकती है।3. पद्मासन पार्श्वजिन-
इस पद्मासनस्थ पार्श्वनाथ का आसन भी प्रतिमा के घुटनों तक चबूतरे में छिपा हुआ है। मूल प्रतिमा के पृष्ठभाग से बड़ी-बड़ी सर्पकुण्डली दोेनों ओर दर्शाई गई है। इसके मस्तक पर भी सर्प के सात फणों का आच्छादन है। दोनों पार्श्वों में पारंपरिक चॅवरवाहक हैं। सपत्नीक माल्यधारी देव दोनों ओर यथास्थान उत्कीर्णित हैं। इन देवों के हाथों में माला के स्थान पर सनाल अविकसित कमल जैसी कोई वस्तु है। सर्पफण के ऊपर पारंपरिक लघु त्रिछत्र है, तदोपरि मृदंगवादक उत्कीर्णित है। मृदंगवादक के दोनों ओर एक-एक नर्तकी नृत्यमग्न उत्कीर्णित है। इस वितान भाग में दोनों ओर एक-एक गजलक्ष्मी का गज अभिषेकातुर उत्कीर्णित है।4. पार्श्वतीर्थंकर त्रितीर्थी प्रतिमा-
बलुआ पाषाण में निर्मित पार्श्वतीर्थंकर की इस प्रतिमा का पादपीठ चबूतरे से आधा छिपा हुआ है। इसमें सिंहासन के दो सिंह विरुद्धाभिमुख उत्कीर्णित हैं, मध्य में धर्मचक्र है। इसके ऊपर वृत्ताकार चरणचौकी पर पद्मासनस्थ तीर्थंकर आसीन हैं। तीर्थंकर के दोनों जानु व दोनों कुहनी खण्डित हैं। मूल प्रतिमा के पृष्ठभाग से बड़ी-बड़ी सर्पकुण्डली दोनों ओर दर्शाई गई है। इस प्रतिमा के मस्तक पर भी सर्प के सात फणों का आच्छादन है। दोनों पार्श्वों में पारंपरिक चॅवरवाहक हैं। पत्नी सहित माल्यधारी देव मूननायक के मस्तक के दोनों ओर उड्डीयमान स्थिति में बैठे दर्शाये गये हैं। सर्पफण के ऊपर पारंपरिक सुंदर त्रिछत्र है, तदोपरि मृदंगवादक उत्कीर्णित है। मृदंगवादक के दोनों ओर एक-एक नर्तकी नृत्यमग्न उत्कीर्णित है। इस वितान भाग में दोनों ओर एक-एक गजलक्ष्मी का गज उत्कीर्णित हैं। गजों के बाह्य भाग में एक एक कायोत्सर्गस्थ लघु जिन उत्कीर्णित हैं, जिससे यह प्रतिमा त्रितीर्थी कही जा सकती है। इसमें विशेषता यह है कि गजलक्ष्मी के गज सम्मुखाभिमुख हैं, अर्थात् उनका सामने की ओर मुख है, अन्यथा पारंपरिक अंकन में उन्हें मूलनायक प्रतिमा के मस्तक की ओर अभिमुख सुण्ड में कलश लिये हुए या आरोहक के हाथों में कलश लिये हुए दर्शाया जाता है।5. पार्श्वतीर्थंकर प्रतिमा पंचम-
गंधर्वपुरी के स्थानीय राजकीय संग्रहालय के खुले परिसर में एक चहारदीबारी के सहारे रखी यह प्रतिमा किसी विशाल प्रतिमा के पादपीठ पर स्थापित है। इस प्रतिमा का स्वयं का भी पादपीठ है। इसके पादपीठ में सिंहासन के दो सिंह विरुद्धाभिमुख उत्कीर्णित हैं, मध्य में धर्मचक्र है। इसके ऊपर वृत्ताकार चरणचौकी पर पद्मासनस्थ तीर्थंकर आसीन हैं। तीर्थंकर के दोनों घुटने खण्डित हैं। प्रतिमा के पृष्ठभाग से सर्पकुण्डली दोनों ओर दर्शाई गई है। इसके मस्तक पर भी सर्प के सात फणों का आच्छादन है। दोनों पार्श्वों में पारंपरिक चॅवरवाहक हैं। उड्डीयमान माल्यधारी देव मस्तक के दोनों ओर पारम्परिक रूप से हैं, किन्तु ये सपत्नीक नहीं हैं, एकल हैं। वितान का अन्य भाग खण्डित होने से अष्पष्ट है, किन्तु त्रिछत्र, मृदंगवादक, नर्तकियां और गजलक्ष्मी अवश्य ही उत्कीर्णित रहे होंगे, क्योंकि उनके कुछ कुछ अंश अवशिष्ट हैं।6. अधिष्ठानगत पार्श्व तीर्थंकर-
एक शिलाफलक में नीचे मुख्य पार्श्वतीर्थंकर प्रतिमा कायोत्सर्गस्थ है, उसके ऊपर-ऊपर दो देवकुलिकाओं में लघुजिन पद्मासनस्थ हैं। पद्मासनस्थ लघुजिन के समानान्तर कुछ पीछे को एक-एक कायोत्सर्गस्थ लघु जिन हैं। यह जिनालय का अधिष्ठानतगत बाह्य कोने का प्रस्तर जान पड़ता है। यह शिलाफलक संग्रहालय परिसर में कच्ची जमीन में रखा होने से नीचे का भाग मिट्टी में है, इस कारण पादपीठ से चरणों तक का भाग अदृष्ट है। बाई ओर का चॅवरधारी देव भग्न हैं, दायीं ओर का कुछ अवशिष्ट है। प्रतिमा की भुजाओं से नीचे का भाग खण्डित है। सर्पकुण्डली के कुछ अंश देख जा सकते हैं। मस्तक पर सप्तफणों का छत्र है। इस प्रतिमा का पारम्परिक छत्रत्रय नहीं है, अन्य परिकर भी नहीं है। इस शिलाफलक मुख्य सहित में कुल पाँच प्रतिमाएँ उत्कीर्णित हैं।
इस तरह गंधर्वपुरी की ये तीर्थंकर पार्श्वजिन प्रतिमाएँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। इनका समय 10वीं से 12वीं शती ई. निर्धारति किया गया है।
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
22/2, रामगंज, जिंसी, इन्दौर
मो. 9826091247, mkjainmanuj@yahoo.com