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ग्रहों के छह प्रकार के बल

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       पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’

स्थानबल, दिग्बल, कालबल, नैसर्गिकबल, चेष्टाबल और दृग्बल—ये छह प्रकार के बल हैं। फलित ज्ञान के लिए इन बलों को जान लेना आवश्यक है।

  1. स्थानबल :
    जो ग्रह उच्च, स्वगृही, मित्रगृही, मूल—त्रिकोणस्थ, स्व—नवांशस्थ अथवा द्रेष्काणस्थ होता है, वह स्थानबली कहलाता है। चन्द्रमा शुक्र समराशि में और अन्य ग्रह विषमराशि में बली होते हैं।
  2. दिग्बल :
    बुध और गुरु लग्न में रहने से, शुक्र और चन्द्रमा चतुर्थ में रहने से, शनि सप्तम में रहने से एवं सूर्य और मंगल दशम स्थान में रहने से दिग्बली होते हैं। यत: लग्न पूर्व, दशम दक्षिण, सप्तम पश्चिम और चतुर्थ भाव उत्तर दिशा में होते हैं। इसी कारण उन स्थानों में ग्रहों का रहना दिग्बल कहलाता है।
  3. कालबल :
    रात में जन्म होने पर चन्द्र, शनि और मंगल व दिन में जन्म होने पर सूर्य, बुध और शुक्र कालबली होते हैं। मतान्तर से बुध को सर्वदा कालबली माना जाता है।
  4. नैसर्गिकबल :
    शनि, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्र, व सूर्य उत्तरोत्तर बली होते हैं।
  5. चेष्टाबल :
    मकर से मिथुन पर्यन्त किसी राशि में रहने से सूर्य और चन्द्रमा तथा मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि चन्द्रमा के साथ रहने से चेष्टाबली होते हैं।
  6. दृग्बल :
    शुभ ग्रहों से दृष्ट ग्रह दृग्बली होते हैं।
    बलवान् ग्रह अपने स्वभाव के अनुसार जिस भाव में रहता है, उस भाव का फल देता है।

ग्रहों का स्थानबल :
सूर्य :
अपने उच्चराशि, द्रेष्काण, होरा, रविवार, नवांश, उत्तरायण, मध्याह्न, राशि का प्रथम पहर, मित्र के नवांश एवं दशम भाव में बली होता है।
चन्द्रमा :
कर्कराशि, वृषराशि, दिन—द्रेष्काल, निजी—होरा, स्वनवांश, राशि के अन्त में शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट, रात्रि, चतुर्थ भाव और दक्षिणायन में बली होता है।
मंगल :
मंगलवार, स्वनवांश, स्व—द्रेष्काण, मीन, वृश्चिक, कुम्भ, मकर, मेष राशि की रात्रि, वक्री, दक्षिण दिशा में राशि की आदि में बली होता है। दशम भाव में कर्क राशि में रहने पर भी बली माना जाता है।
बुध :
कन्या और मिथुन राशि, बुधवार, अपने वर्ग, धनु राशि, रविवार के अतिरिक्त अन्य दिन एवं उत्तरायण में बली होता है। यदि राशि के मध्य का होकर लग्न में स्थित हो तो सदा यश और बल की वृद्धि करता है।
बृहस्पति :
मीन, वृश्चिक, धन और कर्क राशि, स्ववर्ग, गुरुवार, मध्यदिन, उत्तरायण, राशि का मध्य एवं कुम्भ में बली होता है। नीचस्थ होने पर भी लग्न, चतुर्थ और दशम भाव में स्थित होने पर धन, यश और सुख प्रदान करता है।
शुक्र :
उच्चराशि (मीन) स्ववर्ग, शुक्रवार, राशि का मध्य, षष्ठ, द्वादश, तृतीय और चतुर्थ स्थान में स्थित, अपराह्न, चन्द्रमा के साथ एवं वक्री, शुक्र बली माना जाता है।
शनि :
तुला, मकर और कुम्भराशि, सप्तम भाव, दक्षिणायन, स्वद्रेष्काण, शनिवार, अपनी दशा, भुक्ति एवं राशि के अन्त में रहने पर बली माना जाता है। कृष्णपक्ष में वक्री हो तो समस्त राशि में बलवान् होता है।
राहु :
मेष, वृश्चिक, कुम्भ, कन्या, वृष और कर्क राशि एवं दशम स्थान में बलवान होता है।
केतु :
मीन, वृष और धनु राशि एवं उत्पात में केतु बली होता है।
सूर्य के साथ चन्द्रमा, लग्न से द्वितीय भाव में मंगल, चतुर्थ भाव में बुध, पंचम में बृहस्पति, षष्ठ में शुक्र एवं सप्तम में शनि निष्फल माना जाता है।

ग्रहों की दृष्टि :
सभी ग्रह अपने स्थान से तीसरे और दसवें भाव को एक चरण दृष्टि से, पांचवें और नवें भाव को दो चरण दृष्टि से, चौथे और आठवें भाव को तीन चरण दृष्टि से एवं सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं किन्तु मंगल चौथे और आठवें भाव को, गुरु पाँचवें और नवें भाव को एवं शनि तीसरे और दसवें भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखते हैं।

ग्रहों के उच्च और मूलत्रिकोण का विचार :
सूर्य का मेष के १०° अंश पर, चन्द्रमा का वृष के ३° अंश पर, मंगल का मकर के २८° अंश पर, बुध का कन्या के १५° अंश पर, बृहस्पति का कर्क के ५° अंश पर, शुक्र का मीन के २७° अंश पर और शनि का तुला के २०° अंश पर परमोच्च होता है। प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से सप्तम राशि में इन्हीं अंशों पर नीच का होता है। राहु वृष राशि में उच्च और वृश्चिक राशि में नीच एवं केतु वृश्चिक राशि में उच्च और वृष राशि में नीच का होता है।
उच्चग्रह की अपेक्षा मूलत्रिकोण में ग्रहों का प्रभाव कम पड़ता है, लेकिन स्वक्षेत्री—अपनी राशि में रहने की अपेक्षा मूलत्रिकोण बली होता है। पहले लिखा गया है कि सूर्य सिंह में स्वक्षेत्री हैं—सिंह का स्वामी है, परन्तु सिह के १° अंश से २०° अंश तक सूर्य का मूल त्रिकोण और २१° से ३०° अंश तक स्वक्षेत्र कहलाता है। जैसे किसी का जन्मकालीन सूर्य सिह के १५° वें अंश पर है तो यह मूलत्रिकोण का कहलायेगा, यदि यही सूर्य २२°वें अंश पर है तो स्वक्षेत्री कहलाता है। चन्द्रमा का वृषराशि के ३ अंश तक परमोच्च है और इसी राशि के ४° अंश से ३०° अंश तक मूलत्रिकोण है। मंगल का मेष के १८° अंश तक मूलत्रिकोण है, और इससे आगे स्वक्षेत्र है।
बुध का कन्या के १५° अंश तक उच्च १६° अंश में २०° अंश तक मूल त्रिकोण और २१° से ३०° अंश तक स्वक्षेत्र है। गुरु का धनराशि के १° अंश से १३° अंश तक मूलत्रिकोण और १४° से ३०° अंश तक स्वगृह होता है। शुक्र का तुला के १° अंश से १०° अंश तक मूलत्रिकोण और ११° से ३०° अंश तक स्वक्षेत्र है।
शनि का कुम्भ के १ अंश से २०° अंश तक मूलत्रिकोण और २१° से ३०° अंश तक स्वक्षेत्र है। राहु का वृष में उच्च, मेष में स्वगृह और कर्क में मूलत्रिकोण है।

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