आस्तीन के सांप बन न डसा करो
अपने हो तो अपने बन ही रहा करो।
किसी वन के विषधर की तरह
दांतों में विष छुपा न रखा करो
जैसे हो वैसे ही बन रहा करो।
सभ्यता का मोल नहीं मिलेगा
तुम्हें असभ्यता ढोकर कर कभी।
होना है सभ्य तो सभ्यता ओढ़
तुम ज़रा सा चला करो।
धोना है ह्रदय में पड़ी कालखि को
तो मन को मंदिर बन रखा करो।
न मिलेगा मुकाम तुम्हें कभी
आस्तीन के सांप बन कर।
वन के मृग की तरह दहाड़ कर
अपने मुकाम की ओर ज़रा चला करो।
डॉ.राजीव डोगरा
(युवा कवि व लेखक)
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कांगड़ा हिमाचल प्रदेश
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