राजेश बादल
राजकुमार केसवानी अब नहीं हैं। अब भी भरोसा नहीं हो रहा। लड़ाकू तो थे ही। इसी वजह से पक्क़ा यक़ीन था कि राजकुमार जी यह जंग भी जीतेंगे। लगातार हमने अनेक लड़ाइयां साथ लड़ीं और जीते। लेकिन यह मोर्चा आपने अकेले खोल लिया। बिना किसी को बताए। अकेले क्यों आप जीतना चाहते थे भाई ? उफ़ ! मैंने अपना चालीस बरस पुराना दोस्त और साथी खो दिया और मैं अकेला देखता रहा।
एक सप्ताह से बेटे रौनक़ से बात हो रही थी। कल रात दस बजकर बीस मिनट पर भी उसका सन्देश आया – अंकल ! पापा के लिए दुआ कीजिए। मैंने उसे सन्देश भेजा था -बेटे ! जल्द ही वे ठीक होकर घर आएंगे। मैं उनको जानता हूं वे हार मानने वाले नहीं हैं। कौन जानता था कि संसार की सबसे क्रूर और हत्यारी यूनियन कार्बाइड को धूल चटाने वाला यह जांबाज़ योद्धा पत्रकार एक अदृश्य दुश्मन से पराजित हो जाएगा।
राजकुमार संग यादें
यादों की फ़िल्म चल रही है। इंदौर में 1983 का दिसंबर महीना था। आप इंदौर आए थे। वसंत पोतदार के घर रात भर हम लोग बतियाते रहे। सुबह कब हुई पता ही नहीं चला। यह भी नहीं लगा कि वह हमारी पहली मुलाक़ात थी। उन दिनों भोपाल के यूनियन कार्बाइड के ज़हरीले तंत्र का पहली बार इतने विस्तार से पता चला था। वसंत दा ने कहा कि सुरेंद्र को रिपोर्ट भेजो। रविवार में ज़रूर छपेगी।
राजकुमार ने मुस्कुराते हुए कहा – चली गई। रविवार को नहीं जनसत्ता को। महीने -दो महीने बाद ही हमने पाया कि जनसत्ता में पूरे आठ कॉलम में क़रीब क़रीब आधे पन्ने पर वह दिल दहलाने वाली रिपोर्ट छपी थी। संभवतया शीर्षक था – भोपाल बारूद के ढेर पर। ख़लबली मच गई। सरकार हिल गई और धीरे-धीरे सब शांत हो गया।
राजकुमार अपने साप्ताहिक के ज़रिए भी कार्बाइड के कुचक्र का पर्दाफ़ाश करते रहे। हर अंक के बाद मैं उन्हें फ़ोन करता। बधाई देता तो कहते -राजेश ! यह मुद्दा बधाई का नहीं है। यह बेशर्म सरकार कुछ नहीं सुन रही। एक खाद कारख़ाना ज़हरीली गैस का ज़खीरा क्यों एकत्रित कर रहा है? किसी के पास इसका उत्तर नहीं था। यह ज़रूर जानते थे कि यूनियन कार्बाइड की ओर से भोपाल के तमाम बड़े पत्रकारों को हर महीने पैकेट पहुंचते थे। कोई कुछ नहीं बोला। अगले साल तीन दिसंबर की रात जब गैस रिसी तो मौत ने अपना तांडव दिखाया। हज़ारों लोग कीड़े मकोड़ों की तरह मरे। भोपाल भुतहा हो गया था और राजकुमार – मेरा दोस्त अकेला हुक़ूमत को ललकार रहा था। उस एक रात के बाद वह संसार भर में एक नायक पत्रकार की तरह प्रतिष्ठित हो गया था। लेकिन उसे ग़म था हज़ारों निर्दोष मौतों का।
राजकुमार अपने साप्ताहिक के ज़रिए भी कार्बाइड के कुचक्र का पर्दाफ़ाश करते रहे। – फोटो : Amar Ujala
इसके बाद हमने तय किया था कि जिन जिन प्रदेशों में ज़हरीले रसायनों के कारख़ाने हैं और आबादी के लिए ख़तरा बने हुए हैं ,वहाँ के लोगों को जागृत करेंगे। इसकी शुरुआत महाराष्ट्र से हमने की थी।
सबसे पहले हम कार से जालना गए थे। वहां राजकुमार का एक दबंग व्याख्यान हुआ। एक पुछल्ला व्याख्यान मेरा भी हुआ था। उसके बाद वहां लोग ग़ुस्से से उबलने लगे थे। हम अजंता एलोरा घूमते हुए लौटे थे। लेकिन मुझे याद है कि राजकुमार जी लम्बे समय तक सामान्य नहीं हो पाए थे। उसके बाद हम लोग कुछ और व्याख्यानों में साथ जाते रहे। फिर मैं नव भारत टाइम्स ज्वाइन करने जयपुर चला गया। वहां भी हम लोगों ने ज़हरीले रसायनों वाले कारख़ानों के ख़िलाफ़ कुछ कार्यक्रम किए।
राजुकमार संग यात्रा
मैं 1991 में भोपाल आया तो टीवी रिपोर्टिंग शुरू की। परख और फिर आजतक के ज़रिए। एकाध साल बाद राजकुमार जी भी टेलिविज़न की पारी खेलने आ गए। वे एनडीटीवी के उन लोगों में से थे ,जो अपनी शर्तों पर संस्थान में काम करते थे। पहले स्टार न्यूज़ और फिर एनडीटीवी चैनल में उनकी तूती बोलती थी। मैं आजतक का संपादक था। वैसे दोनों प्रतिद्वंद्वी चैनल थे लेकिन हमारे बीच कभी उस कारण मतभेद नहीं पनपे। साथ-साथ सैकड़ों कवरेज किए होंगे। अलबत्ता एक्सक्लूसिव ख़बरों की भनक तक नहीं लगने देते थे। जब वह ख़बर प्रसारित होने लगती तो एक दूसरे को फ़ोन करते।
कहते- गुरु ! छक्का -और हम ज़ोरदार ठहाका लगाते। कितने बार हम लोगों ने मुख्यमंत्री और मंत्रियों से रार ठानी ,लेकिन मूल्यों की पत्रकारिता नहीं छोड़ी। हमारी जोड़ी से अफ़सर और राजनेता हिले रहते थे। चाहे वे किसी भी पार्टी के हों। वह यक़ीनन टीवी पत्रकारिता का स्वर्णकाल था।
एक बार तो विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी से इतने ग़ुस्से में संवाद हुआ कि सन्नाटा छा गया। कई दिन उनकी ख़बरों का बायकॉट हुआ। बाद में मैंने मध्यस्थता की और श्रीनिवास तिवारी ने चाय पर बुलाकर ख़ेद प्रकट किया। पिछले सोलह साल से मुझे दोबारा दिल्ली ने अपनाया ,लेकिन राजकुमार से रिश्तों में वही ख़ुलूस और गर्मजोशी थी। दो तीन बार दिल्ली आए तो एक शाम हम साथ बिताते थे। इण्डिया इंटरनेशनल सेंटर हमारा अड्डा था।
सिनेमा के तो वे एनसाइकिलोपीडिया थे। इतने क़िस्से और इतनी दास्तानें कि पूछो मत। बता दूं कि पत्रकारिता में आने से पहले वे फ़िल्म उद्योग से ही जुड़े थे।वितरण में हाथ आज़माए थे। दैनिक भास्कर में उनका साप्ताहिक कॉलम इतना लोकप्रिय था कि पूछिए मत। मेरे जैसे हज़ारों लोग उनके इस कॉलम के मुरीद थे। मेरे पास बरसों से उनके इस स्तंभ की कतरनें सुरक्षित हैं। यही नहीं पुराने फ़िल्म संगीत और सुगम संगीत का तो उनके पास ज़खीरा था। जब भी हम साथ होते तो केवल फ़िल्म और संगीत की बात होती। शाम को उनके ग्रामोफ़ोन की सुई घूमने लगती और एक के बाद एक दुर्लभ से दुर्लभ रिकॉर्डिंग हमारे बीच होती।
उस दरम्यान कोई भी फ़ोन आ जाए – कोई नहीं उठाता था। हमारे बीच शर्त ही यही थी कि जब हम साथ होंगे तो कोई फ़ोन रिसीव नहीं करेगा। चाहे वह किसी का भी हो। हमने ईमानदारी से इसे निभाया। याद आता है कि मेरे पास मास्टर मदन की तीन ग़ज़लें थीं। लेकिन एक शाम उन्होंने बताया कि तीन नहीं मास्टर मदन की आठ या नौ ग़ज़लें हैं। सभी उनके ख़ज़ाने में थीं। फिर क्या था। मैनें मांगना शुरू कर दिया और वे टालते रहे। पूछता तो मुस्कुरा देते।
महीनों बीत गए। अचानक एक दिन उनका फ़ोन आया। बोले ,शाम को क्या कर रहे हो। मैंने कहा-कोई ख़ास नहीं। बोले साथ खाना खाएंगे।सपरिवार। शाम को हम मिले तो एक नई ऑडियो कैसेट उनके हाथ में थी। बोले ,” संभालो इसे। तुम्हारी अमानत। मास्टर मदन की सारी ग़ज़लें हैं।
दरअसल उनके ग्रामोफ़ोन में कुछ समस्या थी। इस कारण ट्रांसफर नहीं हो पा रही थीं। अब उनके पास मोहम्मद रफ़ी की कुछ बेहद दुर्लभ रिकॉर्डिंग थीं। तय हुआ था कि अगली बार जब ख़ाना खाएंगे और रफ़ी की रिकॉर्डिंग देंगे। एक बार उन्होंने मुझे लता मंगेशकर के पिता दीनानाथ मंगेशकर के गायन की दुर्लभ रिकॉर्डिंग दी। लता मंगेशकर का पहला गीत भी मैंने उनसे हासिल किया था।
मंजुल प्रकाशन से उनकी एक नायाब पुस्तक -दास्तान ए मुग़ले आज़म प्रकाशित हुई थी। – फोटो : Social Media
एक नायाब पुस्तक -दास्तान ए मुग़ले आज़म
बीते दिनों मंजुल प्रकाशन से उनकी एक नायाब पुस्तक -दास्तान ए मुग़ले आज़म प्रकाशित हुई थी। किताब क्या थी – कलम से निकली फ़िल्म थी। मैंने उन्हें फ़ोन करके बधाई दी तो बोले -ऐसे नहीं लूंगा। एक शाम का वादा करो। फिर हमने मुग़ल ए आज़म के नाम एक शाम बिताई। क्या अद्भुत और बेमिसाल किताब है। ख़ास बात यह कि इसकी डिज़ाइन में उन्होंने ख़ुद पूरी दिलचस्पी ली थी। कितने क़िस्से बताऊं। अब वे नहीं हैं तो सब एक एक कर याद आ रहे हैं।
राजकुमार भाई। क्या कहूं। इतना भयावह दौर है। अब तो सब जा रहे हैं। क्या छोटे क्या बड़े और क्या बराबरी वाले। किससे शिक़ायत करूं। लेकिन तुम पर भरोसा था क्योंकि तुम जैसे लड़ाकू और ग़ुस्सैल इंसान से तो मौत भी घबराती रही होगी। तुम्हारा ग़ुस्सा और मिजाज़ – सब उससे कांपते थे। लेकिन अकेले में हम ठहाके लगाते थे।
वे कहते थे – राजेश ! यह ग़ुस्सा ज़रूरी है। न करूं तो यह दुनिया खा जाएगी। मुझे जो करना है ,वही करुंगा। बात भी सही थी। संसार की कोई ताक़त नहीं थी, जो उनसे मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ काम करा लेती। कुछ-कुछ मिजाज़ अपना भी वैसा ही था। इसलिए चालीस बरस निभ गई।
अब कौन मुझे दुर्लभ रिकॉर्डिंग देगा? किसका कॉलम हर सप्ताह काट कर रखूंगा? किसके साथ अपनी शाम बिताऊंगा ? मेरे तो वैसे भी दोस्त और साथी कम ही हैं। पिछले सप्ताह बचपन के साथी शिव अनुराग पटेरिया गए। इस सप्ताह राजकुमार जी। क्या संयोग है कि दोनों आमने-सामने ही रहते थे।
राजकुमार केसवानी जी। हमें अफ़सोस है कि जीते जी हम आपकी सेवाओं का सम्मान नहीं कर पाए। वैसे भी हम हिन्दुस्तानी किसी के जीते जी सम्मान कहां करते हैं ? उसके मरने के बाद उसके गीत गाते फिरते हैं। हम कृतघ्न हैं। हमें माफ़ कीजिए भाई राजकुमार।