अग्नि आलोक

…….तो इस साल क्या खास हुआ?

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यशवंत व्यास

तितलियों के प्रेम में पड़कर उनके पीछे भागना एक बात है और उन्हें मारकर अपनी किताब के पन्नों में रख लेना दूसरी। मरी हुई तितलियां अपने रंगों से कभी नहीं खेलतीं, उनके कण जरूर जिंदगी के पन्नों पर चिपके पड़े रह जाते हैं। ये कण अब खूब चमक रहे हैं।

साधारण चीजों को जटिल बना देना आम बात है, जटिल को सरल बना देना कला है। वाइल्ड ने ही कहा है, हमारे तमाम आधुनिक कैलेंडर हमारी जिंदगी की खूबसूरत सादगी को भंग कर देते हैं – यह याद दिलाकर कि हर दिन जो गुजरता है, वो किसी बेहद बेस्वाद वाकये की ‘एनीवर्सरी’ है।

जब साल जाने लगता है तो आप अचानक या तो भावुक हो उठते हैं या चिंतित। अलबत्ता लोगों में यह बताने का चलन है कि इस साल में जो न हुआ आते साल में होना तय है। कुछ लोग भय और आशंकाओं के मैन्यू तैयार करते हैं गोया यही भविष्य के रेस्टोरेंट में मिलने वाला है। कई तो उसमें से चुनाव भी कर लेते हैं कि कौन सी कम तकलीफदेह ‘डिश’ ज्यादा मुफीद होगी। मजा यह है कि रेस्टोरेंट भी उन्हीं का, शेफ भी वही और ग्राहक भी वही। यह अपने आप में बड़ी मुसीबत है कि आप समाधि की इस स्थिति में पहुंच जाएं – जहां आप ही बनाएं, आप ही खाएं, आप ही बिल चुकाएं और आप ही बजट के घाटे पर अर्थशास्त्रियों को ज्ञान भी दें।

मगर लोग हैं कि हर बार इसी मुसीबत को मुहब्बत कर बैठते हैं। इसका फायदा ‘सीजन के सौदागर’ उठाते हैं। यह साल ऐसे सौदागरों की चांदी का साल था। आप जानते हैं – सीजन के सौदागर का कोई एक धंधा नहीं होता। जिस मौसम में जिसकी मांग होती है, वही चीज खड़ी कर देते हैं। कंस के दिनों में कंस की, कृष्ण के दिनों में कृष्ण की। यहां तक कि स्कूलों के वार्षिक उत्सव के दिनों में फैंसी ड्रेसों के किराए का धंधा भी चला लेते हैं। अगर कत्ल होने लगें तो वे चाकू बेचना शुरू कर दें, शांति में मुनाफा ज्यादा हो तो कबूतर बेचने का बोर्ड लगा दें।

पिछले साल जाते-जाते हमने दो शब्दों पर बात की थी, जो उस साल के सबसे ज्यादा प्रतीकात्मक शब्द बन गए थे – गैस लाइटिंग और मून लाइटिंग। पहले का अर्थ था कि किसी को गलत न होते हुए भी उसे गलत होने का अहसास दिला देने की चालाकी, और दूसरे का अर्थ था – पूरी तनख्वाह एक जगह लेकर गुपचुप दूसरी जगह से भी कमाई पीट लेना। दोनों में बेईमानी और बेईमानी की स्वाभाविक नैतिक जरूरत पर पर्याप्त कागज रंगे गए थे। अब बात कुछ आगे बढ़ गई है। इस साल ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने साल का शब्द घोषित किया है – रिज़ (RIZZ)। ये करिज्मा (Charisma) या करिश्मा का संक्षिप्त रूप है। सूची में दूसरे नंबर पर आया है – प्रॉम्प्ट (Prompt)। इसका मतलब है एआई उर्फ आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस प्रोग्राम के निर्देश। तीसरा इन सबको बराबर कर देता है – सिचुएशनशिप (Situationship)। ये सिचुएशन (Situation) और रिलेशनशिप (Reletionship) का जोड़ है।

अहा! सीजन के सौदागर अति प्रसन्न हैं। यह परिस्थिति के अनुसार रिश्ते बना लेने का प्रतिज्ञाविहीन समय है जब आप अपने ‘रिज़’ का इस्तेमाल किसी लूट के लिए कर लें और ‘एआई’ को प्रॉम्प्ट दे दें कि चलो अब एक नया चमत्कारिक धोखा खड़ा करते हैं।

वेबस्टर डिक्शनरी में इसीलिए इस साल दो दूसरे शब्द ‘ऑथेन्टिक’ (प्रामाणिक) और ‘डीप फेक’ टॉप पर हैं। जब सबसे ज्यादा ‘डीप फेक’ यानी असली लोगों के झूठे वीडियो बनने लगें तभी हमें प्रामाणिकता की प्यास भी उतनी ही शिद्दत से सताने लगती है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारी चिंताएं बढ़ चली हैं और प्रामाणिकता की पवित्रता को हम ज्यादा समर्पित होते चले जा रहे हैं।
सीजन के सौदागर हमेशा आपकी चिंता और आपकी प्यास दोनों को समझते आए हैं।

तो इस साल क्या खास हुआ?
ध्यान से देखिए इस साल कुछ ज्यादा ही खास हुआ। पहले सीजन के सौदागर मांग के हिसाब से दुकान का माल बदल दिया करते थे। कत्ल का सीजन तो चाकू और शांत सीजन तो कबूतर। अब वे एक ही दुकान में दो काउंटर बना कर दोनों एक साथ बेचने लगे हैं। और तो और, पड़ोस में ही एक ‘बहस-बार’ भी चलाते हैं जहां पहले दोनों काउंटर के दोनों के जियाले एक-दूसरे के खिलाफ बोलते हैं। इस तरह से एक सीजन में तीन सीजन की कमाई खड़ी होती है और निरपेक्षता का डिविडेंड अलग से मिल जाता है।

इंस्टाग्राम-यूट्यूब इकनॉमी में सच और झूठ दोनों कमाते हैं। देखने वाला भी, दिखाने वाला भी! दोनों एक ही कंपनी के राजा चलाते हैं, इसलिए लाभ एक ही जेब में जाता है। तभी तो आतंकी संगठन भी अपने नाम में ‘पीस’, ‘पॉपुलर’ और ‘सर्वजन’ जैसे शब्द डालते हैं या भले लोग अपनी भलाई के विज्ञापन के लिए सोशल मीडिया मैनेजरों की फौज पर कुर्बान हुए जाते हैं। इसीलिए संदीप वांगा ने जब अपनी कुख्यात फिल्म एनीमल के खिलाफ टिप्पणियां पढ़ीं तो कहा, ‘ये दस-पंद्रह जोकर हैं जो मेरे काम को मर्दवादी, स्त्रीद्वेषी कह रहे हैं। अरे, मेरे प्रोडक्शन हाउस का नाम ही देखिए – ‘भद्रकाली’ है।’
तो, दरअसल, ये साल एनीमल का साल है। इसके बॉक्स ऑफिस से पता चलता है कि इन दिनों समाज का सीजन कौनसा है? बॉक्स ऑफिस नैतिकता नहीं जानता, वह नोट गिनता है। तितलियों के प्रेम में पड़कर उनके पीछे भागना एक बात है और उन्हें मारकर अपनी किताब के पन्नों में रख लेना दूसरी। मरी हुई तितलियां अपने रंगों से कभी नहीं खेलतीं, उनके कण जरूर जिंदगी के पन्नों पर चिपके पड़े रह जाते हैं। ये कण अब खूब चमक रहे हैं।

एनीमल, अंतत: उसी डर का विस्तार है जिसमें एक पागल, प्रेम के नाम पर दूसरे की पत्नी का पीछा करता है और पब्लिक इस अपराध में शामिल होकर तालियां बजाती हैं। खलनायक होते हुए भी जो नायक बना दिया गया था – वह आहिस्ता-आहिस्ता अपने औचित्य को सिद्ध करता हुआ डर के ‘राहुल’ से एनीमल के ‘रणविजय’ में तब्दील हो गया है। अब उसके पास कोई दबी-छुपी नैतिक सफाई या संकोच नहीं है। अर्जुन रेड्डी या कबीर सिंह से प्रेरित मर्दों की विकट परंपरा को संदीप वांगा ने जब एनीमल में लाने का ऐलान किया था तभी कह दिया था – मेरी अगली फिल्म और ज्यादा भयंकर होने वाली है। अब जबकि फिल्म कई करोड़ कूट चुकी है उनके अक्स में पूरे साल की मरी हुई तितली दिखाई देती है।

टेरेंटिनो जैसे ख्यात फिल्मकारों के उदाहरण से हिंसा के अतिरेक को क्राफ्ट, टेक्नीक तथा सिनेमाई कला के नजरिए से देखने की राय दी जा रही है। जबकि यथार्थ का प्रस्तुतीकरण और विचार का प्रमोशन दो भिन्न चीजें हैं और एनीमल दूसरे हिस्से में अपना दावा दर्ज कराती है। वह स्त्रियों से घृणा, धोखे को मूल्य और उद्देश्यहीन हिंसा के क्रम में लाशें बिछाने को मर्दानगी की निर्द्वंद्व स्वीकृति और मुहर देती है। शोभा डे, खुद एक विकट एलीट कही जाती रही हैं पर उनकी टिप्पणी है, एनीमल एक जानवर ने जानवरों के लिए बनाई है जो खुद जानवरों के नाम को बदनाम कर रहे हैं क्योंकि जानवर भी ऐसा नहीं करते।

हमारे पाठकों को शायद इसी बहाने इस साल मर्दों की अल्फा, बीटा, ओमेगा, गामा, सिग्मा या डेल्टा मेल प्रजातियों का भी पता चला होगा। ‘अल्फा मेल’ को यूं समझिए जैसे भेड़ियों  के झुंड में सबका ‘दादा’। हर चीज अपने नियंत्रण में रखने वाला भेड़िया जो चाहे जिस मादा को चुन सकता है, चाहे जो अपने लिए ले सकता है, पहला हक उसी का है, उसके दायरे में कोई फटक नहीं सकता। लेकिन, उसकी शक्ति में झुंड की सुरक्षा शामिल है। वह लीडर है, वीर है, वह जो करता है, सही है। गामा झगड़े मोल नहीं लेता, ओमेगा समाज की परवाह नहीं करता, डेल्टा काम से काम रखता है, सिग्मा चतुर है और हर चीज हिसाब देखकर तय करता है। अल्फा मेल एक किस्म की स्वीकृति है और तू झूठी, मैं मक्कार के दौर में एक धुआंधार दावा है। यही वो चीज है जो हमें आईना दिखाती है कि हमने एनीमल को करोड़ों देकर नया शाहकार बनाया है।

एक सीजन के सौदागर अनुराग कश्यप हैं। गैंग्स ऑफ वासेपुर वाले कश्यप ने धंधे की बड़ी सच्ची बात कह दी है। पहले उन्होंने कहा, फिल्म देखना भी वोट देने जैसा है – जो देखना चाहोगे, वैसा पाओगे। फिर उन्होंने एनीमल पर एक कल्याणकारी कार्य करने का बिल्ला चिपकाया। कहा, ‘ऐसी फिल्में फैमिनिज्म (स्त्रीवाद) पर बहस खड़ी कर देती हैं। एनीमल से ‘मिसोजिनी’ (स्त्रियों से मर्द की घृणा) पर समाज में बहस तो खड़ी हुई – तो ये भी उसका एक बड़ा योगदान हुआ।’

यही वक्तव्य वह चीज है जो साल की हर चीज को एक जगह लाकर खड़ा कर देती है। धंधे का धंधा और ज्ञान का ज्ञान। ‘डीप फेक’ भी चाहिए ‘ऑथेन्टिसिटी’ भी। ‘रिज़’ भी चाहिए और ‘सिचुएशनशिप’ भी। ऑस्कर वाइल्ड ने इतनी ‘सादगी’ की शायद ही कल्पना की हो।

लेकिन, बावजूद इसके अगर हम जानते हैं कि जीवन का मूल्य क्या है तो हमें और जोरों से सरल और मूल्यवान होने की तलब लगती रहेगी। इस आलेख के साथ एक चित्रकार की कल्पना का अंश जा रहा है, जिसमें एक बिल्ली अपना आलस झाड़ रही है और एक तितली उसके पास निर्द्वंद्व भाव से उड़ रही है। तितली मारी नहीं जा रही, अंगड़ाई लेती बिल्ली से जैसे जीवन का रंग बांट रही है। मुझे आने वाले साल के लिए यह चित्र सर्वाधिक उपयुक्त जान पड़ा।

फोमो (FOMO-फियर ऑफ मिसिंग) की बजाय जोमो (JOMO-जॉय ऑफ मिसिंग) की तरफ चलें। छूटने का दुख की बजाय, अच्छा हुआ जो वह छूटा – के आनंद की तरफ जाएं तो शायद हम अगले साल का असली ‘रिज़’ पा सकेंगे। वर्ना, सीजन के सौदागर तो आते रहेंगे।

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